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This Article is From Oct 29, 2016

संथाल टोले के बहाने... उत्सव के महीने में गांव की बात

Girindranath Jha
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 29, 2016 17:23 pm IST
    • Published On अक्टूबर 29, 2016 17:09 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 29, 2016 17:23 pm IST
धान की तैयारी में लगा हूं. लोगबाग धान के बाद खेतों को आलू और मक्का की बुआई के लिए तैयार कर रहे हैं. पहाड़ी चिड़ियां खेतों में चहक रही हैं. इसी बीच धन्वन्तरि जयंती मनाने की योजना बनती है. शहर से दूर गांव में. अपना गांव अभी भी बाजार के धनतेरस से दूर है. इस दौर में भी अक्टूबर-नवंबर में धन हमारे लिए 'धान' ही है. हम तन और मन से इस धन के लिए मेहनत करते हैं. इसी धान से हम साल भर के लिए चावल और बाकी बचे धान से धन हासिल करते हैं. इस वजह से हम बाजार की चकमक से अभी भी दूर हैं.

ख़ैर, पहली बार धनतेरस हमने गाम में कुछ अलग अंदाज में मनाया. आगे दीपावली और छठ है, वह भी हम माटी की ख़ुशबू में ही मनाने जा रहे हैं. धनतेरस के दिन शहर से लोगबाग आए थे. बाबूजी ने जो लीची बाड़ी हमलोगों के लिए सज़ाकर रखी है, हमने वहीं कुछ कुर्सी-टेबल रख दिया था. पेड़ की छांव की वजह से टेंट की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. वहां शहर के लोगों ने जंगल की बातें की, जंगल में पाए जाने वाले औषधि की बातें की. कई लोगों ने पारंपरिक चिकित्सा की भी चर्चा की, लेकिन शुरू से अंत तक मेरा मन अपने संथाली भाइयों के मृदंग, ढाक और डिगडिगी पर टिका था.

भागमभाग वाली जीवनशैली में संथाली बस्ती के लोगों से मिलकर मुझे हमेशा सुकून मिला है. मुझे उनकी ही बोली -बानी में रामायण सुनना अच्छा लगता है, क्योंकि वे राम-सीता की बातें तो करते हैं, लेकिन इन सबके संग धरती मैया के बारे में जो वे बताते हैं, उसमें मुझे माटी का प्रेम मिलता है. वे राम को किसान के तौर पर पेश करते आए हैं, लोकगीतों में. इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर हमने उन्हें मंच मुहैया कराया.

एक चीज़ जो संथाली दुनिया की मुझे खींचती है, वह है उनका दिखावा से दूर रहना. वे अभी भी मीडिया की चकाचौंध से दूर रहना चाहते हैं. इस दौर में जब हर कोई छपने की जुगत में रहता है, ऐसे में अपना संथाली टोला कैमरे की माया की चपेट में नहीं है. एक छोटे से आयोजन में ख़बर की महत्ता से अधिक इसमें शामिल लोगों का नाम प्रमुखता से अख़बारों की सुर्ख़ियों में रहता है. हम सभी छपने के लिए व्याकुल रहते हैं, लेकिन यह छटपटाहट संथाल में नहीं है, वे अभी भी इन सबसे दूर हैं.

मुख्यधारा के नाम पर हम 'विकास और सुधार' का जो फ़ार्मूला रटते रहते हैं, उसकी व्याख्या आप इनके सामने आज भी नहीं कर सकते हैं. ऐसे में इनके पास जो ज्ञान है, उसे समझने की आवश्यकता है. कबीर ने कहा है- "अनुभव गावै सो गीता." दरअसल जो अनुभव उनके पास है, उसे आत्मसात करने की ज़रूरत है. उनके मृदंग की थाप को ध्यान से सुनना होगा, थाप के व्याकरण को समझना होगा. संगीत के जानकारों को इनसे बात करनी चाहिए. सच तो यह है कि प्रकृति की गोद में रहते हुए उनके चेहरे की चमक में हम गाम-घर की ख़ुशी खोज सकते हैं. इनके बच्चों की स्मरण शक्ति के सामने मेमोरी कार्ड शून्य है.

इन दिनों जब देश भर में स्वच्छता की वकालत ज़ोर-शोर से हो रही है, तब इवेंट कंपनियों के ब्रांड मैनेजरों को संथाली टोला में क़दम रखना चाहिए. इस समाज के लोग इस अंदाज़ में साफ़-सफ़ाई रखते हैं, मानो हर दिन उनके लिए दीपावली हो. ये सब स्वच्छता वाला विज्ञापन नहीं देखते हैं.

संथाली टोले में माटी से लिपे-पुते घर देखकर शायद रंग-रोगन करने वाली कंपनियां सोचने को मजबूर हो जाए. इंदिरा आवास के नाम पर जो आधे-अधूरे घर बनाए जाते हैं, वह आपको संथाल टोला में नहीं मिलेगा. भले ही इंदिरा आवास का पूरा पैसा उन्हें न मिला हो लेकिन वे घर को 'अंडर-कंस्ट्रक्शन' मोड में नहीं रखते हैं. यहां भी वे अपनी लोककला आपको दिखा देंगे.

ऐसे में उत्सव के इस महीने में जब हम सब रंगोली सजाने और सेल्फ़ी लेने में जुटे हैं, एक बार गांव-घर की तरफ़ जाना चाहिए. यक़ीन मानिए आप ख़ाली हाथ नहीं लौटेंगे, कुछ न कुछ नया लेकर आप ज़रूर आएंगे.

गिरीन्द्रनाथ झा किसान हैं और खुद को कलम-स्याही का प्रेमी बताते हैं...

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