उमड़ती हुई खुशबू ने, उड़ती हुई खुशबू ने मनुष्य को ललकारा, ''देखो मुझे, छुओ मुझे, और यदि हो सके तो पकड़ो मुझे...'' खुशबू के नशे में मदमस्त मनुष्य तब से उसके पीछे लगा हुआ है, जब भी उसकी ललकार याद आती, वह उसके पीछे हो लेता।
एक रात की बात है। वह बुरी तरह थककर, हारकर, पस्त होकर सोया हुआ था। उसके चेहरे पर नवजात शिशु-सा कोमल, निर्मल और निश्छल भाव देखकर खुशबू को उस पर दया आ गई। वह उसके कान के पास जाकर धीमे से बुदबुदाई, ''तुम पगले हो, जो तुम मुझे पकड़ना चाहते हो... मुझे तुम महसूस कर रहे हो, क्या तुम्हारे लिए इतना पर्याप्त नहीं है... दरअसल, तुम मुझे पकड़ ही नहीं सकते, क्योंकि मैं तो शाश्वत स्वतंत्र हूं... यही तो मैं हूं... जिस क्षण तुम्हारी पकड़ में आ जाऊंगी, मैं वह नहीं रह जाऊंगी, जिसके पीछे तुम पगलाए हुए हो...''
लेकिन आदमी की समझ में किसी दूसरे की बात आती कहां है। यह भी समझ में नहीं आई और अभी भी वह उसे पकड़ने के पीछे पगलाया हुआ है - कभी जीडीपी की बात करके, तो कभी हैप्पी इंडेक्स की, कभी हैप्पीनेस मंत्रालय की बात करके... और खूशबू है कि फूलों में छिपी मुस्कुरा रही है। शायद वह यूं ही हमेशा मुस्कुराती रहेगी।
अब तक की सारी फिलॉसफी, सारा ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी, सब इसी काम में जुटे पड़े हैं कि आदमी को खुश कैसे किया जाए, और आदमी के साथ हो यह रहा है कि वह उतना ही ज्यादा नाखुश होता जा रहा है, मानो उसने घोषणा कर दी हो, ''कोई मुझे खुश करके तो दिखा दे, क्योंकि मैं खुश होना ही नहीं चाहता...'' जबकि एक जैन संत ने ठीक इसके उलट चैलेंज किया था, ''कोई मुझे दुखी करके तो दिखा दे, क्योंकि मैं दुखी होना जानता ही नहीं हूं...''
यदि हम गौतम बुद्ध को छोड़ दें, तो भारतीय दर्शन जीवन को प्राकृतिक रूप में आनन्दस्वरूप मानता है। यानी इसका स्वभाव ही है आनंद में रहना। यह 'आनंद' शब्द 'सुख' और 'खुश' से कई गुना अधिक व्यापक और गहरा है। यहां जीव उस ब्रह्म का अंश है, जिसे ब्रह्मानन्द कहा गया है। जिस देश की चेतना में हजारों साल से यह चिंतन संस्कार के रूप में चले आ रहे हों, क्या कारण है कि वह देश हैप्पी इंडेक्स के मामले में 118वें पायदान पर चला जाता है...? मैं सोचता हूं कि यदि 'अनहैप्पी इंडेक्स' जैसा कोई मापदण्ड बनाया जाए, तो भारत कहां होगा...
हैप्पी की खोज के मामले में विचित्र-सा घालमेल दिखाई देता है। भारत के नौजवान इसकी खोज में सिलिकॉन वैली जा रहे हैं, तो सिलिकॉन वैली के स्टीव जॉब्स इसकी तलाश में भारत आ गए थे... तो इसे ढूंढा कहां जाए...? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो हमारे पास है, वही हमारे दुख का कारण है, और जो नहीं है, उसमें हमें खुशी जान पड़ती है। जब वह भी मिल जाता है, तो उसमें से भी खुशी गायब हो जाती है।
इस बारे में मध्य प्रदेश की सरकार ने हिन्दुस्तान को रास्ता दिखाने का मन बनाया है। उसने घोषणा की है कि वह अपने यहां 'मिनिस्ट्री आफ हैप्पीनेस' बनाएगी। कुछ ही महीने पहले यह काम सऊदी अरब कर चुका है। इससे भी पहले कुछ अन्य देश भी कर चुके हैं, जिसकी शुरुआत बर्फीले क्षेत्र में बसे छोटे-से देश भूटान ने की थी।
यह अच्छी बात है कि राजा अपनी प्रजा की खुशी के लिए सोचे, लेकिन क्या उसकी यह सोच मंत्रालय बना देने से पूरी हो जाएगी...? प्रजा सुखी हो जाएगी, बस, उसके दुखों को दूर कर दीजिए। प्रजा दुखी है, क्योंकि उसके पास रोजगार नहीं है, पीने को पानी नहीं है, जीने को सुरक्षा नहीं है, इलाज के लिए डॉक्टर नहीं हैं आदि। प्रजा दुखी है, क्योंकि उसकी सारी जिम्मेदारियां सरकार ने ले रखी हैं, और प्रजा है कि सरकार के दरवाजों पर दस्तक देते-देते उसकी हथेलियों के सुख की भाग्य रेखा घिस चुकी है। लेकिन सरकारी महकमों के माथे पर शिकन तक नहीं आई। प्रजा इसीलिए खुश नहीं है। आप उन्हें ठीक कर दीजिए, आपकी प्रजा खुश हो जाएगी। प्लीज, उनकी खुशी पर से उसका कॉपीराइट मत छीनिए। अपने ढंग से खुश रहने के उसके अधिकार को उसी के पास रहने दीजिए। वैसे भी पुरानी कहावत है - 'जब राजा राज्य से बाहर होता है, प्रजा खुश रहती है...'
मुझे जिस बात का सबसे ज़्यादा अंदेशा है, वह यह है कि कहीं धीरे-धीरे यह हैप्पीनेस मंत्रालय एक धार्मिक मंत्रालय न बन जाए। किसी नेता या अफसर को अचानक जब एक दिन यह ज्ञानोदय होगा कि 'आनंद को केवल धर्म के जरिये पाया जा सकता है', उस दिन क्या होगा, आप सोच सकते हैं।
आप हमें आश्वस्त कीजिए कि आप अपना काम अच्छे से करेंगे, हम आपको आश्वस्त करते हैं कि हम खुश हो जाएंगे।
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Apr 11, 2016
खुशबू की तरह होती है 'हैप्पीनेस', जिसे सिर्फ महसूस करना मुमकिन है...
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 11, 2016 16:23 pm IST
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Published On अप्रैल 11, 2016 16:21 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 11, 2016 16:23 pm IST
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