क्या आप कभी इस सिस्टम के शिकार हुए? रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

सिस्टम जिसे आप थाना, कोर्ट और अफसर समझते हैं, क्या आपका उसमे भरोसा बढ़ रहा है. क्या होता है जब आप किसी झूठे मुकदमे के शिकार होते हैं या सत्य को लेकर सिस्टम से लड़ जाते हैं?

क्या आप कभी इस सिस्टम के शिकार हुए? रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

आज आपसे एक बात कहनी है. क्या आप न्यूज़ चैनलों या मीडिया के अनुसार बदल रहे हैं? आए दिन नेताओं के निम्नस्तरीय राजनीतिक बयानों पर घमासान चर्चा होती है. कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्हीं चर्चाओं को आप ख़बर या सूचना समझ रहे हैं, क्या इन चर्चाओं से आपको सिस्टम की पारदर्शिता नज़र आती है, सिस्टम जिसे आप थाना, कोर्ट और अफसर समझते हैं, क्या आपका उसमे भरोसा बढ़ रहा है. क्या होता है जब आप किसी झूठे मुकदमे के शिकार होते हैं या सत्य को लेकर सिस्टम से लड़ जाते हैं? सूचनाओं के अनेक माध्यम आपके हाथ में आ गए हैं मगर गौर से देखिए ज़्यादातर सूचनाएं एक जैसी हैं. यह जो एकरूपता है दरअसल यही सूचनाविहीनता है.

आपके पास माध्यम है मगर सूचना के नाम पर वही ठन-ठन गोपाल. इनकी इतनी रैली, उनके उतने बयान. मीडिया ख़ुद भी कमज़ोर हुआ है और साथ-साथ आपको भी कमज़ोर करता जा रहा है. नागरिक होने का मतलब है संवैधानिक अधिकारों से लैस व्यक्ति. जिसके संरक्षण के लिए सिस्टम में कई तरह की संस्थाएं होती हैं. लेकिन क्या ये संस्थाएं आपके अधिकारों का आदर करती हैं? क्या आपका अपने अधिकारों पर बस है, नियंत्रण है? इन अधिकारों के बग़ैर नागरिक नागरिक नहीं रहता, वह लोकतंत्र में एक ज़िंदा लाश की तरह हो जाता है, जो कंधे पर अपने दस्तावेज़ों को लादे कभी पुलिस कमिश्नर तो कभी संपादक तो कभी सांसद के यहां चक्कर लगाते रहता है. भारत भर में ऐसे बहुत सी ज़िंदा लाशें भटक रही हैं. झांव-झांव कांव- कांव करने वाले अमर्यादित प्रवक्ताओं ने न सिर्फ इतिहास को फुटबॉल का खेल बना दिया है, बल्कि आपके सवालों से भी वे फुटबॉल समझ कर खेलते हैं. मुझे आए दिन कई चिट्ठियां आती रहती हैं. जो प्रधानमंत्री को भी लिखी होती हैं और राष्ट्रपति को भी और मुझे भी. चिट्ठी लिखने वालों के पास कई बार प्रधानमंत्री कार्यालय से प्राप्ति का पत्र भी आता है और फोन भी आ जाता है मगर होता कुछ नहीं.

आख़िर क्या बात है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन आने या चिट्ठी लिखने या मीडिया में छपने के बाद भी सिस्टम को फर्क नहीं पड़ता. हम सिस्टम के ऐसे सताए लोगों की प्राइम टाइम में जनसुनवाई शुरू कर रहे हैं. छोटी सी कोशिश है कि बक्से से बकवास प्रवक्ता ग़ायब हो और आम आदमी को लोकतंत्र में उसकी जगह मिले. 1 दिसंबर को जब प्राइम टाइम की तैयारी कर रहा था तब महाराष्ट्र से 6-7 लोग मिलने आए. चार पांच घंटे तक मेरा इंतज़ार करते रहे कि मिल कर ही जाएंगे. जब कार्यक्रम के बाद इनसे मिलने आया तो महाराष्ट्र से दिल्ली आए इन लोगों को जानकारी भी नहीं थी कि दिल्ली की ठंड कैसी होती है. मामूली ठंड में भी हाथो में दास्ताने पहन लिए थे. इनकी कभी मुझसे फोन पर बात हुई थी, मैंने यूं ही कह दिया कि मराठी में दस्तावेज़ हैं, मैं नहीं पढ़ सकता. मुझे यकीन नहीं हुआ कि ये मेरे लिए कई डाक्यूमेंट हिन्दी में अनुवाद कर लाए थे. एक साल से इनकी ख़बरें महाराष्ट्र के अंग्रेज़ी और मराठी अख़बारों में छप रही हैं. मगर इसके बाद भी कुछ नहीं हुआ.  जैसे जैसे ये लोग मेरे साथ बैग से दस्तावेज़ों की फोटो कॉपी निकाल रहे थे, मैं इनकी जगह खुद को देखने लगा. आप भी इनकी जगह ख़ुद को देखिए. वह स्थिति कितनी भयानक होगी कि महाराष्ट्र में न्याय न मिलने पर चार-पांच लोग दिल्ली आते हैं, पत्रकारों से मिलने, प्रधानमंत्री से मिलने, मंत्रियों से मिलने. 

अब आपको समझ आया कि सिस्टम कैसे आपको निहत्था और लाचार कर देता है. आपकी पूरी ज़िंदगी को दस्तावेज़ों में समेट कर बैग में भर देता है. नवीं मुंबई से आए लोग हाथ जोड़ने लगे. सिस्टम ने इन्हें इतना असुरक्षित कर दिया है कि बेटे की हत्या के बाद मां-बाप रोज़ अपनी हत्या होते देख रहे है. शाहजी सोनावने के 15 साल के बेटे को इसलिए दबंगों ने मार दिया क्योंकि उसने एक ऐसी लड़की से प्यार कर लिया जो उसकी जाति की नहीं थी. शाहजी सोनवने दलित हैं. आप कहेंगे कि दलित क्यों कहा क्योंकि ऑनर किलिंग में जाति एक पहलू होती है. इसलिए दलित बताना ज़रूरी है. ये सब दस्तावेज़ जो आप देख रहे हैं, कागज़ नहीं हैं, स्वपनिल की लाश है. इसमें और ममता के वकील पति अमित का ख़ून है इसमें. जिसे ये लोग थैले में भरकर दिल्ली आए हैं. देखिए सिस्टम ने इन्हें कितना अकेला कर दिया है. 

मीडिया और सिस्टम आपको तभी तक सक्षम समझता है जब तक आप किसी बड़ी भीड़ का हिस्सा होते हैं. जैसे ही अकेले होते हैं भरोसे की इमारत खोजने निकल पड़ते हैं. आए दिन ऐसी कहानियों को ढोते हुए लोग न्यूज़ चैनलों से लेकर तमाम तरह की संस्थाओं के चक्कर लगाते रहते हैं. ज़्यादातर बार ऐसी कहानियों को लौटा दिया जाता है, क्योंकि न्यूज़ चैनलों की शाम बेतुके बयानों से कट जाती है. ऐसी दास्तानों के लिए वाकई मेहनत करनी पड़ती है. सैंकड़ों पन्ने पढ़ने पड़ते हैं. रिपोर्टर की ज़रूर पड़ती है जो अब हैं नहीं. परमात्मा की श्रेणी को प्राप्त हो चुके एंकर ही बचे हैं. कई बार इन दस्तावेज़ों को समझने और बरतने की योग्यता भी नहीं होती है. लेकिन आम आदमी तो मुश्किल में पड़ जाता है. इसलिए कहता हूं कि इन बहसों से आपका हमेशा भला नहीं है. ये बहसें आपको अकेला कर रही हैं. इसीलिए मीडिया ऐसे लोगों को भगा देता है. सभी चिट्ठियां रिपोर्ट के लायक नहीं होती हैं मगर जो होती हैं वो भी फेंक दी जाती हैं. ऐसे लोग बिना मिले भगा दिए जाते हैं. मैं खुद संभाल नहीं पाता. इतने लोगों से कैसे कोई मिल सकता है.

उस दिन मुझसे यही होते-होते बच गया, लेकिन जो कहानी मिली वो मैं आपको सुनाना चाहता हूं. 19 जुलाई 2016 की घटना है मुंबई के नेरूल इलाके की यहीं पर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के उपभोक्ता सहायक शाहजी सोनवने के 15 साल के बेटे स्वपनिल सोनवने की हत्या होती है. पिता के अनुसार हत्या से पहले कुछ लड़के स्वपनिल को घर से लेकर ऑटो में जाते हैं. उसकी पिटाई करते हैं और फिर थाने ले जाते हैं. थाने से स्वपिनल के पिता और माता को सूचना मिलती है. इनका आरोप है कि पुलिस चाहती तो उनका बेटा मर सकता था मगर उनके अनुसार आरोपी पुलिस के सामने ही 'सैराट' फिल्म टू बनाने की धमकी देने लगे. सैराट में भी जाति तोड़ कर प्यार करने वालों को हत्या हो जाती है. 

ऑनर किलिंग की घटना को 16 महीने हो गए मगर पीड़ितों को भरोसा नहीं है कि उनकी और उनके लिए केस लड़ रहे वकील की जान सुरक्षित है. इस घटना को महाराष्ट्र की मीडिया ने खूब छापा है. मीडिया को 15 साल के एक लड़के की हत्या में 'सैराट' फिल्म का दूसरा हिस्सा नज़र आया मगर स्वपनिल के मां बाप अभी तक खुद को नहीं समझा पाए हैं कि समाज के कुछ तबकों के पास इतनी ताकत कहां से आ जाती है कि 15 साल के अबोध लड़के की हत्या हो जाती है.

हिन्दुस्तान टाइम्स, दि टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई मिरर, मिड डे, नवभारत टाइम्स , दबंग दुनिया, दोपहर का सामना, वृतरत्न सम्राट, आपल महानगर, मुंबई चौफरे, संध्याकाल, जन्मभूमि, गुजरात समाचार, दिव्य भास्कर, संदेश, इंडियन एक्सप्रेस, एनडीटीवी, टीवी 9 ने इसे छापा और दिखाया. आपने देखा कि किस तरह मीडिया का असर कमज़ोर हुआ है और बदल में आम आदमी उससे भी ज़्यादा कमज़ोर हुआ है. 20 प्रकार के मीडिया में छपने के बाद भी इनका हाल ये है कि ये कभी सीएम से मिलते हैं तो कभी पुलिस कमिश्नर से मिलने की अर्जी लगाते हैं. क्यों किसी को भटकना पड़ता है. क्यों थाने के स्तर पर इन मामलों की पेशेवर जांच नहीं हो सकती? क्या कोई राजनीतिक दबाव है? इस मामले में 13 लोग गिरफ्तार भी किए गए. 5 अलग-अलग कारणों से ज़मानत पर रिहा भी हुए. इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि तीन-तीन बार सरकारी वकील बदले गए. एक साल तक ट्रायल ही शुरू नहीं हुआ.

13 नवंबर से ट्रायल शुरू होने वाला था, लेकिन 12 नवंबर को ममता जाधव के वकील पति अमित पर जानलेवा हमला होता है. हमले के बाद ट्रायल टल जाता है. वकील ममता जाधव अपने पति की सुरक्षा को लेकर इतनी असुरक्षित हो जाती है कि डेढ़ साल के बच्चे को सास के पास छोड़कर दिल्ली आ जाती है, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से गुहार लगाने. उसके साथ स्वपनिल के माता-पिता भी भटक रहे थे. वकील ममता जाधव की सास अस्पताल में है जहां ममता जाधव का वकील पति भर्ती हैं. 4 तारीख को पति का ऑपरेशन हो गया मगर उस वक्त ममता जाघव दिल्ली में थीं. ममता ने बताया कि जब वो और उसके पति ने शाह सोनवने के बेटे स्वपनिल की हत्या का केस लड़ना शुरू किया तो उन पर हमले होने लगे. ये हमले रूक ही नहीं रहे हैं और पुलिस उन्हें सुरक्षा नहीं दे रही है. ममता अनुसूचित जाति आयोग भी गई, महिला आयोग भी गईं.
 
स्वपनिल के पिता ने मुख्यमंत्री और पुलिस कमिश्नर को पत्र लिखा था कि वकील अमित कटारनवरे को सुरझा दी जाए. सुरक्षा नहीं दी गई. ममता के पति पर 5 सितंबर और 12 नवंबर को दो बार हमला होता है. 5 सितंबर के हमले के बाद भी सुरक्षा नहीं दी जाती है. कोई गिरफ्तारी नहीं होती है. 12 नवंबर का हमला जानलेवा था. अमित को रॉड से मारा गया. सर फोड़ दिया और पांव कूच दिया गया. कोई गिरफ्तारी नहीं हई. 13 नवंबर को ट्रायल शुरू होने वाला था, इस हमले के बाद टल गया है. 

ममता चाहती थी कि एफआईआर में हमले के लिए पुलिस की लापरवाही को भी ज़िम्मेदार बनाया जाए. उनके अनुसार पुलिस चाहती थी कि पुलिस का नाम हटा दिया जाए. आप इस कहानी में देखिए कि सिस्टम के सामने कौन पीड़ित है. यह जनसुनवाई है. पहले लोग बोलेंगे फिर पुलिस अपना पक्ष रखेगी तो उसका पक्ष आपके सामने ज़रूर रखेंगे. इस एपिसोड में पुलिस का पक्ष नहीं है जो पीड़ित हैं उनका है. ममता कहती हैं कि 12 नवंबर के हमले के बाद एफआईआर दर्ज कराने गई तो पत्नी होते हुए भी उनके नाम से एफआईआर दर्ज नहीं की गई. मुमकिन है आपको यह कहानी बोरिंग लगेगी. याद रखिएगा, जब आप ऐसी स्थिति में आएंगे तो बाकी दर्शकों और मीडिया को भी आपकी कहानी बोरिंग लगेगी और इसका फायदा उठाकर सिस्टम आपको तोड़ देगा.

ममता जाधव ने बताया कि जब से स्वपनिल की हत्या का केस लिया है तब से एक ही महीने में उनके ऊपर अचानक दनादन एफआईआर होने लगती है. 

  • 6 अक्तूबर 2016 को एक FIR नंबर i396/16 में ममता और उनके पति आरोपी बनाए जाते हैं.
  • 8 अक्तूबर 2016 को FIR नंबर i400/16 में ममता और पति अमित आरोपी बनाए जाते हैं.
  • 8 अक्तूबर 2016 को FIR में अमित और अन्य को आरोपी बनाया जाता है.
  • 9 अक्तूबर 2016 को भी दो अलग-अलग FIR दर्ज होती है. एक में पति-पत्नी और एक में पति को आरोपी बनाया जाता है.
  • 9 अक्तूबर को एक और FIR पति अमित और अन्य के खिलाफ होती है. 
  • 13 और 14 अक्तूबर को ममता जाधव और अमित के ख़िलाफ़ FIR होती है.

जो वकील हैं उनके ख़िलाफ़ अचानक से इतने FIR कहां से आ जाते हैं. इनमें से कई में इन वकील पति-पत्नी पर फर्जी जाति प्रमाण पत्र बनवाने में मदद का आरोप लगाया जाता है. क्या ये सारे एफआईआर इन पर दबाव बनाने के लिए किए गए? 15 साल के एक बेटे की हत्या होती है, उसका केस एक वकील लड़ने को तैयार होता है मगर आप देखिए कि कभी मुकदमे तो कभी हमले का सामना करना पड़ रहा है. ममता कहती हैं कि हमलावर कभी मंत्री का नाम लेते हैं, कभी पुलिस का नाम लेते हैं. इसलिए हम अपनी शिकायत में इन्हें आरोपी बनाते हैं. ये लोग दिल्ली इसलिए आए हैं कि ममता के पति को सुरक्षा मिल सके और हमला न हो. ये लोग अर्जी बनाकर हर जगह दे रहे हैं.

ममता जाधव और स्वपनिल के पिता और मां मुंबई वापस रवाना हो चुके हैं. ममता जाधव ने फोन पर बताया कि उनके पति की सुरक्षा में हमले के बाद अस्पताल में कुछ सुरक्षा कर्मी लगे थे, उन्हें हटा लिया गया है. हमने पुलिस अधिकारियों से बात करने का प्रयास किया मगर बात नहीं हो सकी. कुछ ने फोन काट दिया, कुछ ने बात टाल दी. अब ये कहानी आपसे क्या कहती है, एक कमज़ोर पक्ष को इंसाफ के लिए कितना लड़ना पड़ता है. सिस्टम उसे और कमज़ोर कर देता है. इस दौरान वो कितनी मौतें मरता है, किस असुरक्षा के माहौल में जीता है. मौत के सदमे के अलावा पैसा और वक्त का तो हिसाब ही नहीं. बेटे को भी मार दिया गया और जो इंसाफ के लिए लड़ रहे हैं वो रोज़ मर रहे हैं. हो सकता है कि इनके पक्ष में कमी हो लेकिन क्या यह सही नहीं है कि सिस्टम आदमी को मार देता है. सिस्टम के सामने आम आदमी निहत्था खड़ा है. आप कहां खड़े हैं, क्या आपको यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं लगता कि सिस्टम सबके लिए पेशेवर तरीके से और बिना किसी भेदभाव के काम करना चाहिए.

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