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This Article is From Jun 10, 2019

गिरीश कर्नाड प्रतिरोध का व्याकरण थे, जो हम भूलते जा रहे हैं...

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 10, 2019 16:11 pm IST
    • Published On जून 10, 2019 16:11 pm IST
    • Last Updated On जून 10, 2019 16:11 pm IST

गिरीश कर्नाड की कुछ अंतिम मार्मिक छवियां उन प्रतिरोध सभाओं से बनती हैं, जहां वह कभी 'मैं भी अर्बन नक्सल' और कभी 'नॉट इन माई नेम' की तख़्ती लगाकर पहुंचे दिखाई पड़ते थे. 80 साल की उम्र में अपनी लगातार बड़ी होती शारीरिक व्याधियों के बीच वह अगर इन सभाओं में लंबी दूरी तय कर पहुंचते थे, तो इसलिए नहीं कि उनमें किसी तात्कालिक राजनीतिक प्रतिरोध का शौक या जुनून था, बल्कि इसलिए कि वह जिस बहुलता, विविधता और स्वतंत्रता को भारतीय चेतना का मूल्य मानते रहे, उस पर बढ़ रहे खतरे का उन्हें गंभीरता से एहसास था.

लेकिन गिरीश कर्नाड का असली मोल इन प्रतिरोध सभाओं से कहीं बहुत बड़ा है. उनके नाटकों में भारतीय चेतना की प्रश्नाकुलता अपने शिखर पर दिखाई पड़ती है. मिथक और इतिहास के उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए वह समकालीन यथार्थ से मुठभे़ड करते हैं और सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं पर बहुत मार्मिकता से अंगुली रखते हैं. 'हयवदन' जैसी जटिल कथा और संरचना वाला नाटक हिन्दी या भारतीय भाषाओं में ही नहीं, दुनिया के रंगमंच में दुर्लभ है. इस नाटक में वह एक साथ कई द्वंद्वों की ओर इशारा करते हैं - मस्तिष्क और देह का द्वंद्व, मनुष्यता और पशुता का द्वंद्व, प्रेम और समर्पण का द्वंद्व और अंततः ईश्वर के साथ मनुष्य के रिश्ते का द्वंद्व. इसी तरह 'तुगलक' में वह उदारता और सनक के बीच झूलते एक महत्वाकांक्षी शासक के बहाने सत्ता और जनता के रिश्तों, दरबारी संस्कृति की पतनशीलता और एक बनते-बिखरते देश की त्रासदी को कई कोणों से देखते हैं. 'रक्त कल्याण' में वह कवि वसवन्ना की कथा उठाते हैं और फिर सत्ता और अभिव्यक्ति से जुड़े कई प्रश्न उठाते हैं.

बेशक, गिरीश कर्नाड की एक प्रतिष्ठा हिन्दी फिल्मों के कलाकार के तौर पर भी रही. यू.आर. अनंतमूर्ति के उपन्यास 'संस्कार' पर बनी फिल्म में उन्होंने प्राणेशाचार्य की भूमिका निभाने के साथ फिल्मी करियर की शुरुआत की. '70 के दशक में जो समानांतर सिनेमा विकसित हुआ, उसमें वह कई अहम भूमिकाओं में नज़र आए. 'निशांत' और 'मंथन' में उनकी भूमिकाएं अब भी याद की जाती हैं. यह उनकी स्वाभाविक अभिनय क्षमता का कमाल था कि उन्हें व्यावसायिक फिल्मों में भी भरपूर भूमिकाएं और पहचान मिलती रही. नई पीढ़ी शायद उन्हें 'एक था टाइगर' जैसी फिल्मों के ज़रिये याद रखेगी.

लेकिन फिर दोहराना होगा कि गिरीश कर्नाड का असली मोल रंगमंच को उनके योगदान में निहित है. जिसे हम भारतीय बहुलता कहते हैं, वह बहुत सच्चे अर्थों में जिन माध्यमों में व्यक्त हुई है, उनमें रंगमंच भी रहा. '60, '70 और '80 के दशकों में हिन्दी, मराठी, बांग्ला, कन्नड़ जैसी भाषाओं में अचानक एक साथ कई नाटककार उभरे, जिन्हें अखिल भारतीय स्वीकृति और सराहना मिली. हिन्दी से मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीनारायण लाल, शंकर शेष, मराठी से विजय तेंदुलकर, महेश एलकुंचवार, बांग्ला से बादल सरकार और शंभू मित्र, और कन्नड़ से गिरीश कर्नाड और बव कारंत जैसे रंगकर्मियों-नाटककारों के नाम लगातार ध्यान आते हैं, जिन्होंने ऐसे नाटक लिखे, जिन्हें उनकी भाषाओं के बाहर बड़े पैमाने पर खेला गया. बेशक, इनमें मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, बादल सरकार और गिरीश कर्नाड अपने अन्य समकालीनों से अलग और बड़े नज़र आते हैं.

गिरीश कर्नाड का जाना इस सिलसिले की आख़िरी कड़ी का टूट जाना है. गिरीश कर्नाड लगातार सक्रिय थे और किन्हीं दूसरे समकालीनों के मुक़ाबले ज़्यादा मुखर भी. वह बहुत निर्भीकता से अपनी बात रखते थे और अमूमन आलोचनाओं की परवाह नहीं करते थे. कुछ साल पहले उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर को दोयम दर्जे का नाटककार बताया, तो टैगोर के बहुत सारे प्रशंसक आहत और मायूस हुए. इसमें शक नहीं कि कर्नाड की टिप्पणी में एक अतिरेक था, लेकिन यह बात भी असंदिग्ध तौर पर मानी जा सकती है कि गुरुदेव अपने उपन्यासों में, अपने वैचारिक लेखन में और अपने गीतों में जितने बड़े हैं, शायद अपने कतिपय क्रांतिकारी कथानकों के बावजूद अपने नाटकों में नहीं. गिरीश कर्नाड का इशारा संभवतः इस ओर रहा हो कि आधुनिक रंगमंच की शिल्पगत जटिलता और उसके फैलाव को देखते हुए टैगोर के नाटक कुछ पीछे छूट जाते हों.

बहरहाल, कर्नाड अब नहीं हैं. इस दौर में उनका जाना कुछ और उदास करता है. हमारे समाज में संकीर्णता बढ़ी है, प्रश्नाकुलता घटी है, मिथक और इतिहास अब अध्ययन, अन्वेषण और विश्लेषण के विषय नहीं रह गए हैं, वे घटिया राजनीति के उपकरण भर रह गए हैं. ताकत का मोल बढ़ा है, प्रतिशोध का भाव बढ़ा है और दूसरे को दुश्मन मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है. ऐसे समय में वह आदमी चला गया है, जो अभिव्यक्ति का मोल समझता था, इतिहास और मिथक को अपने चश्मे से देखने का साहस रखता था और रचनात्मक तौर पर बेहद उर्वर था. हालांकि ख़ुद गिरीश कर्नाड की राय में धर्मवीर भारती का 'अंधा युग' आधुनिक भारतीय रंगमंच की श्रेष्ठतम रचना है, लेकिन गिरीश कर्नाड के अपने नाटक बताते हैं कि किसी रचना की तहें कितनी गहरी हो सकती हैं, उसमें संस्कृति और परम्परा की अनुगूंजें कैसे पिरोई जा सकती हैं और कैसे उनकी मार्फ़त अपने समय को समझा जा सकता है. दरअसल, गिरीश कर्नाड प्रतिरोध का वह व्याकरण थे, जो हम लगातार भूलते जा रहे हैं.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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