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This Article is From Aug 23, 2018

IAS के 'लौह-द्वार' पर प्रथम प्रहार

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 23, 2018 13:59 pm IST
    • Published On अगस्त 23, 2018 13:59 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 23, 2018 13:59 pm IST
यह कुछ चौंकाने वाली ख़बर जान पड़ती है कि केंद्र सरकार ने विभिन्न मंत्रालयों के संयुक्त सचिव के 10 पदों के लिए निजी क्षेत्र के लोगों से जो आवेदन मंगवाए थे, उसके जवाब में कुल 6,077 आवेदन प्राप्त हुए हैं. यानी प्रति पद के लिए औसतन 600 व्यक्ति. यह एक अद्भुत संयोग है कि जिस सिविल सेवा परीक्षा के तहत IAS अधिकारियों की भर्ती होती है, उसमें बैठने वाले और सेलेक्ट होने वाले परीक्षार्थियों का अनुपात भी लगभग यही होता है. आवेदनों की इतनी बड़ी संख्या कम से कम इस बात को तो प्रमाणित करती ही है कि सरकारी नौकरियों का आकर्षण अब भी उतना कम नहीं हुआ है, जितने के बारे में अक्सर कह दिया जाता है.

शायद इसके मुख्यतः दो कारण हों. पहला, निजी क्षेत्रों में काम करने की संस्कृति और काम करने के घंटे इतने अधिक हैं कि निजी जीवन के लिए कोई स्पेस नहीं रह जाता. दूसरा, जहां तक अधिकारों एवं कार्य करने के सामाजिक संतोष की बात है, निश्चित रूप से वह सरकारी तंत्र में अधिक है. इसीलिए पिछले 10 सालों से यह एक नई प्रवृत्ति बड़ी संख्या में देखने में आ रही है कि IIT इंजीनियर, MD डॉक्टर तथा IIM से निकले हुए MBA भी सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठ रहे हैं और उन्हें खासी संख्या में सफलता भी मिल रही है. यह बात काबिल-ए-गौर है कि सिविल सर्विस में सफल होने वाले कुल परीक्षार्थियों में लगभग 50 प्रतिशत परीक्षार्थी इंजीनियर होते हैं. अब यह बात अलग है कि इतने उच्चस्तरीय संस्थानों से निकले हुए इंजीनियरों का सिविल सर्विस में आकर विशेषज्ञ से सामान्यज्ञ बन जाना राष्ट्र के कितने हित में है.

हालांकि इससे पहले भी अलग-अलग सरकारों ने अपने-अपने समय में सचिव पदों के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों से अलग हटकर बाहर के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया था, लेकिन वे सब प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत स्तर पर थे. यह पहला अवसर है, जब इस तरीके से विभागीय स्तर पर एक साथ 10 पदों के लिए विधिवत तरीके से आवेदन पत्र आमंत्रित किए गए हैं.

भारत सरकार में संयुक्त सचिव का पद ही सही अर्थों में एक सच्चे कार्यकारी का पद होता है, जो मंत्रालय की किसी एक शाखा का नेतृत्व करता है. इस दृष्टि से केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव का पद बहुत ज्यादा मायने रखता है. सरकार ने इसीलिए इस पद के लिए रिक्तियां घोषित की हैं. लेकिन यहां यह बात भी ध्यान देने की है कि अंततः संयुक्त सचिव को काम सचिव के अधीन ही करना होता है और सचिव का पद IAS अधिकारी के पास ही रहेगा. इस प्रकार कहा जा सकता है कि सरकार ने ऐसा करके सचिव के रूप से सामान्यज्ञ और संयुक्त सचिव के रूप में विशेषज्ञों को रखकर एक संतुलन बनाने की कोशिश की है. साथ ही शीर्ष स्तर पर नौकरशाह को रखकर कहीं न कहीं स्वयं के नियंत्रण को भी पूरी तरह बनाए रखने की कोशिश दिखाई देती है, क्योंकि अंततः चलनी सचिव की ही है.


फिर भी जहां तक नीति बनाने और उन्हें लागू करने के स्तर पर ठोस वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक तथ्य उपलब्ध कराए जाने का प्रश्न है, वहां निश्चित रूप से ये विशेषज्ञ बहुत सहायक होंगे; बशर्त इनकी भर्ती किए जाते समय इनकी दक्षता के साथ किसी तरह का कोई समझौता न किया जाए. कुछ लोग लेटरल एन्ट्री के बारे में इसी तथ्य को लेकर आशंकित हैं कि कहीं ऐसा न हो कि भर्ती की इस प्रक्रिया में राजनीतिक प्रतिबद्धता आड़े आ जाए.

सरकार के इस निर्णय को प्रशासनिक सुदृढ़ता की दिशा में उठाए गए एक महत्वपूर्ण शुरुआती कदम के रूप में देखा जाना चाहिए. सच यह है कि आज़ादी के बाद से देश में जिस प्रकार के अत्यन्त महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन हुए हैं, उनकी तुलना में थोड़े-बहुत सतही सुधारों के साथ प्रशासनिक ढांचा अभी तक ज्यों का त्यों बना हुआ है. अंग्रेज़ों द्वारा अपने हितों की पूर्ति के लिए स्थापित भारतीय प्रशासनिक एवं पुलिस सेवा अब भी अपनी उसी उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त चली आ रही है. विशेषकर, भारतीय प्रशासनिक सेवा जिस प्रकार केंद्र एवं राज्य सरकारों की दूसरी सेवाओं पर अमरबेल की तरह फैलकर उनके स्वाभाविक विकास को बाधित कर रही है, अंततः उसका खामियाज़ा राष्ट्र को ही चुकाना पड़ रहा है. प्रशासनिक सेवा की पकड़ राजनीति एवं पूरी व्यवस्था पर इतनी पुरानी और जबर्दस्त है कि उससे मुक्त करने की बात तो दूर, उसमें ढिलाई देने तक के प्रयास को स्वीकार नहीं किया जाता.

इस लिहाज़ से वर्तमान सरकार द्वारा उठाए गए इस कदम को न केवल अत्यन्त व्यावहारिक एवं सराहनीय कदम माना जाना चाहिए, बल्कि यह एक साहसिक कदम भी है. सरकार की इस घोषणा के बाद अख़बारों में छपे लेख और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर इस विषय के ऊपर हुई बहस इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि देश कितने लम्बे समय से इस तरह के परिवर्तन के लिए उत्सुक था. इस दिशा में आगे की नीति अब इस बात पर निर्भर करेगी कि इन 10 पदों के लिए किस तरह के लोगों का चयन किया जाता है और चयनित होने के बाद वे राष्ट्र का कितना विश्वास अर्जित कर पाते हैं.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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