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This Article is From Aug 28, 2018

सरकारी नौकरियों की भर्ती में सालों क्यों लगते हैं?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 28, 2018 00:27 am IST
    • Published On अगस्त 28, 2018 00:27 am IST
    • Last Updated On अगस्त 28, 2018 00:27 am IST
हर दिन सोचता हूं कि अब नौकरी सीरीज़ बंद कर दें. क्योंकि देश भर में चयन आयोग किसी गिरोह की तरह काम कर रहे हैं. उन्होंने नौजवानों को इस कदर लूटा है कि आफ चाह कर भी सबकी कहानी नहीं दिखा सकते हैं. नौजवानों से फॉर्म भरने कई करोड़ लिए जाते हैं, मगर परीक्षा का पता ही नहीं चलता है. देश में कोई भी खबर होती है, ये नौजवान दिन रात अपनी नौकरी को लेकर ही मैसेज करते रहते हैं. मेरी नौकरी, मेरी परीक्षा का कब दिखाएंगे. परीक्षा देकर नौजवान एक साल से लेकर तीन साल तक इंतज़ार कर रहे हैं तो कई बार फॉर्म भरने के बाद चार तक परीक्षा का पता ही नहीं चलता है. यह सीरीज़ इसलिए बंद करना ज़रूरी है क्योंकि समस्या विकराल हो चुकी है. जब भी बंद करने की सोचता हूं किसी नौजवान की कहानी सुनकर कांप जाता हूं. तब लगता है कि आज एक और बार के लिए दिखा देते हैं और फिर सीरीज़ बंद नहीं कर पाता. 

आज की कहानी मैं एक किस्से से शुरू करता हूं. मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है कि यह सही भी होगा लेकिन आप पहले सुनिए. शंकर ईस्ट दिल्ली में रहता है. उसी के घर और मोहल्ले की तस्वीरें हैं ताकि आपको वो हिन्दुस्तान भी दिख जाए जहां से शंकर जैसे नौजवान सरकारी नौकरियों की तैयारी में ज़िंदगी बीता देते हैं. शंकर ने 2013 में आर्डिनेंस फैक्ट्री कानपुर के लिए फॉर्म भरा था. 100 लेबर की बहाली होनी थी, जिसकी कुल सैलरी 20,000 के आस पास होती है. 1 जून 2014 को लिखित परीक्षा दी जिसका रिज़ल्ट आ गया 6 जून 2014 को. 16 और 17 जून 2014 को शारीरिक और चिकित्सा जांच हो गई. पुलिस जांच के फॉर्म भरने को दिए गए. उसके बाद एक पत्र आता है कि कुछ अभ्यर्थियों की पहचान में कुछ गड़बड़ी है जिसकी फॉरेंसिक जांच होगी. ये लोग फॉरेंसिक जांच के लिए पहुंच गए मगर दिसंबर 2014 से लेकर अगस्त 2018 आ गया. इन्हें ज्वाइनिंग के लिए नहीं बुलाया गया. शंकर का दावा है कि किसी को नहीं बुलाया गया. चार साल परीक्षा में पास होकर इंतज़ार ही करता रह गया.

शंकर ने अपने साथी की मदद से रिकॉर्डिंग भेजी है. अब आपसे एक सवाल है. क्या शंकर जैसे नौजवानों के साथ जो हुआ वो सही था. इस परीक्षा का विज्ञापन निकला था मार्च 2013 में. 2014 तक इन लोगों ने परीक्षा पास कर, जांच वगैरह की सारी प्रक्रिया पूरी कर ली फिर उसके चार साल तक कुछ सुगबुगाहट नहीं. उसके बाद रक्षा मंत्रालय के तहत आर्डिनेंस फैक्ट्री का आदेश आता है कि मार्च 2013 में जो विज्ञापन निकला था, जिसके तहत 100 लेबर की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू की गई थी वो सिरे से रद्द कर दी जाती है. इस पर अडिशनल जनरल मेनेजर के दस्तखत हैं. चार साल बाद जनाब इनकी नियुक्ति की प्रक्रिया ही रद्द हो गई. इस परीक्षा के लिए इन नौजवानों ने 50 रुपये फॉर्म के भरे थे. वो भी पानी में गया. चार साल तक परीक्षा का अता पता नहीं एक दिन कहा जाता है कि जो भी प्रक्रिया शुरू हुई थी वो रद्द की जाती है. एक पंक्ति का कारण बताया जाता है. 

प्राइम टाइम टेलिविज़न के लिए यह सब मुद्दा नहीं है. इस वक्त टीवी पर थीम और थ्योरी वाला मुद्दा छाया रहता है जैसे 2019 में मोदी के सामने कौन है. तीन मूर्ति में किस किस की मूर्ति होनी चाहिए. इन सब मुद्दों पर बहस खूब होती है. थीम और थ्योरी वाले टापिक पर बड़े बड़े जानकार आते हैं, ज्ञान बघारते हैं. इधर नौजवान मेरी जान के पीछे पड़े रहते हैं कि आप क्यों नही दिखाते हैं कि हमारे साथ क्या हो रहा है. जो मुद्दा आज के नौजवानों के सामने खड़ा है, उस पर कोई बहस क्यों नहीं है. नहीं है. शंकर ने अपने बयान में एक और बात कही. 2016 में उसने आर्डिनेंस फैक्ट्री के लिए फिर फॉर्म भरा. तीन बैच में परीक्षा होनी थी. एक बैच की परीक्षा हुई मगर फिर वही आदेश आया कि बाकी के दो बैच की परीक्षा रद्द की जाती है. 2013 से 2018 आ गया, शंकर बेरोज़गार है. हमने नौकरी सीरीज़ के दौरान कई बार देखा है कि परीक्षा होती है और अंत में किसी न किसी कारण रद्द की जाती है और फिर दोबारा कब होगी पता नहीं चलता, कई बार दोबारा भी नहीं होती है.

भारत के लाखों नौजवान सरकारी नौकरी की परीक्षा में लगे हैं. कोई रेलवे की तैयारी कर रहा है तो कोई बैंकिंग की तो कोई एसएससी की. क्योंकि इन नौकरियों की भर्ति की एक संख्या होती है. छात्रों को पता होता है कि कितनी सीट आई है. उसे यह कभी पता नहीं चलता है कि प्राइवेट सेक्टर में कब और कहां कितनी सीट आई है. मंदी और नोटबंदी के बाद से जिनकी नौकरी गई है उनमें से बहुत कम को दोबारा काम मिला है. नौकरी नहीं है इसके कई आंकड़े समय समय पर आते रहते हैं. हाल ही में कर्मचारी भविष्य निधि संगठन ने अपने आंकड़ों की समीक्षा में पाया कि पिछले दस महीने में 46 लाख लोगों की नौकरी जा चुकी है या उन्हें दोबारा काम नहीं मिला. ऐसा नहीं है कि नौकरी नही है. प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों की संख्या का भले पता न चले लेकिन सरकारी नौकरियों का मोटा-मोटी हिसाब है. हाल ही में संसद में दिए गए बयानों के हिसाब से सरकार के पास 24 लाख नौकरियां हैं.

अमेरिकी पत्रकार स्टीवन ब्रिल ने एक किताब लिखी है टेलिस्पिन. इस किताब में उन्होंने लिखा है कि अमेरिका में सरकारी नौकरियों में भर्ती की प्रक्रिया बहुत लंबी और जटिल है. क्या आप जानते हैं कि वहां कितना समय लगता है जिसे लेकर स्टीवन ब्रिल नाराज़ हैं. मात्र 90 दिन. भारत में सरकारी नौकरियों की बहाली में चार चार साल लगते हैं. हम इसका ज़िक्र इसलिए भी कर रहे हैं, क्योंकि संजय कुमार और प्रणव गुप्ता ने मिंट अखबार में एक लेख लिखा है. सीएसडीएस के लोकनीति कार्यक्रम के तहत युवाओं के बीच व्यापक सर्वे किया गया है. उसमें यह देखने का भी प्रयास हुआ है कि युवाओं में सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षण क्यों है. इस सर्वे का नतीजा यह है कि युवाओं में प्राइवेट नौकरी के प्रति आकर्षण कम हुआ और सरकारी नौकरी के प्रति काफी बढ़ा है. उन्हें पता है कि विधायक और सांसद बनने पर दो दो जगह से पेंशन मिलती है, सरकारी नौकरी में पेंशन नहीं है फिर भी नौकरी का जो स्थायित्व है वह प्राइवेट नौकरी में नहीं है. दूसरा अब उन्हें पता चल गया है कि सरकारी नौकरी में कुछ कम ही सही, सबको एक बराबर सैलरी मिलती है. प्राइवेट सेक्टर में मेहनत और खटाई ज़्यादा है, कमाई कम है. इन नौजवानों को अच्छी तरह पता है कि 50 रुपये से 1000 रुपये फॉर्म भरने के लिए जा रहे हैं. परीक्षा होती है मगर रिज़ल्ट नहीं आता है. 

65 प्रतिशत युवा सरकारी नौकरी चाहता है. सिर्फ 7 प्रतिशत प्राइवेट में नौकरी करना चाहते हैं. 19 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपना बिजनेस करना चाहते हैं. ये सीएसडीएस का सर्वे कहता है जो युवाओं को लेकर किया गया है, जिसे आगे चलकर किताब की शक्ल में छापा जाने वाला है. 2007 में सरकारी नौकरी चाहने वाले 62 प्रतिशत थे, 2016 में बढ़कर 65 प्रतिशत हो गए. 2007 में बड़े शहरों के 48 प्रतिशत युवा सरकारी नौकरी चाहते थे, 2016 में इनकी संख्या 62 फीसदी हो गई. 2007 में प्राइवेट नौकरी की चाह रखने वाले 24 फीसदी युवा थे, 2016 में इनकी संख्या 10 प्रतिशत रह गई. बड़े शहरों में भी गिरावट है. 2007 में 17 फीसदी थे, 2016 में 10 फीसदी पर आ गए.

सरकारी नौकरी की चाह रखने में कुछ भी गलत नहीं है. क्यों नहीं सरकारी नौकरी की चाह रखनी चाहिए. सरकार के पास 24 लाख पद खाली हैं. वो क्यों नहीं कह देती है कि सरकारी नौकरी मत कीजिए. बुरा क्या है सरकारी नौकरी की चाहत में. सुशील महापात्रा ने सरकारी नौकरी की तैयारी करने वाले नौजवानों से बात की है. नौकरी की शर्तें मुश्किल होती जा रही हैं. सिर्फ भारत ही नहीं, नौकरी के स्थायित्व का मुद्दा हर देश का मुद्दा है. अब देखिए किस तरह से नौजवानों की ज़िंदगी दांव पर लगी है. क्या आप जानते हैं कि बिहार में 68500 शिक्षक 2012 से परीक्षा पास कर नियुक्ति का इंतज़ार कर रहे हैं. इनमें से 2012 में करीब 17000 की मेरिट लिस्ट बनी थी, उस लिस्ट में से भी सभी की नियुक्ति नहीं हुई है. 53, 500 शिक्षकों की मेरिट लिस्ट नहीं बनी है. अगर इन्हें 2019 तक नौकरी नहीं मिली तो इन्होंने जो परीक्षा पास की है वो रद्द हो जाएगी.

सात साल तक इंतज़ार करने के बाद इनकी ज़िंदगी बर्बाद हो जाएगी. क्या आपको किसी मंत्री ने अपने ट्विटर पर बताया है, आप देखिए, मंत्री लोग ऐसी जानकारी कम ट्वीट करते हैं, आधा टाइम लाइन तो जयंती और पुण्यतिथि का होता है जिससे वे हर दिन प्रेरणा लेते हुए नज़र आते हैं. 2012 में बिहार स्टेट टीचर एलिजिबिलिटि टेस्ट की परीक्षा पास करने के बाद बीए बीएड और टेट के नंबर के आधार पर इनका रैंक तैयार होना चाहिए था और जिस भी हाई स्कूल में जहां जगह है वहां बहाली हो जानी चाहिए थी. मगर 17000 की मेरिट लिस्ट बनी और बाकी की नहीं. 53,500 शिक्षकों की सांस अटकी हुई है कि अगर बहाली की प्रक्रिया जल्दी शुरू नहीं हुई तो उनके रिज़ल्ट की मान्यता समाप्त हो जाएगी और वे टीचर बनने की पात्रता जीवन भर के लिए खो देंगे. कई बार इन्होंने आंदोलन किया. इस मंत्री से मिले, उस मंत्री से मिले, विधानसभा में प्रश्न उठा मगर आश्वासन और भाषण के बाद सब कुछ सामान्य हो गया.

इन शिक्षकों के अनुसार बिहार के स्कूलों में 19000 शिक्षकों के पद खाली हैं. बिहार में 5700 स्कूल बिना शिक्षकों के चल रहे हैं. फिर इन्हें नौकरी क्यों नहीं दी जा रही है. क्या किसी को परवाह नहीं है कि राज्य की ही परीक्षा पास करने के बाद इन शिक्षकों की नौकरी की पात्रता अगले साल समाप्त हो जाएगी? 8 लाख से अधिक अभ्यर्थियों ने इस परीक्षा के लिए फॉर्म भरे थे और सबने डेढ़ सौ रुपये जमा किए थे. इस पैसे का क्या हुआ. 68500 पास हुए थे. 30 अगस्त 2016 के अखबार में सुशील मोदी का बयान छपा है. वो अभी उप मुख्यमंत्री हैं मगर तब विपक्ष में थे. तब उन्होंने कहा था कि सरकार शिक्षकों को नियुक्ति नहीं देना चाहती है, बहाने बना रही है. उसकी क्लिपिंग हमारे पास है. आपको बता दें कि देश भर के स्कूलों में शिक्षकों के दस लाख पद खाली हैं मगर हर राज्य में टीचर एलिजिबिलिटि टेस्ट पास होकर आंदोलन कर रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में भी टेट की परीक्षा पास करने वाले नौजवान नौकरी का इंतज़ार कर रहे हैं. आंदोलन धरना आश्वासन भाषण करके थक गए मगर उनकी बहाली नहीं हो रही है. हम उनका हाल भी विस्तार से प्राइम टाइम में बताएंगे. एक और पत्र आया है जिसमें कहा गया है कि बिहार कर्मचारी चयन आयोग ने अगस्त 2014 में 13,000 क्लर्क की नियुक्ति का विज्ञापन निकाला था. आज चार साल हो गए मगर उस परीक्षा का कोई अता-पता नहीं है. एक बार फरवरी 2017 में परीक्षा हुई मगर रद्द हो गई. अगर अब भी चयन प्रक्रिया शुरू होगी तो भी 2 साल लग जाएंगे. इस परीक्षा के फॉर्म को भरने के लिए 250 रुपये लिए गए थे.

अमेरिका में सरकारी नौकरी की प्रक्रिया 90 दिनों में हो जाती है और आपने देखा कि अगस्त 2014 में 13000 क्लर्क का विज्ञापन निकला था मगर चार साल बाद तक एक भी परीक्षा नहीं हुई. सरकारें क्यों नहीं कह देती हैं कि वे अब नौकरी नहीं देंगी. बेरोज़गार अपनी कहानी मीडिया में देखना चाहते हैं तो उन्हें मीडिया के थीम एंड थ्योरी वाले टापिक से भी लड़ना होगा. जिसमें जानकार कोट पहनकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और जिन बहसों में नौकरी का सवाल मामूली सवाल लगता है. आप बताइये आपको नौकरी चाहिए कि तीन मूर्ति में किस-किस की मूर्ति लगेगी इसका हिसाब चाहिए.

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