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This Article is From Feb 01, 2017

अरुण जेटली के बजट भाषण से लगा, हम भारत के लोग, टैक्स चोर हैं

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 01, 2017 17:51 pm IST
    • Published On फ़रवरी 01, 2017 17:51 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 01, 2017 17:51 pm IST
केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली की ओर से बुधवार को लोकसभा में प्रस्तुत आम बजट 2017-18 के विश्लेषण में यह तो ध्यान रखा ही जाना चाहिए था कि आगे पांच राज्यों के चुनाव हैं, और यह भी कि अभी-अभी हम नोटबंदी के चक्रव्यूह से निकले हैं. मोदी जी की बुनी इस व्यूह रचना से जेटली जी को नैया पार लगाने की चुनौती तो थी ही, इसलिए बजट का उदारवादी दिखना लाजिमी था, अब जबकि‍ पूरी तैयारी के साथ इसे पेश कर ही दि‍या है तो देखना रोचक होगा, इसका कि‍तना फायदा मि‍ल पाता है.

लोकलुभावन बजट पेश करने की कवायद में फि‍र भी वित्तमंत्री बच्चों को तो पूरे बजट भाषण से गोल कर ही गए, जबकि‍ कुपोषण और बच्‍चों की असमय मृत्यु के मामलों में देश के हालात कोई कम भयावह नहीं है, पर वह सरकार के एजेंडे में नजर नहीं आया. शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण सेक्टर का एक बार भी जिक्र नहीं किया, हालांकि‍ इसके लि‍ए पर्याप्‍त बजट प्रावधान कि‍ए गए हैं, लेकि‍न इस मुद्दे पर केवल बजट से ही नहीं, नीति‍गत रूप से एक वि‍ज़न देना ज़रूरी लगता है, आयकर की दर को भी 10 प्रतिशत से पांच प्रतिशत तक लाकर इस बात की गुंजाइश रखी कि आने वाले समय में यह बढ़ाई जा सके, इसलिए इसे आमजन वन टाइम फायदे के नज़रिए से ही देखे तो अच्छा. यह ज़रूर है कि मनरेगा जैसे कानूनों को सरकार ने अंतत: स्वीकार कर लिया, और इसके बजट में भारी बढ़ोतरी की है.

गांव की सेहत और नोटबंदी के बाद उपजे संकटों में यह कारगर कदम है, लेकिन जमीनी अनुभवों में यह बात सामने आती रही है कि मनरेगा योजना में गड़बड़ न होकर उसके क्रियान्वयन में भारी गड़बड़ी पाई गई थी. उम्मीद करते हैं कि मनरेगा की सबसे बड़ी बाधा मजदूरी का देरी से भुगतान इस फंड के बाद से जरूर दूर होगा. हालांकि इस योजना को असफल करार देना भी एक तरह की राजनैतिक मजबूरी रही है, क्योंकि इसे मनमोहन सिंह वाली सरकार के समय लागू किया गया था, और जब आज सरकार इस योजना के बजट में भारी बढ़ोतरी करती है, तब उसे यह आरोप लगाने में थोड़ा संकोच करना ही चाहिए कि मनमोहन सरकार ने देश के लिए कुछ भी नहीं किया. लेकिन इस राजनैतिक जुमलेबाजी के बरक्स सबसे बड़ा सवाल जो नि‍कला, वह यही है कि क्या भारतवासी टैक्स चोर हैं.

देश के वित्तमंत्री के भाषण और अदायगी दोनों से ही लगा कि हम, इस देश के नागरिक, बहुत बड़े कर चोर हैं. नोटबंदी से चाहे देश में काले धन का खुलासा हुआ हो अथवा नहीं हुआ हो, कम से कम जेटली जी के शब्‍दों में इतना तो पता चल ही गया कि 'हमारा समाज व्‍यापक रूप से कर अनुपालन नहीं करने वाला समाज है...' इसके दो अर्थ हो सकते हैं - या हम सचमुच बहुत बड़े चोर हैं, और यह भी कि सचमुच हमारी वह हैसियत ही नहीं है. इसमें से 70 फीसदी आबादी को तो आप सचमुच बाहर निकाल सकते हैं, क्योंकि उसे हम गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली आबादी कहते हैं, उससे टैक्स की अपेक्षा करना बेमानी है. इसके बाद हम बाकी की 30 प्रतिशत आबादी में भी कार्यशील जनसंख्या का आंकड़ा नि‍काला जाना चाहि‍ए कि‍ कितने लोग काम में संलग्‍न हैं, कि‍तने लोगों को ऐसी नौकरी मि‍ल पाती है, जि‍समें उन्‍हें कर देने लायक वेतन भी मि‍ल पाए. आंकड़ों की बाजीगरी से बचते हुए अपने आसपास के दफ्तरों को ही देख लें. ऐसे में हमें ऑक्सफैम की वह रिपोर्ट भी याद आ जाती है, जो बताती है कि भारत के एक प्रतिशत लोगों के पास पूरे देश की 58 फीसदी संपत्ति है.

इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत के सिर्फ 57 लोगों के पास करीब 216 अरब अमेरिकी डॉलर की संपत्ति है. यह राशि देश की करीब 70 प्रतिशत आबादी की कुल संपत्ति के बराबर है. ऐसे में यदि कुछ लोग ही कर अदा कर पाने की स्थिति में हैं तो बाकी लोगों की कुछ मजबूरी ही होनी चाहिए, इस नज़रिये से देखें तो यह एक शर्मनाक स्थिति है. हम आजाद भारत के इतने सालों में भी गैरबराबरी वाले एक समाज को बना पाए हैं. यह इसी सरकार की नहीं, हमारी सत्तर सालों की असफलता का प्रमाण नहीं मानें तो क्या करें. इसलिए यदि हम अपने समाज के करदाताओं का विश्लेषण इस व्यंग्य के साथ करेंगे तो सचमुच यह बहुत शर्मनाक है.

और जब एक विश्लेषण आप करते हैं तो एक विश्लेषण हम भी करते हैं. जितना भी टैक्स हमने दिया, उसका देश के जिम्मेदार लोग क्या कर रहे हैं...? चलिए, हम दोगुना टैक्स देने को तैयार हैं. और यह बात हवा में नहीं, यह वही समाज है, जो देश पर संकट के समय अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो जाता है, चिंता तो यह है कि इस न्योछावर की नेमत को व्यवस्थाएं संभालकर ही नहीं रख पातीं. देश को चलाने वाले ही गाढ़े खून की कमाई को जब गलत नीतियों, भ्रष्टाचार और अनुचित तौर-तरीकों से खर्च होते देखते हैं तो उनका खून नहीं खौलता. इसलिए ज़रूरत तो इस बात की भी है कि जितना भी टैक्स जि‍न हाथों में दे रहे हैं, वे हाथ भी हमें उतना ही भरोसा दि‍लाएं, कि‍ उनका एक-एक धेले का सही उपयोग कि‍या जा रहा है.

इसमें वित्तमंत्री ने केवल प्रत्यक्ष कर वाले करदाताओं को दृष्टि में रखा है, अप्रत्यक्ष कर भी देश के राजस्व का एक अहम हिस्सा हैं, और जो प्रत्यक्ष करों से ज्यादा है. सरकार के ही दस्तावेज बताते हैं कि कुल करों को दो तिहाई हिस्सा अप्रत्यक्ष करों से आता है, जबकि प्रत्यक्ष करों का हिस्सा एक तिहाई ही है. इसलि‍ए यह बात भी सटीक नहीं लगती, कर तो हम देते हैं. ठीक है कि‍ सीधे नहीं देते.

जीएसटी और उसके लिए बढ़ाए जाने वाले सर्विस टैक्स के दायरे को तो आप उड़ा ही गए, खैर. क्योंकि आगे चुनाव है, और करों के संबंध में एक भी नकारात्मक लाइन आपकी राजनैतिक सेहत के लिए हानिकारक हो सकती है. आपको यह स्‍पष्‍ट करना था कि‍ इस साल जीएसटी लागू कि‍या ही जाना है तो सेवा कर को भी आप 18 प्रति‍शत तक कब ले जाने वाले हैं.

यह कहना सही नहीं लगता कि‍ नागरिक देश के लिए अपना योगदान नहीं देते. आरोप तो यह है कि देश की व्यवस्थाएं ही इस कर से देश की सेवा पूरे ईमान से नहीं कर पातीं. थोड़ा-सा व्यंग्य आपने हम पर कर दिया, चलिए, थोड़ा-सा हम भी आप पर कर देते हैं. बजट में हिसाब बराबर हुआ.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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