उनके गायन से दोपहर की गर्म हवा में ताजगी आ जाती थी और यह सुनने वालों को मोह लेती थी। इस क्षण वे एमएस सुब्बुलक्ष्मी होती थीं, एक महान गायिका और शख्सियत। जब वे गायकी का समापन करती थीं तो ऐसा प्रतीत होता था मानो वे बाह्य आभामंडल से जागकर वास्तविक दुनिया में आ गई हों। इस दुनिया में हम भी शामिल थे। वे खूबसूरत मुस्कान बिखेरतीं और हम अपनी दादी को वापस पा लेते।
मेरे पिता रक्त संबंध में दादा (ताथा) सदाशिवम और सुब्बुलक्ष्मी या पत्ती के पड़पोते थे। मेरे पिता जब उनके गृहस्थ जीवन में आए, तो वे बच्चे थे और जब वे 13 साल के हुए तो उन्हें औपचारिक रूप से गोद ले लिया गया। दादी और मेरे बीच में एक बड़ा जनरेशन गैप था जिसकी वजह से हमारे बीच अधिक अनौपचारिक संबंध नहीं रहे। इसके बावजूद वे बेहद स्नेहमयी थी और अपनी मौजूदगी से माहौल को तरोताजा बनाए रखती थीं। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो बेहद शुद्ध और बच्चों जैसा था जिससे मुझे उनसे मिलकर हमेशा खुशी होती थी। जब हम लंच या टिफिन के लिए जाते थे, तो प्रवेश करते और लौटते समय मैं उनका स्वागत गले लगकर करती थी। मैं उनके और दादाजी के साथ पूजा के कमरे में जाती, प्रार्थना करती और उनके पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेती। इसके बाद मैं प्रसाद लेकर चली जाती।
बड़े होने पर मैंने परिवार के बड़ों और बाहर के लोगों को उनके बारे में बातचीत करते हुए सुना। वे मदुरई की शर्मीली लड़की थीं जिसने अपनी आवाज से दुनिया को चमत्कृत किया। देवदासी प्रथा के तहत जन्मी, वे इस बात को लेकर दृढ़प्रतिज्ञ थीं कि अपने पूर्ववर्तियों की तरह पुरुष पर निर्भर होकर नहीं रहेंगी। किशोरावस्था में मद्रास आने पर उन्होंने फिल्मों में अभिनय किया, अपना पूरा जीवन जिया और खुद को महान प्रतिभाशाली महिला के तौर पर स्थापित किया। जब वे मेरे दादा से मिलीं और उनकी शादी हुई तो उन्होंने खुद को ब्राह्मणों के रीतिरिवाज में अच्छी तरह से ढाल लिया और इसका ताउम्र पालन किया। भारत उस समय आजादी के आंदोलन के दौर से गुजर रहा था और उस समय लिंग-जाति को लेकर भेदभाव था जिसके कारण महिलाओं पर तमाम बंदिशें थीं। कला के क्षेत्र में यह बंदिशें और अधिक थीं। उस दौर में कर्नाटक संगीत पर पुरुष ब्राह्मणों का वर्चस्व था लेकिन अपनी प्रतिभा और मौजूदगी के बल पर उन्होंने वह मुकाम हासिल किया जो पहले कभी नहीं देखा गया।
किशोरी अमोनकर उन्हें 'आठवां सुर' और लता मंगेशकर उन्हें 'तपस्विनी' कहती थीं। बड़े गुलाम अली खान उन्हें 'सुरस्वरालक्ष्मी सुब्बुलक्ष्मी' कहते थे जबकि सरोजिनी नायडू ने उन्हें 'भारत की स्वरकोकिला' कहती थीं। 1947 की फिल्म 'मीरा' से वे राष्ट्रीय परिदृश्य में उभरीं। इसका हिंदी संस्करण दिल्ली में सरोजिनी नायडू ने जारी किया। इसे देखकर नेहरू ने कहा, ' सुरों की इस मलिका के सामने मैं कौन हूं, महज एक प्रधानमंत्री?'
मेरे दादा-दादी, दोनों ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। इसमें मेरे दादा की भूमिका दादी से अधिक थी। यहां तक कि उन्हें अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके कुछ समय के लिए जेल में भी डाल दिया था। मेरे दादी की प्रस्तुतियों से जो पैसा आता था, वह आजादी की लड़ाई और कस्तूरबा फाउंडेशन को जाता था।
वर्ष 1947 में आजादी के कुछ समय बाद, मेरे दादा को एक संदेश आया, जिसमें मेरी दादी से गांधीजी का एक पसंदीदा भजन गाने और उसे दिल्ली भेजने को कहा गया था। मेरे दादा ने कहा कि वे भजन गायकी से दूर हैं और इसके साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। इसलिए इसे किसी अन्य गायक को दे दिया जाए। इसके बाद उन्हें गांधीजी का संदेश आया जिसमें उन्होंने कहा कि वे अन्य गायक की बजाय सुब्बुलक्ष्मी की आवाज में ही सुनना पसंद करेंगे। इसके बाद उन्होंने 'हरि तुम हरो' भजन रात भर में रिकॉर्ड करके उन्हें भेज दिया। इसके कुछ माह बाद, नए साल पर उन्हें ऑल इंडिया रेडियो से गांधी की हत्या की खबर सुनने को मिली। इसके बाद उन्हें अपनी ही आवाज में 'हरि तुम हरो' भजन सुनने को मिला। इस वाकये को याद करते हुए वे कई साल बाद भी रो पड़ती थीं। अपने जीवन के दौरान, उन्हें यह भजन दो और बार, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के बाद भी ऑल इंडिया रेडियो पर सुनने को मिला।
वे ऐसी पहली एशियाई गायिका थीं जिन्हें जन सहायतार्थ कार्यों के लिए रेमन मैग्सेसे अवार्ड मिला। उन्होंने और मेरे दादाजी ने अपने पूरे जीवन की कमाई विभिन्न समाजसेवी संगठनों को दे दी। वे दोनों इस बात पर विश्वास करते थे कि उनको संगीत में महारत ईश्वरीय देन है और इसका उपयोग 'कमाई' के लिए नहीं किया जाना चाहिए। वे खुद को ऐसा ईश्वरीय साधन समझती थीं जिसका काम अपने गीतों से लोगों को खुशियां देना था। इसकी झलक हमें उनके गायन के दौरान मिलती थी जिसे सुनकर हम अलौकिक दुनिया में पहुंच जाते थे, जो अपने आप में अद्भुत अनुभव होता था। दक्षिण भारत में उनकी तस्वीरों पूजाघरों में विभिन्न देवी-देवताओं के साथ लगी मिलती हैं।
वे संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्तुति देने वालीं और कर्नाटक संगीत को दुनिया में लोकप्रिय बनाने वालीं पहली भारतीय गायिका भी थीं। लेकिन इन सबके बावजूद वे साधारण-शर्मीली शख्सियत बनी रहीं। वे उस समय बेहद उत्साहित हो जाती थीं जब कोई उनके पास पहुंचकर यह कहता था कि वे उनके संगीत को कितना पसंद करते हैं। मैं उन्हें ऐसी शख्सियत के रूप में याद करती हूं जो किसी भी तरह का रूखा व्यवहार बिल्कुल भी पसंद नहीं करती थीं। अन्याय और हिंसा से उन्हें दुख पहुंचता था और गुस्से और विवाद से उन्हें नफरत थी। जितने साल मैंने नृत्य किया, वे हर एक प्रस्तुति में पहुंचीं और हमेशा पहली पंक्ति में बैठकर मेरा उत्साह बढ़ाया। मैंने कोशिश करके यह पता लगाया कि वे ऐसा इसलिए करती थीं ताकि मैं अपनी भावनाओं पर बखूबी नियंत्रण पा सकूं।
'भारत रत्न' अवार्ड दिए जाने के मौके पर मुझे उनके साथ राष्ट्रपति भवन जाने का गौरवशाली अवसर प्राप्त हुआ था। उस समय वे मुझे खुश और दुखी, दोनों लगी थीं, क्योंकि मेरे दादाजी का निधन हो चुका था। मेरी यादों में उनकी अंतिम तस्वीर वह है जिसमें मौत से एक दिन पहले वे अस्पताल में निर्बल अवस्था में लेटी हुई हैं और मेरे हाथ को हौले से दबा रही हैं। मैं उनके साथ वाली वह तस्वीर सबसे ज्यादा पसंद करती हूं जिसमें वे हीरों से जड़ी नोज रिंग पहने मुस्कान बिखेर रही हैं। वह फोटो मुझे उनके निधन के बाद मिली थी। उनका गायन, जिसे मैं अब भी रोजाना सुनती हूं, मुझे उनकी मौजूदगी का अहसास कराता है।
कहा जाता है कि हर पीढ़ी में एक ऐसी शख्सियत आती है जो मौजूदा परिदृश्य को बदल देती है और इस तरह से कल्पनाशीलता का संचार कर देती है जिससे कि हम इतने प्रेरित हो जाते हैं कि जितने पहले कभी नहीं हुए। मेरी दादी ऐसी ही एक शख्सियत थीं।
मेरी प्रथम जन्मवर्षगांठ का समारोह
दादी के साथ मेरी मां, भाई और मैं
अपने दादा-दादी के साथ मैं (बाएं) और कजिन
(स्वाति त्यागराजन NDTV की संपादक-पर्यावरण हैं)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
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