क्या श्रीलंका ने भारत से सीखा है? भारत क्यों सीखे श्रीलंका से?

श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी के बीच नफरत की तार पहले से मौजूद थी, वह अपने नफरतों को जीना चाहती थी,ऐसा नहीं है कि उसे आर्थिक फैसलों में मनमानापन नज़र नहीं आ रहा था, लेकिन वह मदहोश थी कि जब कुर्सी पर मसीहा गोटाबया है तब क्यों चिन्ता करना.

उन सभी को सुनना बंद कर दें जो नसीहत दे रहे हैं कि श्रीलंका से सीखो. जब आप अपनी ग़लतियों और तबाहियों से नहीं सीखते हैं तो फिर श्रीलंका से पाठ्य पुस्तक मंगा कर सीखने की कोई ज़रूरत नहीं है. नहीं सीखने के लिए हमारे पास कटेंट की कोई कमी नहीं है, श्रीलंका से आयात करने की कोई ज़रूरत नहीं है.9 जुलाई को श्रीलंका की जनता सड़कों पर आ गई.अब इस वीडियो को वायरल करा-करा कर भारत में लोग दूसरे लोगों पर नाहक प्रेशर डालने में लगे हैं कि श्रीलंका की जनता से सीखो. सिंहासन खाली कराने आ गई है. पर क्या यह वही जनता नहीं है जो इसी सिंहासन पर तानाशाह और नरसंहार के आरोपी को बिठाने के लिए बेचैन थी? श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी पर मज़बूत नेता, मज़बूत सरकार और मज़बूत देश का भूत सवार था जैसे मज़बूती का अहसास केवल तानाशाही के साबुन से नहाने के बाद ही आता है. इस जनता के भीतर धर्म और नस्ल के प्रति नफरत भरी हुई थी, अब नहीं है कौन दावे से कह सकता है, क्या उसके मिट जाने पर यकीन किया जा सकता है? वह इन नफरतों के खिलाफ आई है या रोज़ी रोटी और भूख के कारण आई है?

ढाई साल भी नहीं हुए जब यह जनता तुली हुई थी कि तानाशाह चाहिए, क्या इसने जर्मनी, म्यानमार का नाम नहीं सुना था? जो अपना लोकतंत्र छोड़ कर तानाशाही चुन रही थी.कह रही थी कि तमिलों और मुसलमानों का सफाया चाहिए. सिंहली बौद्धों का एकछत्र राज चाहिए. ऐसा नेता चाहिए जो सिंहला बौद्ध हो और वो सबको ठीक कर दे. जिस जनता ने खुद कभी इतिहास से नहीं सीखा, उस जनता से कभी नहीं सीखना चाहिए. पूछना चाहिए कि इस जनता ने ऐसा क्या सीख लिया है, जिसका वीडियो दिखा कर भारत की आम जनता पर प्रेशर डाला जा रहा है कि वह इनसे सीखे. भारत श्रीलंका नहीं है और भारत श्रीलंका नहीं होगा. नहीं सीखने का आरोप केवल आप पर नहीं लग सकता, श्रीलंका की जनता पर लगना चाहिए. आरोप तो यह लगना चाहिए कि श्रीलंका की जनता और वहां के धार्मिक नेता भारत से सीख रहे थे, उनके सीखने में क्या कमी रही कि उनका हाल अर्जेंटीना, म्यानमार, यूक्रेन के जैसा हो गया है. भारत से सीखने का उत्साह उस समय देखते बनता था जिस समय आपसे कुछ देखा ही नहीं जाता था.

2019 में NYT में कपिल कोमिरेड्डी की एक रिपोर्ट है. इस खबर की हेडलाइन है कि “We Needed a Modi After the Easter Attacks”, 2015 की इंडियन एक्सप्रेस की यह रिपोर्ट है. अरुण जनार्धन की रिपोर्ट की हेडलाइन है कि काश श्रीलंका में मोदी जैसा नेता होता.2015 में यह चाहत पैदा की जा रही थी,2019 में पूरी हो गई. चार साल के अंतर पर छपे इन दो अखबारों की खबरों को एक साथ पढ़ कर देखिए. न्यूयार्क टाइम्स में गोटाबाया के एक समर्थक का बयान छपा है कि ईस्टर के धमाकों के बाद हमें मोदी चाहिए था. गोटा ही हमारे मोदी हैं. वे बहुत नहीं सोचते हैं,सीधे एक्शन करते हैं. 2015 के इंडियन एक्सप्रेस की में श्रीलंका के पावरफुल धार्मिक संगठन बोदू बाला सेना BBS के चीफ एक्ज़ीक्यूटिव का इंटरव्यू छपा है. दिलांता विथांगे कट्टरपंथी राष्ट्रवादी नेता माने जाते हैं जिन पर मुसलमानों और इसाइयों पर हमले के आरोप हैं. ये जनाब कहते हैं कि उन्होंने बीजेपी और RSS से प्रेरित होकर एक कंपनी रजिस्टर कराई है, जो जल्दी ही इस तरह के इंडियन वेंचर की तरह बौद्ध संस्कृति को बचाने के लिए राजनीतिक दल लांच करेगी. बीजेपी और RSS को इंडियन वेंचर समझते हैं तो ये लोग हमसे सीख रहे थे तो हम क्यों सीखें इनसे जब ये फेल हो गए. कहते हैं कि मोदी के साथ बहुत ही  साकारात्मक समझदारी है. आफिशयली तो नहीं लेकिन निजी तौर पर हमारी बातचीत RSS के नेताओं से है,बीजेपी के नेताओं से है. इनके बारे में आगे बात करेंगे.

यह मौका वीडियो वायरल कराने का नहीं है बल्कि जानने का है कि 2019 में गोटाबया में अवतार देखने से पहले उस साल या उसके पहले के सालों में क्या कुछ घट रहा था.दूसरे देश से नकल कर अपने देश में नेता लाने वाली जनता अपने आंगन में फिसल कर गिर जाएगा, उसे नहीं पता था मगर वह जो भी कर रही थी, जानबूझ कर कर रही थी. ऐसी जनता से कभी सीखने की गलती न करें.

ढाई साल में ही जब दूध दही नून तेल दवाई और पेट्रोल और अनाज मिलना बंद  हो गया तो तो उसे गोटाबया में अवतार की जगह शैतान नज़र आने लगा. जिस गोटाबया को हीरो बनाया कि सुख समृद्धि आएगी, उस गोटाबया ने जनता को ही ज़ीरो बना दिया. हमें यह भी देखना चाहिए कि गोटाबया और उसके समर्थकों ने हिंदुत्व की राजनीति और संगठनों से सीख कर वहां के तमिलों के खिलाफ ही अत्याचार किया. तमिलों को वहा हिन्दू में गिना जाता है. 2019 के न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट में कपिल कोमिरेड्डी ने लिखा है कि 2009 में तमिलों के भयंकर नरसंहार के बाद बौद्ध कट्टरवादियों ने मुसलमानों को आतंकवादी बताना और ललकारना शुरू कर दिया. बोदू बाला सेना ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत की सामग्री का प्रचार करना शुरू कर दिया. कहना शुरू कर दिया कि गोटाबया ही हमारे देश, हमारा धर्म, और हमारी नस्ल का रक्षक है.इसलिए कहता हूं कि तमिलों का नरसंहार करने वाले नेता के पीछे जयकार लगाने वाली जनता से कभी भी सीखना,हमारी उस जनता का अपमान है जो किताबें छोड़ कर व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी से इतिहास का सारा कोर्स कंपलीट कर चुकी है.

प्राइम टाइम में ज़ोरदार पंक्तियों को अंडर लाइन करने की सुविधा नहीं होती,इसलिए यू ट्यूब में दोबारा ज़रूर देख लें. श्रीलंका की जनता को लोकतंत्र नहीं चाहिए था,उसे जनता के बीच से शत्रु चाहिए था, जिसका सफाया करने के नाम पर वह बौद्ध गौरव की स्थापना के सपने जगाती रहे.बौद्ध नेताओं और उनके प्रभाव में जनता ने उस नेता को अवतार बताना शुरू कर दिया जो आज भाग गया है जिसका नाम गोटाबया राजापक्षे है. पिछले हफ्ते हमने ग्रीक कथाओं की बात की थी, आज श्रीलंका की कथाओं की बात करेंगे, इससे भारत में किसी के भी आहत होने का ख़तरा नहीं है.

संडे ऑब्ज़र्वर, कोलंबो टेलिग्राफ और अन्य कई अखबारों में श्रीलंका से जुड़े मिथकों और गोटाबया को उन मिथकों के अवतार के रुप में देखे जाने के कई प्रसंग मिलते हैं. 2019 में लोग मानने लगे थे कि बुद्ध के जन्म के 2500 साल श्रीलंका में एक महान राजा का जन्म होगा जो हमारे देश में बौद्ध संस्कृति और धर्म की रक्षा और उद्धार करेगा. यह राजा पाराकुंबा का अवतार होगा जिसके शासन काल में सुख समृद्धि आएगी. इस कथा का नायक अब गोटाबया में नज़र आने लगा. एक जगह पढ़ने को मिला कि जनता गोटाबया में अंगारिका धर्मपाल का अवतार देखने लगी थी. अंगारिका धर्मपाल के समय अमरीका और यूरोप में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ. उन्होंने  श्रीलंका में भी बौद्ध धर्म का उद्धार किया जिसे विदेशी गुलामी के दौर में कुचल दिया गया था. 21 अप्रैल 2022 कोलंबो टेलिग्राफ ने लिखा है कि 2019 में कह रही थी कि आज़ादी के बाद पहला राष्ट्रपति मिला है जो अल्पसंख्यकों के वोट से नहीं जीता है.

मिथकों में बताया गया है कि जनता जब खतरों से घिर गई तब उसने युवराज दियानसेन से मदद मांगी और दियानसेन ने रक्षा की. गोटाबया में दियानसेन का चेहरा दिखाई दे रहा था क्योंकि लोक-कथा है कि 2550 साल बाद दियानसेन का अवतार होगा. श्रीलंका के नेशनल म्यूज़ियम में इस लोक-कथा का चित्रण मौजूद है और वहां के लोगों के दिलो दिमाग में इसकी मान्यता आज भी है. गोटाबया में देवी-देवताओं का रूप देखते देखते श्रीलंका की बौद्ध बहुसंख्यक जनता को गोटाबया में हिटलर का भी रुप नज़र आने लगा.वह हिटलर को भी देवता मानने लगी. किसी को गोटाबया में डिक्टेटर नज़र आया तो किसी को टर्मिनेटर. यह सब खूबियां उसे चाहिए थीं, और इन खूबियों के साथ गोटाबया उनके सपनों में आने लगा.
श्रीलंका की जनता के विद्रोह से सीखने की जल्दी न करें, ज़रूर बहुत से लोग नए सामाजिक संबंधों की बात कर रहे हैं, नफरतों को मिटाने की बात कर रहे हैं लेकिन मूल रुप से अभी वे गुस्से में हैं. इस जनता ने बहुत सोच समझ कर ढेर सारे तर्कों और मंत्रों को जुटा कर नरसंहार और दमन करने वाले को अवतार घोषित किया था. धर्म के हिसाब से सोचने लगी थी, उसे केवल सिंहला बौद्ध बहुसंख्यक का राज चाहिए था. उसे तमिल हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाइयों का दमन चाहिए था.
श्रीलंका के अखबार डेली मिरर की हेडलाइन कहती है when your electoral wishes come true यानी जब आपके चुनावी ख़्वाब सच हो जाते हैं, इस लेख में तस्वीर है कि पेट्रोल के लिए जनता लाइन में लगी है और सेना का अधिकारी लात मार रहा है. संजीवा फर्नांडो लिखते हैं कि जनता सैनिक तानाशाह चाहती थी, पेट्रोल पंप पर उसी का स्वाद चख रही है यानी बूट खा रही है. बूट को लात से कंफ्यूज़ न करें.बहुसंख्यक आबादी वाले बौद्धों को अपने अलावा हर दूसरे धर्म में आतंकवादी नज़र आने लगा.

आतंकवादियों की सूची में केवल तमिल, मुसलमान और ईसाई नहीं थे बल्कि मानवाधिकार की बात करने वाले पश्चिमी संगठन, NGO भी थे.राष्ट्रपति के चुनाव में गोटाबया राजापक्षे को 52 प्रतिशत से अधिक वोट मिले. बहुसंख्यक आबादी वाले ज़िलों में विपक्ष को एक सीट नहीं मिला. जनता नारे लगाती थी कि खाने के लिए भले कुछ न हो, मगर देश सुरक्षित हो. मज़बूत सरकार चाहिए और मज़बूत नेता. यही नारा वहां गूंजा था. वहां मतलब श्रीलंका में. ध्यान वहां रहे, यहां न भटके. श्रीलंका के अखबार डेली मिरर ने लिखा है कि जब भूख की आग लगी है तब सिंहला बौद्ध के गौरव की स्थापना के समर्थकों का मज़ाक उड़ने लगा है.हालत यह हो गई है प्रशासन हर किसी के सामने हाथ फैला कर खड़ा है, चाहे वो बौद्ध हो या मुसलमान या ईसाई या हिन्दू या कम्युनिस्ट. कटोरा लेकर मदद मांग रहा है. सिंहला बौद्ध खुद पर भी ऊपर हंस रहे हैं कि हमीं कहा करते थे कि भले भूखे रह जाएंगे मगर देश बचा रह जाए. भूख ऐसी लगी को देश बचाने वाले मसीहा को देश से भागना पड़ गया. BBC के चैनल 4 की एक डाक्यूमेंट्री देख रहा था. 2009 में गोटाबया रक्षा सचिव थे. उनके नेतृत्व में श्रीलंका के हिन्दू तमिलों का नरसंहार किया गया गया.इसी नरसंहार ने उन्हें हीरो बना दिया.

2009 के साल में श्रीलंका ने तमिल लोगों से बात करने, उनके अधिकार मांगने की लड़ाई को लेकर अपना सब्र खो दिया.उस समय के अखबारों की हेडलाइन पलट कर देखिए कि सरेंडर करने वाले तमिलों तक का नरसंहार किया गया.तब एनडीटीवी ने भी इसे कवर किया था, आतंकवाद और गृह युद्ध का सफाया करने के नाम पर गोटाबया राजापक्षे की सेना ने रौंदना शुरू कर दिया. तमिल जनता की हर मांग को रौंद दिया गया.उन पर जितना हमला होता, श्रीलंका के बौद्ध खुश होते थे. 2009 में गोटाबया के भाई महिंदा राजपक्षे राष्ट्रपति थे. उस समय की तमाम खबरों और चैनल 4 की डाक्यूमेंट्रों को देखना खुद पर अत्याचार करना है. आप देख नहीं सकते हैं कि कैसे तमिल लोगों को आतंकवादी बता कर उनके घर अस्पताल सब पर बम बरसाए गए. भागते हुए गरीब तमिलों को गोलियों से भून दिया गया. उनके हाथ बांध कर समंदर में फेंक दिया गया. कितनी ही महिलाओं का बलात्कार के बाद कत्ल कर दिया गया. गोटाबया जब राष्ट्रपति के लिए चुने गए उसके बहुत पहले से हेग की अंतर्राष्ट्रीय अदालत में उन पर युद्ध अपराध का मुकदमा चल रहा था. आज भी संयुक्त राष्ट्र की जांच चल रही है. इन सभी संस्थाओं ने भी लोकतंत्र और मानवता की चाह रखने वालों को फेल किया है. श्रीलका की जनता जानती थी कि इस शख्स ने आतंकवाद के नाम पर किस तरह का अत्याचार और नरसंहार किया है फिर भी उसे अवतार और मसीहा बताने लगी.

गोटबया राजापक्षे तमिल नरसंहार के आरोपी हैं लेकिन बहुसंख्यक बौद्ध को गर्व की राजनीति चाहिए थी, पहले बौद्ध का नारा लगाने वाली जनता को कुछ और सुनाई नहीं देता था, कुछ और दिखाई नहीं देता था, वह अपनी बर्बादी खुद ही चुन रही थी. श्रीलंका से नहीं सीखने का अफसोस कभी नहीं करना चाहिए. जब हम खुद से नहीं सीखते हैं तो श्रीलंका से क्यों सीखेंगे. हिमाचल में यह इमारत कोई पहली बार नहीं गिरी है, हर साल ऐसी इमारतों के गिरने के वीडियो आते हैं, केदारनाथ त्रासदी को लोग भूल ही गए, चेन्नई की बाढ़ को भूल गए तो सिलचर की बाढ़ को क्यों याद रखेंगे जहां इस बार पहली मंज़िल तक पानी आ गया था. अहमदाबाद के पॉश इलाकों में बारिश का पानी भर गया, लोग क्या सोच कर वीडियो वायरल करा रहे हैं, जिनका घर डूबा है, क्या उन्हें ही इस बात से फर्क पड़ता है? क्या उन्हें नहीं पता कि हर साल कोई न कोई शहर से ऐसा वीडियो वायरल होता रहता है तो इस साल उनके घर का हो गया तो क्या हो गया. जनता को इस वीडियो से भी फर्क नहीं पड़ने वाला है. मध्यप्रदेश में 8 साल के गुलशन की गोद में उसके दो साल के भाई राजा का पार्थिव शरीर है. पिता पूजाराम जाटव अपने बेटे की लाश को ले जाने के लिए गाड़ी की तलाश में गए थे.एक बाप अपने बेटे को मौरैना के अस्पताल लाया था. जान नहीं बची. उसे क्या बीमारी थी अब जानकर क्या करेंगे. अस्पताल से एंबुलेंस के लिए मदद मांगी,किसी ने ध्यान नहीं दिया. योगेंद्र सिंह नाम के पुलिस अधिकारी ने पूजाराम की मदद की. एंबुलेंस का इंतज़ाम किया. आठ साल के गुलशन के मानसिक आघात के बारे में सोचने का वक्त किसे हैं.

ज़रूर जानना चाहिए कि श्रीलंका की जनता कैसे धर्म के नाम पर सनक गई थी, उसे अपने अलावा हर कोई आतंकवादी नजर आता था, गोटाबया के हर फैसले को सही ठहराने में लगी रहती थी. जनता को पता था कि गोटाबया का भाई महिंदा राजापक्षे ने भी नोट पर अपना फोटो छपवा दिया. दो बार से अधिक राष्ट्रपति बनने का कानून रद्द कर दिया. मगर 2015 में जनता ने हरा दिया तब लोगों ने लिखा की श्रीलंका की जनता समझदार है लेकिन जल्दी ही उसके भीतर तमिलों मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ नफरत फैलाने का काम शुरू हो गया. अब वह अपने भीतर के नफरत के आगे अपनी समझ की हत्या करने लग गई. चुनाव जीतने के बाद गोटाबया ने आठ नागरिकों की हत्या करने वाले सैनिक अफसरों को माफ कर दिया जनता कहा कि गोटाबया है तो सही किया है. गोटाबया गलत नहीं करता, वही जनता कह रही है कि गोटाबया अपने गांव जाओ. गोटाबाया भाग गया है.

गोटाबाया को पाकर जनता बदहवास हो गई, हर गलत को सही ठहराने में जुट गई, विदेशी हमलावरों से धर्म बचाना चाहती थी, देश हाथ से चला गया. आज धर्म भी काम नहीं आ रहा है.सरकार की ज़रा सी आलोचना करने पर लोग  पत्रकारों के पीछे पड़ जाते थे.2022 में प्रेस फीडम के सूचकांक में एक साल के भीतर श्रीलंका का स्थान 127 से 19 अंक नीचे गिरकर 146 पर आ गया. मीडिया रिपोर्ट में कई जगहों पर ज़िक्र आया है कि पत्रकार गोटा बया को व्हाइट वैन वाले कमांडो के चीफ के तौर पर देखते हैं, पत्रकारों को सफेद वैन में अगुआ किया जाता था फिर उनकी हत्या कर दी जाती थी.गोटाबया के राज में गोदी मीडिया का प्रसार हुआ.2009 में ही तमिल नरसंहार को उजागर करने वाले पत्रकार लसांता विक्रमातुंगे की गोली मार कर हत्या कर दी गई.यह सारी कहानी श्रीलंका की है.एक ही अंतर है कि सुनाने वाले इंडिया का है और सुनने वाले इंडियन हैं. ऐसा नहीं है कि भारत में आज खबरे नहीं हैं, लेकिन ख़बरों के चक्कर में रहने से बहुत ख़तरे हैं.

अच्छा है कि श्रीलंका, जावा सुमात्रा की खबरों से प्राइम टाइम का पन्ना भर कर जान बचाई जाए. ठीक है कि जनता 56 रुपए का एक डॉलर होने पर गुस्सा हो जाया करती थी लेकिन आज तो एक डॉलर 79 रुपये 43 पैसे का हो गया. 18 पैसा कमज़ोर हो गया.इतिहास में रुपया डॉलर के सामने इतना कमज़ोर नहीं हुआ. भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 14 महीनों में सबसे कम है. यूक्रेन से जो मेडिकल छात्र लौट कर आए हैं वे अपने भविष्य को लेकर चिन्तित हैं. बहुत से छात्र हमें पत्र लिख रहे हैं कि उस समय तो हमें मंत्री तक लाने गए, पूरा वीडियो बनाकर वायरल कराया गया कि सरकार कितना ध्यान रख रही है लेकिन कुछ पता नहीं चल रहा है कि उनके आगे की पढ़ाई का क्या होगा. कुछ राज्यों में कुछ कदम उठाए गए हैं तो कुछ राज्य का पता ही नहीं चल रहा है. मैंने उनसे यही कहा है कि इन सब मुद्दों से दूर रहने का समय है. वैसे भी आल्ट न्यूज़ के पत्रकार मोहम्मद ज़ुबैर को लखीमपुर खीरी की कोर्ट ने 14 न्यायिक हिरासत में भेज दिया है.हम पत्रकारों के जेल जाने की खबर करें या जनता के मुद्दों की पत्रकारिता करें. छात्रों के माता पिता वाकई चिन्तित हैं विश्वास नहीं होता, यही वो लोग हैं जो पत्रकारों के दमन पर चुप रहते हैं इसलिए यूक्रेन के छात्रों का क्या होगा, इन सबसे दूर रहना चाहिए. इससे पहले कि दक्षिण एशिया का कोई नेता करेंसी नोट पर अपना फोटो लगा दे, हम बता दें कि महिंदा राजपक्षे राष्ट्रपति रहते हुए यह काम कर चुके हैं. उनके आर्थिक फैसलों की कहानी अगले एपिसोड में करेंगे लेकिन आर्थिक हालात से जनता बनकर आई इस जनता को धर्म ने कैसे हैवान बना दिया.

सेना के अधिकारी कर्मचारी आफ रिकॉर्ड कह रहे थे कि तमिलों ने सरेंडर कर दिया था तब उन्हें निर्ममता से मारने के आदेश दिए गए. एक सैनिक का बयान छपा है कि हमने जो किया है, उसके लिए घुटनों पर झुक कर मापी मांगनी चाहिए. जो हार गए थे हमसे दया मांग रहे थे लेकिन हम निर्ममता बरत रहे थे. इनका नाम पड़ गया टर्मिनेटर. तमिल नरसंहार का वीडियो हिन्दी प्रदेशों में कम वायरल हुआ होगा. हुआ ही नहीं होगा. कश्मीर से ही फुर्सत नहीं होती है हिन्दी प्रदेशों को. आइये अब हम गोटाबया के कुछ बयानों पर नज़र डालते हैं जिससे लगे कि आप भारत में बैठकर श्रीलंका की कहानी सुन रहे हैं क्योंकि भारत में तो ऐसी कहानी सुनने का मौका ही नहीं मिलता है.

फरवरी 21 में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर गोटा बया कहते हैं कि मैं वो नेता हूं जिसकी आपको तलाश थी. मैं सिंहला बौद्ध नेता हूं और मैं यह कहने से कभी नहीं हिचकूंगा. मैं बौद्ध मान्यताओं के अनुसार इस देश का शासन चलाता हूं. जनवरी 22 में गोटाबया का बयान है कि मैं सिंहाली बहुसंख्यक का नेता हूं, उनका राष्ट्रपति हूं.मैं मानता हूं कि बहुसंख्यक सिंहला बौद्ध की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है. राष्ट्रपति के महल में बौद्ध धर्म की कौन सी मान्यता निवास करती थी जनता ने भीतर जाकर देख ही लिया होगा. श्रीलंका और भारत में कोई तुलना नहीं है, श्रीलंका हर चीज़ के आयात पर निर्भर है जबकि भारत में ऐसा नहीं है. श्रीलंका के पास निर्यात के लिए चाय है और उसकी अर्थव्यवस्था केवल पर्यटन पर निर्भर है. फिर भी देखना चाहिए कि एयरपोर्ट और एक्सप्रेस वे बनाने की राजनीति और उसके नाम पर विकास का जो प्रोपेगैंडा हुआ, उससे श्रीलंका कितना कंगाल हो गया. देखना ही है तो देखिए कि श्रीलंका में धर्म की राजनीति ने कैसे बहुसंख्यक को डरपोक बना दिया, उन्हें लगने लगा कि वही ख़तरे में हैं इसके लिए उन्हें मिटा देना ज़रूरी है जो उनसे संख्या में कम हैं. वे उनके कपड़े खाने और हर चीज़ से डरने लगे. डरते डरते एक दिन भूखों मरने लगे.

जिनकी एक ही बात पर सबसे अधिक ताली बजती थी. बौद्ध ख़तरे में हैं. बौद्ध धर्म को खतरा है इसे लेकर बौद्ध समुदाय के बीचे जाते ही ये हीरो बन जाते थे.बोदू बाला सेना और इसके दो नेताओं की राजनीति को भी समझने की ज़रूरत है.दिलांता विथांगे खुद को सेना का CEO बताते हैं और गालागोडा गानासार महासचिव. इनकी राजनीति का सबसे बड़ा नारा यही है कि बौद्ध ख़तरे में हैं.जो बहुसंख्यक आबादी है, उसे ही इन दोनों ने समझा दिया है कि श्रीलंका में बौद्ध की कोई पूछ नहीं है. 18 जुलाई 2014 को CNN की एक रिपोर्ट की हेडलाइन है भगवा लिबास में फासिवाद. श्रीलंका में बौद्ध अति-राष्ट्रवादियों का उभार. गानासार का एक भाषण है कि कोई भी मुसलमान किसी बौद्ध पर हाथ उठाएगा तो सभी का सफाया कर दिया जाएगा. उसके बाद बौद्ध धर्म गुरुओं का समूह मुस्लिम इलाके में जाते हैं औऱ घरों में आग लगा देते हैं. पुलिस कोई मुकदमा नहीं करती है गनासारा के खिलाफ. तमिलों से गृह युद्ध खत्म होने के बाद यह संगठन मुसलमानों को शत्रु बनाना शुरू करता है.हलाल मीट, हिजाब, बुर्का से लेकर मस्जिदों और धर्मांतरण के मुद्दे को खड़ा कर बौद्ध धर्म के मानने वालों में नफरत का ज्वार पैदा कर देता है. गोटाबया को राष्ट्रपति बनाने के लिए अपने समर्थकों से अपील भी करता है.

श्रीलंका का मौजूदा झंडा 1972 में स्वीकृत हुआ था जिसमें हरा रंग मुसलमानों के लिए है और नारंगी तमिल हिन्दुओं के लिए. पीला रंग भी अल्पसंख्यकों के लिए है. लेकिन बोदू बाला सेना की मांग रही है कि 1948 का झंडा बहाल हो और उसमें केवल सिंह हो.बोदू बाला सेना BBS का कहना है कि श्रीलंका में कोई माइनारिटी नहीं है सभी के सभी सिंहली है. कोई भी मुसलमान नहीं है कोई भी ईसाई नहीं है, सभी सिंहली हैं. इन्हीं को गोटाबया ने एक देश एक कानून बनाने के लिए टास्क फोर्स का चेयरमैन बनाया था.करीब 11 सदस्यों के इस टास्क फोर्स में केवल सिंहली बौद्ध समुदाय से ही सदस्य बनाए गए. राजापक्षे की यह सनक जनता को नज़र नहीं आई कि इस तरह से भेदभाव क्यों हो रहा है. कैथॉलिक बिशप कांफ्रेंस ने राष्ट्रपति गोटाब्या से मांग की है कि वे एक देश एक कानून को लेकर बनाए गए टास्क फोर्स को वापस लें. इसमें तमिल, हिन्दू, कैथोलिक और ईसाई अल्पसंख्यकों में से किसी को सदस्य नहीं बनाया गया है. कानून मंत्री अली साबरी ने तब बयान दिया था कि एक देश एक कानून के लिए टास्क फोर्स बनाते समय उनसे पूछा तक नहीं गया. जनता के लिए यह सब गलत नहीं था क्योंकि गोटाबया का फैसला गलत हो ही नहीं सकता था. इसी के लिए श्रीलंका को चाहिए था हिटलर. जिसने यहूदियों का नरसंहार किया. जिस हिटलर की दुनिया भर में निंदा होती है वह कब खुलेआम किसी देश में जनता के अरमान बन कर पैदा हो जाता है, पता नहीं चलता है. हिटलर वहां भी जनता के सपनों में बना रहता है जहां की जनता लोकतंत्र की आदी हो जाती है. अप्रैल 2021 में

श्रीलंका में मौजूद जर्मनी के राजदूत ने यह ट्वीट कर लिखा था कि मैं सुन रहा हूं कि आज के श्रीलंका को हिटलर के आने से काफी फायदा होगा. मैं ऐसी आवाज़ों को याद दिलाना चाहता हूं कि एडॉल्प हिटलर लाखों लोगों की हत्या और यातना का ज़िम्मेदार था, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकी. वह किसी भी राजनेता के लिए रोल मॉडल नहीं है. गोटबाया हीरो हो गए. सेना और धर्म के गुरुओं का साथ मिल जाए ऐसे किसी के लिए भी हीरो और मसीहा होना आसान होता है. मैं आपको क्रोधी फिल्म का गाना सुनाना चाहता हूं. फिल्म में इस गाने का संदर्भ कुछ और है लेकिन मेरा मतलब राजनीति के ज़रिए मसीहा की तलाश से है. इस गाने का मसीहा तो बहुत ही नेक इंसान है लेकिन राजनीति में जब मसीहा आता है तो वह अक्सर मानवता के लिए खतरा बन जाता है. खासकर तब जब जनता मसीहा पर आंखें मूंद कर यकीन करने लग जाती है.

अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि मसीहा या नायकवाद लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है.लेकिन हम न गांधी से सीखे और न अंबेडकर से. पोलिटिक्स को सिनेमा बना दिया है. पता ही नहीं चलता है कि नेता जी राजनीति के मंच पर हैं या सीरियल के सेट पर. हम मसीहा क्यों चाहते हैं, क्यों नहीं चाहते कि सिस्टम अपनी जगह पर हो और सबके लिए काम करे.जो लोग घर से नहीं निकलते हैं, वही बैठे बैठे ख्वाब देखने लगते हैं कि कोई मसीहा आ जाए, तो उसके पीछे निकलें. मसीहा पैदा करने के लिए तरह तरह से दुश्मन पैदा करते हैं, फिर एक दिन एक चालाक जनता के बीच आ जाता है कि कहता है कि मैं ही मसीहा हूं. जनता दीवानी हो जाती है और एक दिन मसीहा जनता का मास्टर बन जाता है.(अब यहां से गाना शुरू होता है) लो वो आगे चल निकला है, लो वो आगे चल निकला है, तुम उसके पीछे हो जाओ लो वो आगे चल निकला है, या पहुंचों अपनी मंज़िल पर, 6या इन रस्तों में खो जाओ, कसम उठाकर उसने कसम उठाया है, वो मसीहा आया है, आया है…..डर ख्वाब भरम सब हार गए…डर ख्वाब भरम सब हार गए, इंसान की हिम्मत जीत गई…जागो देखो खोलो आंखें वो रात दुखों की बीत गई…बीत गई…उठो किसी ने नींद से तुम्हें जगाया है, वो मसीहा आया है, आया है…आया है…बहुत दिनों हमने हमें तड़पाया है…..मसीहा आया है आया है…

इस गाने को सुनते ही मैं किसी को भी मसीहा मानकर चलने लगता हूं, फिर अपना ही प्राइम टाइम याद आ जाता है और घर लौट आता हूं.जब भी राजनीति में मसीहा की बात सुनता हूं, मुझे क्रोधी फिल्म का यह महान गाना याद आ जाता है जिसे महान गीतकार आनंद बख्शी ने लिखा था. श्रीलंका की जनता गोटाबया के कमरे में बैठ कर अपने मसीहा के भाग जाने की खबर देख रही थी. जिसे बौद्ध धर्म की रक्षा करना था, जिसे पता नहीं क्या क्या करना था.ऐसा नहीं है कि श्रीलंका की तरह हर जगह जनता अपनी मर्ज़ी से सिंहासन खाली करा लेगी.चीन और रुस में जनता सिंहासन खाली करा कर देखे. अंध राष्ट्रवाद की राजनीति में मूर्खता टाप क्लास की हो जाती है. धर्म की राजनीति ने श्रीलंका जैसा खुशहाल देश के हाथ में कटोरा थमा दिया है. श्रीलंका की राजनीति धर्म और सैनिक मान्यताओं का काकटेल बनने लगी.

एक तरफ से धर्म गुरु ज्ञान दे रहे हैं और दूसरी तरफ सैनिक अफसर जनता को अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे हैं कि सारे दुखों का इलाज सैनिक तानाशाह ही करेंगे. एक धर्म, एक देश, एक देश एक कानून का नारा गूंज रहा था.गोटाबया ने जब इसके लिए टास्क फोर्स बनाया तो किसी कानून के जानकार को नहीं बल्कि बौद्ध धर्म गुरु को अध्यक्ष बना दिया.दूसरे कई टास्क फोर्स और समितियों में सेना के रिटायर लोगों को बिठाने लगा.इस तरह से सरकार में धर्म के नाम पर ठेकेदार और सेना की भक्ति के नाम पर सैनिक अफसर बिठाए जाने लगे. धर्म और देश की रक्षा के नाम पर बोद्ध धर्म गुरुओं और सैनिक अफसरों से जनता को घेर दिया गया कि इनका सम्मान तो करना ही करना है. ये तो भगवान हैं गलती करेंगे नहीं.इसकी आड़ में गोटाबया ने मनमाने फैसले किए, जनता से हर फैसले पर कहा, वाह गोटाबया वाह.वाह गोटा जी वाह.राजनीति और सरकार का काम जब धर्म गुरु और सेना के हवाले किया जाने लगता है, उसी समय जनता की भलाई की आत्मा परलोक जाने के लिए अटैची बांध लेती है, मेरी इस बात को लिखकर पर्स में रख लीजिएगा. किसी अखबार के लेख में एक लाइन थी कि गोटाबया राजापक्षे ने आक्टोपस की तरह श्रीलंका के लोगों के जीवन के हर पहलू पर कब्ज़ा कर लिया था, हमने एक फिल्म देखी थी आक्टोपस पर, माई आक्टोपस टीचर बड़ी प्यारी फिल्म थी और आक्टोपस बड़ा ही प्यारा प्राणी है लेकिन यहां मतलब था कि दोस्ती यारी नातेदारी सब में गोटाबया की राजनीति घुस गई थी. जो गोटाबया का विरोधी है मतलब देश का विरोधी है. यह कहानी पूरी तरह श्रीलंका की है.

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2012 से लेकर 2019 के दौरान श्रीलंका को लेकर जो संपादकीय लेख छपे हैं उन्हें पढ़ कर पता चलता है कि श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी के बीच नफरत की तार पहले से मौजूद थी, वह अपने नफरतों को जीना चाहती थी,ऐसा नहीं है कि उसे आर्थिक फैसलों में मनमानापन नज़र नहीं आ रहा था, लेकिन वह मदहोश थी कि जब कुर्सी पर मसीहा गोटाबया है तब क्यों चिन्ता करना. जब तक तमिलों और उनके बाद मुसमलानों को कुचला जा रहा है तब तक कोई चिन्ता नहीं. मीडिया में छपे पुराने लेखों में कई बार ज़िक्र देखा कि श्रीलंका 2014 के बाद के भारत से सीख रहा था.मुझे लगता है कि उस वक्त ऐसा लिखने वाले जल्दी में थे.अगर श्रीलंका भारत से ठीक से सीखता तो इस तरह फेल नहीं होता. कोई मुल्क एक दिन में तबाह नहीं होता है, गोटाबया राजपक्षे से ज्यादा ऐसे मज़बूत नेता को बनाने की राजनीति भी ज़िम्मेदार है. आप इतिहास उठाकर देखें जहां जहां नेता मज़बूत हुए हैं वहां वहां जनता कमज़ोर हुई है लेकिन आप इतिहास के लिए किताब नहीं, वही देखें जो व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में आया है.आपकी खुशी में ही हमारी खुशी है.