दिल्ली की दो अहम खबरें. पहली यह कि दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले के द्वारा दिल्ली सरकार के मुखिया के भ्रम को साफ करते हुए कहा कि ‘दिल्ली के उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं.’ दूसरी खबर, जो इससे दो दिन पहले की है वह यह कि ‘दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दस दिनों के लिए धर्मशाला जाएंगे.' क्यों? विपश्यना के लिए.
विपश्यना के लिए क्यों? ताकि उन्हें मानसिक शांति मिल सके. इन दस दिनों में केजरीवाल किसी से भी बातचीत नहीं कर सकेंगे; यहां तक कि मोबाइल पर भी नहीं. हां, कभी-कभार अपने प्रशिक्षक से जरूर थोड़ी-बहुत गुफ्त-गू करने की उन्हें इजाज़त होगी. पूरे देश की दिलचस्पी फिलहाल इस बात में नहीं है कि केजरीवाल साहब को शांति मिल पायेगी या नहीं. उनकी दिलचस्पी यह जानने में है कि ‘क्या वह दस दिनों तक बिना बोले रह सकेंगे?
जब केजरीवाल जी की तबीयत खराब हुई थी, खासकर खांसी के मामले में, तब मोदी जी की सलाह पर उन्होंने बेंगलुरु के नेचुरोपैथी सेंटर का रुख किया था. अब सलाह किसकी है, मालूम नहीं, लेकिन दिशा दक्षिण से उत्तर की ओर हो गई है, वह भी हिमालय की गोद में. बेंगलुरु ने तो उनको फायदा पहुंचा दिया था. लेकिन लग नहीं रहा है कि ऐसा ही कुछ हिमालय प्रदेश का यह बौद्ध केंद्र धर्मशाला भी कर सकेगा. उनके जैसे विचलित और चंचल मन का विपश्यना भी शायद ही कुछ कर सके?
केजरीवाल के मन के तीन कोण हैं. एक मन टेक्नोक्रेट का है, खड़गपुरिया टेक्नोक्रोट का. दूसरा मन ब्यूरोक्रेट का है, इनकम टैक्स अफसर का, एक आला अफसर का. तीसरा मन एक्टिविस्ट का है, जिसने उन्हें मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचाया है. यदि हम इन तीनों कोणों को मिलाकर एक नये चौथे कोण की रचना करें, तो वह कोण होगा - उग्रता का, विद्रोह का, क्रोध का, क्रांति का. सच यही है कि उनकी इसी उग्रता ने उन्हें यहां तक पहुंचाया भी है.
अब उनके साथ मुश्किल यह हो रही है कि वह राजनेता तो बन गये, लेकिन सत्ता पक्ष के. जबकि उनका स्वभाव जन्मजात विपक्षी नेता का है. टेक्नोलॉजी व्यावहारिकता को नहीं समझती. वह प्रबंधन का माध्यम तो बन सकती है लेकिन स्वयं प्रबंधन बनने की प्रबुद्धता उनके पास नहीं है. अफसरशाह यानि कि अपने ईगो में जीने वाला एक विशिष्ट प्राणी और एक एक्टिविस्ट यानी कि जो कुछ भी है, उससे असंतुष्ट, या यूं कह लें कि ध्यान उस बात पर कि कहां-कहां गलत हो रहा है, ताकि उसके खिलाफ गोलबंदी करके नारे लगाये जा सकें.
एक मुख्यमंत्री को और वह भी दिल्ली जैसे राज्य के मुख्यमंत्री को चाहिए-प्रबंधन की क्षमता, बर्दाश्त करने की ताकत और रचनात्मक दृष्टिकोण. केजरीवाल जी के पास जो कुछ हैं, वे सब इन तीनों गुणों के विपरीत मालूम पड़ते हैं- धुर विपरीत.
विपश्यना मूलतः स्वयं को देखने, स्वयं को समझने और स्वयं के साथ संपूर्ण रूप से रहने की पद्धति है. यह देखना अपने अंदर को देखना है. यानी कि अवचेतन और यहां तक कि अवचेतन तक झांकने की प्रक्रिया है. झांकने के लिए जो आंखें चाहिए, वे हैं - समर्पण की आंखें, सरलता, सहजता और आंतरिक संतुलन की आंखें. क्या केजरीवाल जी ने अपने पास इनमें से एक भी आंख होने को कोई प्रमाण अभी तक लोगों को दिया है? उन्होंने तो धर्मशाला में पहुंचते ही प्रधानमंत्री पर एक ट्वीट कर दिया यानी कि उनकी चेतना पर जो चश्मा चढ़ा हुआ है, उसक एक ग्लास आलोचना का है (नकारात्मकता का) तो दूसरा ग्लास कलह का. और इस चश्मे का फ्रेम है- उनका ईगो, जो इन दोनों चश्मों को संभाले हुए है. इसलिए कभी-कभी तो दिल्ली के उपराज्यपाल के साथ की उनकी अनवरत तू-तू, मैं-मैं कहीं न कहीं अवचेतन के स्तर पर एक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के साथ एक भारतीय राजस्व सेवा के अधिकार की तू-तू, मैं-मैं भी मालूम पड़ने लगती है.
यदि विपश्यना के ये दिन दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री को इस सत्य से अवगत करा सके, तो यह दिल्लीवासियों के लिए सौभाग्य की बात होगी. शायद भारत की राजनीति के लिए भी, क्योंकि जब 'आप' पार्टी बनी थी, तब यही लगा था कि यह अपने विचारों और आचरणों से सत्ता के कुछ नये प्रतिमान स्थापित करेगी. विपश्यना, अब एक तेरा ही सहारा है. कोर्ट-कचहरियों की तो सीमा होती है, विपश्यना की नहीं. यह असीम है.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Aug 08, 2016
देखें विपश्यना अरविंद केजरीवाल की कितनी मदद कर पाती है...
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 08, 2016 19:51 pm IST
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Published On अगस्त 08, 2016 17:24 pm IST
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Last Updated On अगस्त 08, 2016 19:51 pm IST
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