‘चेचक और हैजे से मरती हैं बस्तियां... कोई नहीं मरता अपने पाप से...’

‘चेचक और हैजे से मरती हैं बस्तियां... कोई नहीं मरता अपने पाप से...’

प्रतीकात्मक तस्वीर

दुनिया के सारे मच्छर एक हो गए हैं. राष्ट्र-राज्य की सीमाओं को लांघकर. मार्क्स ने कहा तो किसी और सन्दर्भ में था. दिल पर ले गए मच्छर. मच्छरों की इस सांगठनिक एकता से काफी कुछ सीखा जा सकता है. नाली के मच्छर, गटर के मच्छर, तालाब के मच्छर, गंदे पानी के मच्छर, स्वच्छ जल के मच्छर. सब एक हो गए हैं. एक उद्देश्य के साथ. न कोई आपसी वर्ग-भेद, न कोई जातीय तनाव. न क्षेत्रीय वैमनस्य, न प्रजातीय विभेद.
 
मच्छरों में ऊंच-नीच बची है क्या? एनाफिलीज, क्यूलेक्स, एडीज- सभी एक हैं. कोई इलीट नहीं. सब बराबर. मच्छरों की एकता हम पर भारी पड़ रही है. तराई और पूरब के दिमागी बुखार से शुरू होकर शहरों के चिकनगुनिया और डेंगू तक. मच्छरों का यह इगेलीटेरियन समाज! और एक हमारी तबाह दुनिया!
 
श्रीकांत वर्मा की एक कविता कुछ यूं है…
चेचक और हैजे से मरती हैं बस्तियां...
कैंसर से हस्तियां
वकील रक्तचाप से
कोई नहीं मरता अपने पाप से...

 
यह बीमारियों का समाजशास्त्र है. होने को तो कोई बीमारी किसी को भी लग जाए, लेकिन हमारे यहां बीमारियों का अपना-अपना एक टारगेट-क्लास है. आम लोगों की बीमारियां अलग और बड़े लोगों की अलग. हस्तियों की बीमारियां क्या ठीक वैसी ही हैं, जो बस्तियों की बीमारियां हैं? बस्तियां अर्थात वह स्थान जहां पांच वर्ष में एक बार जाया जाए. हस्तियां अर्थात जहां रोज शाम को जाकर महफ़िल सजाई जाए.
 
हस्तियों और बस्तियों का यह फर्क कोई आज का नहीं है. यह ऊपर कही गई कविता के बहुत पहले से मौजूद है. मच्छरों ने इसे और खुलकर परिभाषित किया है. आधुनिक समाजशास्त्र के लिए यह मच्छरों का एकेडेमिक ‘योगदान’ है. हमारी चुनी हुई राजनीतिक दुनिया में बस्तियों और हस्तियों का यह मच्छरी फर्क बहुत बड़ा है. बस्तियां हुक्मरान चुनती हैं. हुक्मरान हस्तियां चुनते हैं. मच्छर दोनों को काटते हैं. बस्तियों के लिए अस्पताल में चारपाई कम पड़ जाती हैं. हस्तियां एयर एम्बुलेंस होकर किसी पंचतारा हॉस्पिटल में उतर जाती हैं.
 
बस्तियों के लिए हर चीज कम पड़ जाती है. गांव की अराजक बारात हो जैसे कोई. खीर भी कम पड़ गई. पूड़ी भी. रात पानी पीकर बिताई. और सुबह यह झगड़ा कि खीर तो खूब बनाई थी. तय भी था कि बंटेगी भी बराबर-बराबर. फिर खीर कहां गई? शायद गांव की हस्तियां ही खा गईं. गांव के अंधेरे में. बस्तियों के हिस्से में पानी ही आया.

बस्तियां शायद दुष्यंत कुमार की 'छोटी छोटी मछलियां' हैं.
'तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए
छोटी छोटी मछलियां चारा बना कर फेंक दीं'.

 
छोटी-छोटी मछलियां रोहू से कम सुंदर हैं क्या? कम अर्थवान हैं क्या? वह चारा बनती ही क्यों हैं? क्या वह अपनी भूमिका को लेकर संशयग्रस्त हैं? अपने देहाकार को लेकर शंकित हैं? रोहू के लिए चारा बन जाना विवशता है या अशक्तता? पता नहीं. मुझे तो मच्छरों का मनोविज्ञान उलझाता है. 'एक मच्छर आदमी को हिजड़ा' ही नहीं बनाता, मार भी देता है. मच्छर को कमतर मत आंको. हमारे पास दुश्मन मारने के लिए उन्नत मिसाइलें हैं, मच्छरों को मारने के लिए क्या है? मच्छर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर हंस रहे हैं. देश के सारे मच्छर मानो एकजुट हो गए हैं. बस्तियों के खिलाफ़.
 
बस्तियां पीड़ित हैं. हस्तियां सुरक्षित हैं. मच्छर सुखी हैं. यह बीमारियों का समाज-विज्ञान है जो यहीं पाया जाता है. हर शख्स की यहां अपनी बीमारी है, जिसका जिम्मेदार या तो कोई मच्छर है या वह खुद. यदि आप बस्तियों में पाए जाते हैं, तो आपका हॉस्पिटल अलग, यदि हस्तियों में गिने जाते हैं, तो आपका हॉस्पिटल अलग. मच्छर एक, बीमारी एक; इलाज अनेक, हैसियत के हिसाब से. बस्तियों और हस्तियों के नजरिये से.


धर्मेंद्र सिंह, भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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