कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार के दौरान जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि चुनाव बाद कांग्रेस PPP पार्टी बन जाएगी, तो मुझे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की तर्ज पर लगा कि वह विपक्षियों के बीच गठबंधन की बात कर रहे हैं. लेकिन बाद में उन्होंने खुद इसका अर्थ बताया कि कांग्रेस 'पंजाब, पुदुच्चेरी और परिवार' की पार्टी रह जाएगी. दो दिन के बाद राहुल गांधी ने जेडीएस का नया अर्थ दिया - जनता दल संघ परिवार. निःसंदेह, जनता को इससे मजा आ रहा है.
वस्तुतः वर्तमान में राजनीतिक दंगल के सारे दांवपेंच नीतियों की स्वस्थ-सार्थक आलोचनाओं से हटकर भाषाई अखाड़े में सिमटकर रह गए हैं. राजनीति की भाषा राजनेताओं की न रहकर सिनेमा के उन सुपरस्टारों की भाषा बन गई है, जिनके अभिनय की संवेदनशीलता संवादों की ताली-बटोर गड़गड़ाहट के बीच खो जाती है. लेकिन ये ही फिल्में देखते ही देखते 100-करोड़ी क्लब में शामिल हो जाती हैं. यानी सुपरहिट.
हमारी राजनीति ने भी अपने लिए फिलहाल सिनेमा के इसी फॉर्मूले को अपना लिया है, जहां वे न खुद सोचते हैं, न बोलते हैं, बल्कि उनके संवाद लेखकों द्वारा बुलवाया जाता है. फिर इन जुमलों पर न केवल तालियां बजती हैं, बल्कि ये लघु-लघु नारेनुमा अर्थहीन अधूरे वाक्यों को मीडिया के शीर्ष पर जगह भी मिलती है. और सबसे चिन्ताजनक बात यह है कि सारी राजनीतिक बहस भी इन्हीं तक सिमटकर रह जाती है.
इस तरह के सैकड़ों उदाहरणों में से फिलहाल हम नमूने के तौर पर वस्तु एवं सेवा कर (गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानी GST) के अर्थबोध एवं व्याख्या का उदाहरण लेते हैं. प्रधानमंत्री ने, जिन्हें शब्दों की रमी खेलने का कुछ ज्यादा शौक है, इसे 'गुड और सिम्पल टैक्स' कहा, यानी GST बहुत अच्छा और बेहद सरल टैक्स है. इसके लागू होते ही इस टैक्स ने भारतीय व्यापारियों को जितना परेशान किया है, उससे अधिक बैड (बुरा) और कॉम्प्लेक्स (जटिल) टैक्स उन्होंने आज तक जाना ही नहीं था. यानी इसके पक्ष में जन मनोविज्ञान तैयार करने के लिए जिस 'गुड एंड सिम्पल' के नारे का प्रयोग किया गया, वह बताने और समझाने के लिए कम; सत्य को छिपाने और भावार्थ को उलझाने के लिए अधिक था.
फिर प्रधानमंत्री की इस व्याख्या के जवाब में कांग्रेस के तत्कालीन उपाध्यक्ष राहुल गांधी का जुमला आ गया - गब्बर सिंह टैक्स, यानी डरावना भयानक टैक्स. लेकिन कैसे, इसके बारे में बताने की ज़रूरत नहीं समझी गई. चूंकि डायलॉग का जवाब एक बड़े डायलॉग से दिया जाना था, सो दे दिया गया. और पब्लिक के दिमाग को अर्थशास्त्रीय विमर्श के लिए दो झुनझुने मिल गए.
यह शायद पहला मौका है, जब राजनीति में साहित्य की भाषा का छौंक लगाकर विचारों को मुद्दे के मुख्य बिन्दुओं से भटकाने की चालाकी दिखाई जा रही है. प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास ऐतिहासिक दृष्टि से सम्पन्न एक साहित्यबोध वाली भाषा थी, लेकिन उनका उद्देश्य विचारों को धुंधलाना नहीं, उसे अधिक स्पष्ट करना एवं समझाना था. यदि वह भाखड़ा-नंगल बांध को 'आधुनिक भारत का मंदिर' तथा पंचवर्षीय योजना को 'देश की जन्मपत्री' कहते थे, तो यह भाषा न केवल प्रभावित करती थी, बल्कि अर्थों को खोलती भी थी, और वह भी देशीय मानस के संदर्भ में.
किन्तु आज की भाषा के न संस्कार वैसे हैं और न उद्देश्य. 'चायवाला' और 'पकौड़े तलना' जैसे मुहावरों में साफ-साफ कड़वाहट से भरी तीखी आलोचना; जो सत्य के विपरीत होती हैं, की गंध आती है. 'शाहजादा' शब्द ('राजकुमार' के स्थान पर शायद जानबूझकर लाया गया) सत्य के निकट होते हुए भी कहीं न कहीं बारूद की गंध और गर्मी को समाए हुए है.
राजनीति के सर्वोच्च स्तर की यही भाषा रिसकर धीरे-धीरे जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी पहुंचने लगी है, जो सबसे अधिक चिन्ता पैदा कर रही है. बच्चे भाषा अंततः अपने बड़ों से ही सीखते हैं.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From May 09, 2018
राजनीति की नई चिढ़ाती-बरगलाती भाषा...
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:मई 14, 2018 21:21 pm IST
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Published On मई 09, 2018 14:20 pm IST
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Last Updated On मई 14, 2018 21:21 pm IST
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