
- महाराष्ट्र सरकार ने तीन भाषा नीति के आदेशों को रद्द कर एक कमेटी का गठन किया है.
- कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर हिंदी की भूमिका पर देवेंद्र फडणवीस की सरकार फैसला लेगी.
- महाराष्ट्र का विपक्ष सरकार के इस फैसले को अपनी जीत बता रहा है.
- हिंदी विरोध के मुद्दे पर उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे एक साथ आए थे. दोनों 5 जुलाई को एक रैली करने वाले थे.
विरोध के बीच महाराष्ट्र सरकार ने तीन भाषा नीति से जुड़े अपने दोनों आदेशों को रद्द कर एक कमेटी का गठन किया है. इस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर सरकार तीन भाषा फार्मूले में हिंदी की भूमिका को लेकर फैसले लेगी. विपक्ष सरकार के इस फैसले को अपनी जीत बता रहा है. सरकार के आदेशों के खिलाफ विपक्ष उस पर हमलावर था. इस विरोध की अगुवाई कर रहे थे, ठाकरे बंधु,यानी शिवसेना (यूबीटी) के उद्धव ठाकरे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे. इन दोनों भाइयों के अलावा कई दूसरे दल भी सरकार के फैसले के खिलाफ थे. ठाकरे बंधु जिस तरह से भाषा विवाद पर साथ आए, उससे उनके फिर एक होने की अटकलों को बल मिला था. आइए जानते हैं कि नई परिस्थितियों में ठाकरे बुंध के लिए क्या है.
महाराष्ट्र का हिंदी बनाम मराठी विवाद है क्या
देवेंद्र फडणवीस सरकार ने इस साल अप्रैल में नेशनल एजुकेशन पॉलिसी को ध्यान में रखते हुए कक्षा 1 से 5वीं तक तीसरी भाषा के तौर पर हिंदी को अनिवार्य बनाने का आदेश जारी किया था. यह फैसला राज्य के सभी मराठी और अंग्रेजी मीडियम स्कूलों पर लागू होना था. इसका विरोध होने लगा. इसे देखते हुए आदेश में संशोधन किया गया. इसके मुताबिक मराठी और अंग्रेजी मीडियम में कक्षा 1 से 5वीं तक पढ़ने वाले स्टूडेंट तीसरी भाषा के रूप में हिंदी के अलावा भी कोई भारतीय भाषा चुन सकते हैं.इसके बाद भी विरोध नहीं रुका.
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, उपमु्ख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और अजित पवार ने रविवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि तीन भाषा नीति को लेकर शिक्षाविद नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में कमेटी बनाई गई है. समिति की रिपोर्ट के बाद ही हिंदी की भूमिका पर अंतिम फैसला लिया जाएगा. सरकार ने यह फैसला 30 जून से शुरू हो रहे विधानसभा के मानसून सत्र से ठीक पहले लिया.
त्रिभाषा फार्मूले का सबसे अधिक विरोध उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे कर रहे थे. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे ने पांच जुलाई को मुंबई के गिरगांव चौपाटी में संयुक्त रैली की घोषणा की थी. इसे शिवसेना (यूबीटी) ने अपना समर्थन देते हुए रैली में शामिल होने की घोषणा की थी.इस रैली को शरद पवार की एनसीपी ने भी अपना समर्थन दिया था. लेकिन सरकार के फैसले के बाद ठाकरे ने रैली के आयोजन को रद्द कर दिया है.
ठाकरे बंधुओं की राजनीति
त्रिभाषा फार्मूले के विरोध को लेकर जिस तरह की जुगलबंदी ठाकरे बंधुओं ने दिखाई थी, उसने दोनों के फिर एक होने की चर्चाओं को बल दिया था. ठाकरे बंधुओं को भाषा विवाद में सियासी फायदा नजर आ रहा था. राज ठाकरे शुरू से ही मराठी को लेकर आक्रामक रहे हैं. उनकी मनसे का राजनीतिक आधार ही मराठी अस्मिता रही है. लेकिन पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में मनसे कोई सीट नहीं जीत पाई थी. इसकी वजह उनका मराठी मानुस के मुद्दों से दूर होना बताया जा रहा है. वहीं उद्धव ठाकरे अपनी पार्टी में बगावत और गठबंधन के असफल प्रयोगों से परेशान हैं.उनकी पार्टी भी विधानसभा में कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं कर पाई थी. ऐसे में उद्धव को भाषा विवाद में अपने लिए राह नजर आई. इसलिए वो राज ठाकरे के समर्थन में आगे आए. दोनों भाई जिस तरह से भाषा विवाद को लेकर एक सुर में बोल रहे थे. उससे उन चर्चाओं को हवा दी, जिसमें उनके एक हो जाने की चर्चा की जा रही थी. दोनों को लगा कि बीएमसी चुनाव से पहले उन्हें इससे फायदा होगा. लेकिन फडणवीस सरकार के फैसलों से इन चर्चाओं को झटका लगा है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अब ठाकरे बंधु इस फैसले का श्रेय लेने की लड़ाई में शामिल हो जाएंगे. अगर शिवसेना (यूबीटी) और मनसे सरकार के फैसले का श्रेय लेने में फंस गए तो उनके एक होने की चर्चाएं कमजोर पड़ जाएंगी.
ठाकरे बंधुओं की लड़ाई
बाल ठाकरे ने शिव सेना की स्थापना 1966 में की थी. राज ठाकरे के पिता श्रीकांत ठाकरे शिव सेना संस्थापक बाल ठाकरे के सगे भाई थे. राज ठाकरे युवावस्था से ही राजनीति में सक्रिय हो गए. वो 21 साल की उम्र में शिवसेना की छात्र शाखा के प्रमुख बनाए गए थे. अगले कुछ सालों में ही उन्होंने शिवसेना का विस्तार किया. लेकिन 21वीं सदी में बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे शिवसेना के मामलों में दखल देने लगे. साल 2005 तक उद्धव पार्टी पर हावी हो गए. शिव सेना के हर फैसले पर उनका असर था. यह देख राज ठाकरे ने 27 नवंबर 2005 को शिव सेना से अपने रास्ते अलग कर लिए.उन्होंने नौ मार्च 2006 को मुंबई के शिवाजी पार्क में अपनी पार्टी 'महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना' का ऐलान किया. उन्होंने मनसे को मराठी लोगों की पार्टी बताया. लेकिन करीब 19 साल बाद भी मनसे महाराष्ट्र के चुनावों में कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं कर पाई है.
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