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This Article is From Apr 21, 2016

...और शक्तिमान मुक्त हो गया 'लोहे के स्वाद' से...

Dharmendra Singh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 21, 2016 12:25 pm IST
    • Published On अप्रैल 21, 2016 10:47 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 21, 2016 12:25 pm IST
शक्तिमान ने जीवन की रस्सियों को तोड़ दिया, वह लोहे के 'स्वाद' से मुक्त हो गया। लोहे का स्वाद! घोड़ा इसी स्वाद के साथ तो पलता है। लोहे का स्वाद पानी में मिलाकर पीता है।

लोहे का स्वाद,
लोहार से मत पूछो,
उस घोड़े से पूछो,
जिसके मुंह में लगाम है...


धूमिल को यह उपमान न जाने कैसे सूझा होगा। कहा जाता है कि यह उनकी आखिरी कविता थी। ज़रूर उनका अवचेतन किसी अश्व की वेदना से प्रतिच्छेदित हुआ होगा। लुहार तो लोहे से खेलता है, भोगता तो घोड़ा ही है। शक्तिमान ने भी भोगा ही। दूसरे घोड़े जितना भोगते हैं, शायद उनसे अधिक ही, लेकिन उसने साधारण लोहे से आगे बढ़कर हमारी 'राजनीति' का असाधारण लोहा भोगा। उसने 'लोहे' का स्वाद नहीं, 'राजनीति' का स्वाद चखकर वीरगति पाई। धूमिल के घोड़े से देहरादून के शक्तिमान की किस्मत यहीं अलग हुई। धूमिल का घोड़ा लोहा पचा गया, उसे उस स्वाद की आदत हो गई थी, सो, वह लोहा गटक गया। शक्तिमान को साधारण लोहे को पचाना तो आता था, लेकिन हमारी भव्य लोकतांत्रिक राजनीति के इस कठोर लौह को वह पचा न पाया, खेत रहा।

इतिहास में वह कोई पहला घोड़ा नहीं है, जो अपना कर्तव्य निभाते शहीद हुआ हो। जून, 1576 की हल्दीघाटी की लड़ाई में केवल राणा प्रताप ही नहीं लड़े थे, चेतक भी उतना ही लड़ा था। आज भी राजस्थान के लोकगीतों में चेतक स्वामिभक्ति की मिसाल के रूप में जीवित है। आठवीं क्लास में श्यामनारायण पांडे की हल्दीघाटी कविता आज भी कानों में घोड़े की गति से ही दौड़ती है।

जो तनिक हवा से बाग हिली,
लेकर सवार उड़ जाता था,
राणा की पुतली फिरी नहीं,
तब तक चेतक मुड़ जाता था...


सिकंदर से बुसेफेलस का रिश्ता ग्रीक आख्यानों में बड़े रहस्य से लिया जाता है। 13 साल की उम्र में बुसेफेलस से उसका रिश्ता उस पर 'काबू' करने से शुरू हुआ और 326 ईसा पूर्व में तब तक चलता रहा, जब तक पोरस से हुई लड़ाई में बुसेफेलस घायल होकर शहीद न हो गया।

नेपोलियन का घोड़ा मैरेंगो, अमेरिकी सिविल वॉर में जनरल रोबर्ट ली का घोड़ा ट्रैवलर, साइमन बोलीवर का घोड़ा पलोमो, लार्ड आर्थर वेलेजली का घोड़ा कोपेनहेगेन और न जाने कितने ही घोड़े अपने सवारों के साथ लड़े, उनसे ज्यादा भी लड़े! कुछ बच सके, कुछ ने शहादत पाई।

लेकिन शक्तिमान की शहादत परम्परा से पृथक है। वह जिन चोटों से मरा, वे युद्ध या अशांति-काल में ड्यूटी करने के कारण आईं सादा चोटें नहीं थीं। शक्तिमान हमारी व्यवस्था की क्रूरता, उसकी निरी संवेदनहीनता से मरा। वह उस 'माननीय' परम्परा की चोटों से शहीद हुआ, जो धरना-प्रदर्शन और सुबह के नाश्ते में कोई फर्क नहीं करती। वह 'माननीय' परम्परा, जो कहीं भी रेल रोक सकती है, पटरी उखाड़ फेंक सकती है, सड़कों पर जाम लगाकर गुज़रते राहगीरों को अपने 'लोकतांत्रिक अधिकारों' के आक्रोश में लठिया सकती है, एम्बुलेंस को जाम कर किसी का भी काम तमाम कर सकती है। वह 'माननीय' और 'जनेच्छा-आधारित' परम्परा। शक्तिमान इसी 'लोकतांत्रिक परम्परा' में शहीद हुआ अश्व है।

उसके जख्मी हो जाने पर दून पुलिस ने मुकदमा भी लिखा, अभियुक्त को जेल भी भेजा। सोशल मीडिया पर उसने खूब सहानुभूति पाई। लोगों ने उसके शीघ्र स्वस्थ होने की कामनाएं कीं, हवन-पूजन किए, विदेश से डॉक्टर भी बुलाए गए। उसके जख्मी पैर को काटना पड़ा। यह निश्चय किया गया कि कृत्रिम प्रोस्थेटिक पैर लगा दिया जाए, लेकिन जो स्वभाव से परिंदा हो, उसके लिए नकली पंख किस काम के...?

वह 'जोंक' नहीं था, जो 'ज़िन्दगी' से चिपटा रहता। घोड़े जोंक होते भी नहीं। वे गर्व और गरिमा को प्रतिबिम्बित करते हैं, वे इज़्ज़त और नफासतपसंद होते हैं। वे मूक रहे हैं। मनुष्य के साथ रहे हैं। वे अतीत के चश्मदीद रहे हैं। उनकी पीठों पर बैठकर हुकूमतें तैयार हुईं। उनकी पीठों से लुढ़ककर साम्राज्य धराशायी हुए। वे किस-किस समुदाय के पास थे, किस-किस के पास नहीं थे...? क्या आर्यों की विजय और अनार्यों की पराजय के बीच में घोड़े ही थे...? क्या तुर्कों की जंगी कुशलता उनके अश्वों पर निर्भर थी...? क्या मंगोलों ने घोड़ों की पीठ पर सोते-चलते ही मंगोलिया से काश्गर और चीन तक साम्राज्य बना लिया था। अक्सर इतिहास हैरान हुई आंखों से इस जानवर को चुपचाप निहारता है। काल के धूल-दृप्त वक्ष पर इस जानवर के नालबंद पैर गहरे धंसे हुए हैं।

...शक्तिमान इतिहास के उसी लाड़ले पशु-वंश का प्रतिनिधि था, जिसकी पीठ पर चढ़कर मनुष्य ने मनुष्य को कत्ल किया, बस्तियां उजाड़ीं, शहर जलाए, साम्राज्य बनाए, ताज गंवाए। वह हमारी एड़ पाकर चलता रहा, दौड़ता रहा। इतिहास की अमानवीयता में उसका अपना कोई हस्तक्षेप न था। उसकी भूमिका हमारे हमराह की थी। हमने उसे इस्तेमाल किया, उसे लोहा पहनाकर। वह निरपराध था। इतिहास के हर कालखंड में, और यहां उत्तराखंड में भी। शक्तिमान निर्दोष था।

(दून पुलिस के 'शक्तिमान' को भावभरी श्रद्धांजलि)

धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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