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This Article is From Jun 19, 2017

शिक्षा के चक्रव्यूह में फंसकर खो गई है मौलिकता...

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 19, 2017 15:05 pm IST
    • Published On जून 19, 2017 15:05 pm IST
    • Last Updated On जून 19, 2017 15:05 pm IST
आइए, हम दो हालिया अनमेल ख़बरों के बीच तालमेल बिठाने पर कुछ विचार करते हैं. पहली ख़बर है - पिछले कुछ दिनों के दौरान देश में 10वीं, 12वीं कक्षा की परीक्षाओं के आने वाले परिणाम. कुछ विद्यार्थी इनमें 100 फीसदी तक नंबर लाने में सफल रहे, और 90 से 100 के बीच नंबर पाने वालों की तो भरमार ही है. इस सच्चाई की पुष्टि अभी दिल्ली के कॉलेजों में होने वाले दाखिलों के कटऑफ प्रतिशत की ख़बरों से होगी. श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स जैसे कॉलेज में तो 98 प्रतिशत नंबर पाने वालों का प्रवेश भी निषिद्ध होगा.

दूसरी ख़बर है - टाइम उच्च शिक्षा (टीएचई) की उच्च परीक्षा के बारे में सन् 2017 की विश्व प्रतिष्ठा रैंकिंग. इसके शुरू के 10 संस्थानों में अकेले अमेरिका के आठ संस्थान हैं और जो दो बचे हैं, उन पर उस ब्रिटेन का कब्ज़ा है, जिसने कभी अमेरिका पर शासन किया था. यहां तक कि शुरू के 100 संस्थानों में भी अमेरिका के ही 42 संस्थान हैं. इसमें चीन को भी जगह मिली है और चीन के शैक्षणिक संस्थानों को मिली उच्च रैंकिंग को इस साल की सबसे बड़ी विशेषता बताई गई है. स्वयं को विश्व का गुरु मानने वाले भारत का न तो शुरू के 100 में कोई स्थान है, न उसका कोई विशेष उल्लेख है.

यहां सोचने की बात यह है कि 10वीं और 12वीं में शत-प्रतिशत नंबर पाने वाले विद्यार्थी तब कहां चले जाते हैं, जब वे उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ रहे होते हैं. हम भले ही आईआईटी और आईआईएम जैसी संस्थाओं का दम भर लें, लेकिन वे विश्व के स्तर पर कहीं भी नहीं ठहरते. आखिर इसका कोई तो कारण होगा...? और अब, जब बदलते हुए वैश्विक माहौल में देश अपनी नई शिक्षा नीति की तैयारी कर रहा है, इस विरोधाभास पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है.

आठवें दशक तक की परीक्षाओं में 60 प्रतिशत नंबर लाना बहुत बड़ी बात होती थी. हम जैसे लोग; जो उस समय विद्यार्थी थे, इतने नंबर लाने के बाद भी हमेशा शेष 40 प्रतिशत अंकों की भरपाई करने के लिए छटपटाते रहते थे और वह छटपटाहट आज तक जारी है. यूनान के दार्शनिक सुकरात ने कहा था, "मेरे इस शहर के सभी लोग मूर्ख हैं, क्योंकि वे यह जानते हैं कि वे सब कुछ जानते हैं... एक केवल मैं ही ज्ञानी हूं, क्योंकि मैं यह जानता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता..." अपनी अज्ञानता का बोध व्यक्ति को उत्कृष्टता की प्राप्ति के लिए ऊपर की ओर लगातार ढकेलता रहता है, लेकिन यदि 17-18 साल की कच्ची उम्र में किसी विद्यार्थी को सब कुछ जानने का भ्रम हो जाए, तो सीधी-सी बात है कि सर्वोत्तम को पाने की उसकी इच्छा की वहीं भ्रूणहत्या हो जाती है.

जहां तक शिक्षा के परिदृश्य का सवाल है, केंद्र सरकार और यहां तक कि सभी राज्य सरकारें भी प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक क्वालिटी की कीमत पर क्वान्टिटी को तरजीह देने में लगी हुई हैं. निजी विश्वविद्यालयों की घटिया कहानियों ने तो इस क्षेत्र को और भी अधिक प्रदूषित कर दिया है. नीचे से लेकर ऊपर तक यह आज का सर्वाधिक लाभदायक व्यापार बन चुका है. भव्य भवन अच्छे शिक्षण संस्थानों के पर्याय बन गए हैं. यहां तक कि सरकारी महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाने वालों के लगभग 40 प्रतिशत पद लंबे समय से खाली चल रहे हैं, लेकिन इन सवालों पर कभी पूरी संवेदनशीलता के साथ गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया जाता. सवाल तो ज़रूर उठाए जाते हैं, लेकिन उत्तर नदारद होते हैं.

एक बात और. परीक्षा की ऑब्जेक्टिव टाइप पद्धति ने तो शिक्षा को सूचना में तब्दील कर उसका पूरी तरह से बेड़ा ही गर्क कर दिया है. बहुत-से कामयाब विद्यार्थियों तक में व्याख्यात्मक क्षमता का अभाव होता है, जिसकी नींव हमारी प्राथमिक शिक्षा डाल चुकी होती है. इसके कारण न केवल वह अपनी मौलिकता खो देता है, बल्कि भाषा पर भी उसकी पकड़ कामचलाऊ से अधिक नहीं होती, क्योंकि उसे उसकी विशेष ज़रूरत पड़ती ही नहीं है. और यदि कभी कुछ सूचनाओं की, संदर्भों की और उस विषय के विद्वानों के विचारों की उसे ज़रूरत पड़ भी जाती है, तो उसकी मदद के लिए गूगल महोदय उसकी मुट्ठी में गुलाम की तरह कैद हैं. यानी, वह उन संदर्भों एवं उद्धरणों को सम्पूर्णता में नहीं देख पाता और रटने से ही उसका काम चल जाता है. यहां भी वह सूचना केंद्रित होने के कारण ज्ञान से वंचित रह जाता है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका का दबदबा और उसकी अर्थव्यवस्था मुख्यतः ज्ञान पर आधारित है. अकेले मार्क ज़करबर्ग की कमाई न जाने कितने देशों के सकल घरेलू उत्पाद से भी यदि अधिक है, तो उसका श्रेय उसके ज्ञान को जाता है. भविष्य भी इसी का है. और हमारे देश को भी अपनी शिक्षा के बारे में इन छोटी-छोटी-सी दिखाई देने वाली बातों पर सबसे अधिक गहराई से विचार करना चाहिए.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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