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This Article is From Oct 17, 2016

मुस्लिमों में उभरते उदारवादी - परिवर्तन के प्रवाह को रोकना मुश्किल

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 17, 2016 15:22 pm IST
    • Published On अक्टूबर 17, 2016 15:22 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 17, 2016 15:22 pm IST
केंद्र सरकार, या यूं कह लीजिए कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपनी इच्छा साफ-साफ रख दी है कि वह तीन तलाक और बहुविवाह प्रथा के विरुद्ध है. हर छोटी-छोटी बात में राजनीतिक की गंध-सूंघ लेने वाले लोग यदि मोदी जी की सरकार की इस इच्छा के पीछे मुस्लिम-विरोधी भावना को देखें, तो कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन इतना ज़रूर है कि यदि ऐसा कुछ हो गया, तो इसके पीछे 'हिडन एजेंडा' चाहे जो भी रहा हो, लेकिन सरकार का यह कदम देश के मुस्लिम समाज के विकास की दिशा में उठाया गया एक क्रांतिकारी कदम होगा.

कई दशक पहले राजीव गांधी के सामने भी शाहबानो केस में एक ऐसा ही अवसर आया था. उन्हें न कुछ कहना था, न कुछ करना था. उनका यह काम सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कर दिया था. वह चाहते तो न्यायालय के निर्णय पर चुप्पी साधकर इतिहास को अपने तौर पर आगे बढ़ने देते, लेकिन वोट की राजनीति ने उन्हें सामाजिक परिवर्तन का इतना बड़ा श्रेय लेने से न केवल वंचित कर दिया, बल्कि कहीं न कहीं उन्हें प्रतिक्रियावादी भी ठहरा दिया, जबकि वह देश में 'कम्प्यूटर क्रांति' के जनक माने जाते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता पाने का जो 'मानवीय अधिकार' दिया था, संसद में उसके विरुद्ध कानून बनाकर उसे निरस्त कर दिया गया. इसका सबसे खतरनाक और दूरगामी प्रभाव यह हुआ कि उस समय कांग्रेस में आरिफ मोहम्मद खान जैसे जो मुस्लिम उदारवादी नेता थे, वे राजनीति की मुख्यधारा से निरंतर हाशिये पर जाते चले गए. उसी के परिणामस्वरूप हमें आज नेतृत्व के क्षेत्र में ऐसे मुस्लिम प्रगतिवादी राजनेताओं और यहां तक कि विचारकों की भी कमी मालूम पड़ रही है, जो वैश्वीकरण के बाद के मुस्लिम युवा-समूह का नेतृत्व कर सकें. नई चेतना वाली इसी आबादी में से यदि कोई नेतृत्व उभरेगा भी, तो उसके लिए अभी कम से कम 10 साल का इंतज़ार करना होगा.

दरअसल, यहां एक विडम्बना यह भी दिखाई देती है कि भारत में तथाकथित मुस्लिम राजनीति के केंद्र में मूलतः धर्म ही रहा है, इसलिए चाहे-अनचाहे धार्मिक वर्ग और राजनीतिक वर्ग के बीच एक अलिखित समझौता हो गया है. सच तो यह है कि देश के विभाजन के बाद यह स्थिति खत्म हो जानी चाहिए थी, लेकिन प्रगतिशील राजनीतिक दृष्टिकोण के अभाव ने इस राजनीति को फिर से धर्म की शरण में जाने को विवश कर दिया. यही कारण है कि आज मुस्लिम राजनीति का वह अत्यंत शिक्षित एवं लोकतांत्रिक जीवन-पद्धति में प्रशिक्षित चेहरा भी लोगों के सामने न मानवीय मूल्यों की बात कह रहा है, न इस्लाम की सही-सही व्याख्या ही रख पा रहा है.

इसलिए अब इस उदारवादी राजनीतिक शून्यता को भरने की प्रक्रिया में पढ़ा-लिखा नया मुस्लिम वर्ग, विशेषकर महिलाएं पूरे दमखम के साथ सामने आ रही हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि चाहे वह तीन बार तलाक कहने की परम्परा हो, अथवा बहुविवाह की, इससे प्रभावित वर्ग यही है. पुरुष वर्ग फिलहाल खामोश है. हालांकि जावेद अख्तर जैसे बौद्धिक एवं मानवतावादी दृष्टिकोण वाले रचनाकारों की दबंगई से भरी आवाज़ें उभरती तो हैं, लेकिन फिलहाल वे आवाज़ें नक्कारखाने में तूती सरीखी ही है. किन्तु साथ ही वे एक ऐसी चिंगारी भी हैं, जिनके मशाल में तब्दील होने की संभावना को देखना गलत नहीं होगा.

मामला चाहे हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का हो, अथवा लखनऊ की मस्जिद में महिलाओं के नमाज़ पढ़ने का, सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है. परिवर्तन के इस प्रवाह को परम्परा की पतली मेढ़ रोक पाएगी, इसमें पर्याप्त संदेह है. सवाल केवल वक्त का है, वह कितना लगेगा. और प्रश्न यह भी है कि इसका श्रेय मिलेगा किसे...

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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