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This Article is From Aug 18, 2017

बोस्कियाना में कुछ लम्हे, किस्सों और शब्दों के जादूगर गुलजार के साथ

Narinder Saini
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 18, 2017 14:37 pm IST
    • Published On अगस्त 18, 2017 14:35 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 18, 2017 14:37 pm IST
उम्र यही, 10-12 साल रही होगी. दूरदर्शन का जमाना था. टीवी पर एक फिल्म आई जिसमें एक नन्हा बच्चा पढ़ाई से परेशान है, और वह घर छोड़कर चला जाता है. उसकी जिंदगी देखकर बहुत मजा आया और मन किया कि हम भी उसकी तरह सब कुछ छोड़कर निकल जाएं दुनिया देखने. उस बच्चे को लगता था कि दुनिया में पढ़ाई से खराब कोई दूसरा काम नहीं है. हमें भी ऐसा ही लगता था. आखिर में उसको एहसास होता है कि पढ़ाई करना ही ठीक है. फिल्म देखकर मजा तो आया लेकिन पढ़ाई के प्रति मन तब भी मीठा नहीं हुआ. फिल्म काफी दिन तक दिमाग पर छाई रही. उस डायरेक्टर ने हम बच्चों की दुखती रग को छेड़ा था. फिल्म थी ‘किताब’...

जब कॉलेज के दिन आए तो ‘माचिस’ फिल्म आई. हम चार दोस्त थे और अक्सर सारे दिन मस्ती किया करते थे. ‘किताब’ से सिर्फ फिल्मी मजा लिया था, सबक नहीं. इसलिए कोर्स ऐसा था कि क्लास में जाने को मन नहीं करता. अक्सर हम दोस्त बैठकर 'माचिस' फिल्म के गाने गुनगुनाते रहते. जिसमें हमेशा जुबान पर चढ़ा रहने वाला था, 'छोड़ आए हम वो गलियां...' आज भी यह गाना बजता है तो उन गुजरी गलियों में पहुंच जाता हूं. यह जादू उसी डायरेक्टर-शायर का था, जिसने 'किताब' बनाई थी. इसी डायरेक्‍टर का नाम है गुलजार साहब.

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बोस्कियाना में पहला कदम, जादुई शख्स से पहली मुलाकात
पिछले साल नवंबर में वह दिन भी आया जब उस महान हस्ती से मिलने का मौका मुझे मिला. फोन पर तो उनसे कई बार बात हो चुकी थी. इस मामले में मैं कई बार खुशकिस्मत रहा क्योंकि जब भी उन्हें मोबाइल पर फोन किया, बात हो गई. लेकिन आमने-सामने बात करने के कई मौके मैं चूक चुका था. एक आर्टिकल के सिलसिले में उनसे मुलाकात करनी थी. दिल्ली से मुंबई का सफर सिर्फ उस शख्स से एक घंटे की मुलाकात के लिए तय किया था. बोस्कियाना ( गुलजार के बंगले का नाम) के अंदर घुसते ही रोमांच से भर गया था.

उनके घर के अंदर जाने का ऊसूल है कि जूते आपको बाहर उतारकर आने होते हैं. अंदर सेक्रेटरी से मुलाकात हुई तो उसने कहा, पानी पीजिए सर आप ही का इंतजार कर रहे हैं. कमरे के बाहर दरवाजे पर नजर पड़ी तो देखा कि पंजाबी जूतियों का एक जोड़ा पड़ा है जो सुनहरे रंग का था. जैसे ही मैं अंदर दाखिल हुआ तो अलौकिक एहसास हुआ. ऐसा कमरा जिसकी चाहत मुझे हमेशा से रही है. जिसके अंदर सुकून से बैठकर लिखा जा सके. हर ओर बुद्ध की प्रतिमाएं थीं, जो अपार शांति का एहसास कराती थीं. इतने में मांड लगे सफेद रंग के कुर्ते-पाजामे और सुनहरी रंग की पंजाबी जूतियों में वो शख्स दाखिला हुआ, जिसकी जादुई दुनिया में मैं बचपन से ही खोया था.
 
gulzar

इश्क सिर्फ औरत से ही नहीं होता
उन्होंने मीठी-मुस्कान और बड़े ही प्यार से मुझे बैठने के लिए कहा. बैठते ही उन्होंने चाय के लिए कहा और बोले की तुलसी वाली चाय लाना. उसके बाद वे मुझसे मुखातिब हुए और बोले कि आपका टॉपिक मैं समझ गया हूं, चलो उस पर बात करते हैं. उनका एक-एक शब्द दिमाग में गूंज रहा था. इतने सधे लहजे में सोच-समझकर शब्‍दों का इस्तेमाल तो सिर्फ शब्दों का मसीहा ही कर सकता था. वे धारा प्रवाह मेरे टॉपिक पर बोले जा रहे थे, और मैं मंत्र-मुग्ध सुन रहा था. वे इश्क की बात कर रहे थे, और इश्क उनकी कविताओं में रचा-बसा है. मुझसे रहा नहीं गया, और मैंने पूछा कि आपको किस चीज से इश्क है...मैंने इश्क पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया...उन्होंने मुस्कराते हुए कहा इश्क सिर्फ औरत से ही नहीं होता... लिखने-पढ़ने से भी हो सकता है. मैं समझ गया कि यह सवाल उन्हें थोड़ा चुभ गया है.

थोड़ी देर बाद, मैंने उनसे फिर एक सवाल पूछा, 'आपकी चांद को लेकर दीवानगी की क्या वजह है.' उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि जिस तरह जिंदगी और हर चीज बदलती रहती है, उसी तरह चांद भी एक ऐसी चीज है जो हमेशा बदलता रहता है. वह कभी भी स्थिर नहीं रहता है, इसी तरह जिंदगी भी है. तभी तो उन्होंने लिखा, 'चांद जितनी शक्लें बदलेगा, मैं भी उतना ही बदल बदल कर लिखता रहूंगा..'

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उनके साथ बातें करते हुए इतना समय जाने कब बीत गया, पता ही नहीं चला. अब समय था उनसे विदा लेने का. लेकिन उन्होंने मेरे चेहरे पर उनसे मुलाकात की चमक को भांप लिया था, और उन्होंने एक कप और तुलसी वाली चाय के लिए कहा. मेरे चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई, और थोड़ा समय मिलेगा उनके साथ बैठने का. उनसे मिलकर उनके अक्खड़ होने और सख्त मिजाज होने की दोस्तों की सारी बातें हवा हो गईं. वे तो अपनी साधना में लीन साधक हैं, जिन्हें बेतुकी बातों से कोई सराकोर नहीं. उनसे बात करने के लिए बहुत मेहनत की जरूरत है. एक बात यह भी समझ आ गई कि अपने शब्दों को किफायत से इस्तेमाल करने वाले शख्‍स की कलम ही 83 साल की उम्र में भी धारदार रह सकती है. काफी बातों के बाद अब जाने का समय आ गया था, और दिमाग में गुलजार साहब की यही पंक्तियां घूम रही थी, 'उदासी अगरबत्ती की तरह होती है और देर तक रहती है...'


लेखक एनडीटीवी में न्‍यूज ऐडिटर के पद पर कार्यरत हैं.

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