स्वच्छता दिवस पर एक अनूठे गुरु की याद

स्वच्छता दिवस पर एक अनूठे गुरु की याद

105 वर्षीय कुंवरबाई ने अपनी बकरियां बेचकर बनवाया शौचालय. (फाइल फोटो)

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती को हम राष्ट्रीय स्वच्छता दिवस के रूप में मना रहे हैं. इस मौके पर मुझे कुंवरबाई का ख्याल आया जो 'राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान' का चेहरा बनकर उभर चुकी हैं. आजकल कोई अपनी लड़की का नाम कुंवरबाई नहीं रखता. यह हम लोगों की दादी और मां के नाम हुआ करते थे या हो सकते थे. इसलिए आज किसी भी कुंवरबाई का नाम पढ़कर या सुनकर दिमाग में एक वृद्ध महिला की तस्वीर उभरती है. साथ ही उसके 'गांव की महिला' होने का अनुमान लगा लेना गलत नहीं होगा.

कुंवरबाई आपकी इस तस्वीर और अनुमान में बिल्कुल सही बैठती हैं. कुंवरबाई 105 साल की बूढ़ी महिला हैं जो गांव में रहने वाली, अनपढ़ और गरीब होने के बावजूद हमारे 'राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान' की शुंभकर बन गई हैं. यहां मैं 'गांव' शब्द पर बार-बार इसलिए इतना जोर दे रहा हूं, क्योंकि शहर में रहने वाले हम जैसे लोगों के दिमाग में गांव 'गंदगी के ढेर' का पर्याय बने हुए हैं, बावजूद इसके कि शहरों के हाल तो अब उससे भी बदतर हो गए हैं, और ऐसा करने में हमारी भागीदारी किसी अन्य से कम नहीं है.

कुंवरबाई को इतने बड़े सम्मान के लिए इसलिए चुना गया, क्योंकि इस उम्र में उन्होंने 'बकरी' नामक अपनी सम्पत्ति को बेचकर अपने घर में शौचालय बनवाया. फिर उनकी देखा-देखी गांव के अन्य लोगों ने भी यही किया. इस प्रकार शौचालय बनवाने का एक सिलसिला चल निकला. कुंवरबाई उस छत्तीसगढ़ राज्य की हैं, जो विकास के मानकों की दृष्टि से सूची में निचले स्थान पर रखा जाता है.

दरअसल, छत्तीसगढ़ की कुंवरबाई का ख्याल मुझे आज से लगभग 45 साल पीछे छत्तीसगढ़ के ही उस गांव में ले जाता है, जहां मेरे जीवन के शुरुआती अठारह साल गुज़रे. मेरा यह गांव चन्द्रमेढ़ा, जिला मुख्यालय अम्बिकापुर से 55 किलोमीटर तथा मुख्य सड़क से चार किलोमीटर दूर था. यह लगभग 500 की आबादी वाला पूरी तरह आदिवासियों का गांव था. साल 1970 के आसपास की बात है. लोग पूरी तरह अनपढ़ थे, लेकिन वह सब नहीं, जिनके बारे में आगे यूं ही सोच लिया जाता है.

यह गांव अलग-अलग छोटे-छोटे 'पारा', जिसे शहरों में नगर, पुरा, खेड़ा आदि-आदि कहा जाता है, में बंटा हुआ था. इसी से सटे हुए अन्य गांव भी इसी तरह के नामों से जाने जाते थे. उन दिनों मैं जिस भी घर में जाता था, वहां पाता था कि घर काली मिट्टी, गोबर या छुई मिट्टी (एक प्रकार का ग्रामीण चूना) से बिल्कुल लिपे-पुते हैं. उन घरों से हरदम एक प्रकार की सौंधी-सौंधी खुशबू आती रहती थी, जो इन मिट्टियों की ताजगी की होती थी. उनके घर के बर्तन इतने साफ और चमचमाते हुए होते थे कि शायद वैसे वे फैक्ट्री से निकलते समय भी नहीं होते होंगे. महिलाओं द्वारा खूब रगड़-रगड़ कर मांजने के कारण इनमें यह रंगत आती होगी. न तो इनके शरीर से कोई बदबू (पसीने की खुशबू के सिवाय) आती थी, और न ही कपड़ों से. कपड़े एकदम झकाझक होते थे, फिर चाहे वे सफेद रंग के ही क्यों न हों.

ऐसी सफाई केवल कुछ लोगों या कुछ घरों में ही नहीं होती थी. पूरा गांव चमचमाता था, चाहे घरों के सामने का खाली पड़ा हुआ लावारिस हिस्सा हो, या गांव की गलियां, सब बिल्कुल साफ-सुथरी रहती थीं. और यह सब "नगरपालिका" के बिना ही होता था.

स्वच्छता की चेतना इन लोगों के दिमाग में इतने गहरे बैठ गई थी कि ग्रामीण हर चीज़ का इस्तेमाल पोंछकर और धोकर ही करते थे. यहां मुझे एक घटना याद आ रही है. वह गर्मी की भरी दुपहरी थी. मैं एक के यहां गया. मेरी खातिरदारी में पहले तो एक चमचमाती हुई प्लेट में लाकर गुड़ और पानी मुझे दिया गया. फिर पपीते की फांक मुझे परोसी गई. चौंकाने वाली बात यह थी कि पपीते की उन छिली हुई फांकों को भी धोकर परोसा गया था.

उन गांवों में यह सब कैसे हो रहा था? इसका जादू उस एक व्यक्ति में छिपा हुआ था, जिन्हें वहां के लोग 'गहिरा गुरु' कहते थे. सभी ग्रामीण गहिरा गुरू के अनुयायी थे. उनके पंथ के नियम थे- घर की सफाई, रोज नहाना, शराब और मांस को छूना तक नहीं तथा दान के रूप में रोजाना एक मुट्ठी चावल घड़े में डालना. यह एक अद्भुत धार्मिक पंथ था, जिसका सीधा संबंध लोगों के आचरण तथा उनके लौकिक जीवन से था. इस पंथ के लोग आर्थिक रूप से बहुत अच्छे होते गए और लोगों का गहिरा गुरु पर विश्वास भी बढ़ता चला गया.

हमारे देश में लगभग साढ़े पांच लाख गांव हैं, और करीब 25 लाख धर्मस्थल. धार्मिक गुरुओं की संख्या तो करोड़ों में होगी. यदि ये धार्मिक गुरु गहिरा गुरु के जैसे धार्मिक सिद्धांतों को थोड़ा भी लागू कर दें, तो हमारे गांवों का कायाकल्प हो सकता है.

मैं ऐसे महान गहिरा गुरु को सादर प्रणाम करता हूं. साथ ही उन कुंवरबाई को भी, जो उस परम्परा को जीवित रखे हुए हैं.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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