विज्ञापन
This Article is From Feb 22, 2018

...क्योंकि मैं एक वैकल्पिक मनुष्यता चाहता हूं

Deviprasad Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 22, 2018 14:02 pm IST
    • Published On फ़रवरी 22, 2018 14:02 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 22, 2018 14:02 pm IST
बीते साल हिन्दी के सुख्यात कवि देवीप्रसाद मिश्र के साथ दिल्ली की एक सड़क पर दो लोगों ने मारपीट की - बस, इसलिए कि वह सड़क पर अभद्र ढंग से मूत्र विसर्जन करने से उन्हें मना कर रहे थे. आहत कवि ने पुलिस की मदद ली, हालांकि बाद में उन्हें लगा कि उनके साथ हुई हिंसा उस व्यापक हिंसा का हिस्सा है, जो लगातार हमारे बर्बर समय में स्वीकृत होती जा रही है. उन्होंने अदालत में केस वापस ले लिया, उन्हें माफ किया. लेकिन अब ठीक एक साल बाद इसकी वजह बताते हुए यह टिप्पणी लिखी है...

अदमनीय संदेह, घृणा और हिंसा की इस अकाल वेला में एक मानवीय सूचना बंधुओं के साथ साझा करना चाहता हूं - एक साल पहले, 22 फरवरी को मेरे साथ दो महानुभावों ने इस कारण गाली-गलौज और हिंसा की थी कि मैंने कंडक्टर को डीटीसी बस को खड़ा कर सड़क और फुटपाथ के बीच खुले में, आते-जाते लोगों की तरफ मुंह करके पेशाब करने पर ऐतराज़ किया था. इन दोनों पर FIR के बाद मुकदमा कायम हुआ, लेकिन मैंने पहली अदालती पेशी में उनके विरुद्ध दायर किए गए मुकदमे को वापस ले लिया, जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया.

अदालत के सामने दिए अपने छोटे-से वक्तव्य में मैंने कहा कि इनके जेल जाने का मायने होगा, इनकी सामाजिक हैसियत में बट्टा, और इस तरह इनके परिवारों में टूट-फूट. दरअसल ड्राइवर और कंडक्टर के हिंसक उचक्केपन की वजह से परिवारों का ध्वस्त होना मेरे लिए निरंतर गहरी दुराशा और मानसिक यातना की वजह रहा था. उनका जेल जाने का मायने यह था कि उनके जीवन को लेकर एक ऐसी क्रूरता होती, जो मेरे प्रति दिखाई उनकी क्रूरता से कहीं अधिक गहरी और चोटकारी होती. मैंने अदालत से यह भी कहा कि कविता का जो कारोबार मैंने पूरे जीवन किया है, उसमें हर एक की मनुष्यता को पहचानने का काम बुनियादी और प्राथमिक रहा है. अंधी और धुरीहीन हिंसा का प्रतिरोध और आदमी को मनुष्यता की ओर ले जाने का काम कविता के मूलगामी कर्तव्यों में से एक है. इन दो महानुभावों की आपराधिक हिंसा को रेखांकित करने के बाद मैं इनको पश्चात्ताप और बेहतर आदमी बनने की कोई भी राह खोलने के लिए लगभग कटिबद्ध था.

मैंने अदालत के सामने साफ किया कि यह क्षमादान किसी वित्तीय लेनदेन का हिस्सा नहीं है - वह हो नहीं सकता. उसकी गुंजायश ही नहीं थी. यह फैसला अंत:करण का मसला है और एक बड़े आग्रह का छोटा-सा हिस्सा.

मैंने कंडक्टर और ड्राइवर में पश्चात्ताप देखा. यह मेरे लिए नैतिक जीत जैसा था.

मैं कहना यह चाह रहा हूं कि एक मामूली-सी बात पर मारपीट की जो कार्रवाई उन्होंने की, वह वातावरण में फैली हिंसा का एक प्रतिफलन था. इशारा मैं यह करना चाह रहा हूं कि गांधी ने राजनीति में एक सात्विक पारस्परिकता का निर्माण किया था, जिसके असरात सामाजिक जीवन में दिखा करते थे. वह अहिंसा की अमूर्तता का बड़ा निर्माण और वृहत् सामाजिक वितरण था, लेकिन स्वातंत्र्योत्तर भारत में भारतीय राज्य, जिसका निर्माण बंटवारे से उपजे वैमनस्य की छाया में हुआ था, संदेह और अमर्ष और तनाव का धुआं फैलाने लगा. इसके बाद नक्सलपंथ, कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्य और हिन्दू-मुसलिम तनाव और तमाम तरह के विरोधों से निपटने के लिए राजनीतिक मेधा चुक गई तो सेना-पुलिस की तैनाती ही विकल्प बची. हाल के सालों और दिनों में राज्य सैन्यवादी होता गया है, जिसमें धार्मिक उग्रता प्रगाढ़ हुई है. राजनीतिक वर्ग का पतन और भ्रष्ट नौकरशाहों की खेप की खेप ने इस मर्ज को विकराल बना दिया है.

इसीलिए मैं यह बात बहुत शिद्दत के साथ कहता रहा हूं कि भारतीय राज्य चूंकि सामाजिक सौमनस्य के समान वितरण के कार्यभार से विरत है, तो वह हिंसा और संदेह का समान वितरण करता रहा है. हिंसा एक कारगर साधन और उपकरण में तब्दील हो सकता है - राजनीतिक वर्ग ने यह प्रमाणित कर दिया है - इसके ज़रिये सत्ता में आकर और अपने लिए इसकी उपयोगिता प्रदर्शित करके. एक अर्द्धसैन्यवादी, पुलिसिया, पूंजीपरक, प्राधिकारवादी राज्य समानता के विचार का समान वितरण नहीं कर सकता, क्योंकि वह मूल रूप से ऊंच-नीच, धार्मिक वैमनस्य की मूलगामी विषमता की अनैतिकता पर आधृत है. ज्ञान का समान वितरण भी वह नहीं कर सकता, लेकिन संदेह, बर्बरता, भय, भीड़त्व और प्रतिहिंसा को वह बखूबी लोगों के बीच बांट सकता है. भारतीय राज्य पिछले काफी समय से भीड़ की हिंसक पारस्परिकता का विचार लोगों के बीच बांटता रहा है. कांग्रेस ने एक समझौतावादी भ्रष्ट राज्य और उसकी नागरिकता का निर्माण किया. इस नागरिकता को बर्बर बनाने का काम नया राजनीतिक निज़ाम कर रहा है. कंडक्टर और ड्राइवर की हिंसा कमोबेश उसी विद्रूप हिंसा का कोई नतीजा थी. यंत्रणा के इस दौर में मैंने जो कविताएं लिखीं, उनमें से एक इस तरह से थी...

हमने कांग्रेस-जनसंघ-संसोपा-भाजपा-सपा-बसपा-अवामी लीग-लोकदल-राजद-हिन्दू महासभा-जमायते इस्लामी
वगैरह वगैरह के लोंदों से जो बनाया
वह भारतीय मनुष्य का फौरी पुतला है
मुझे भूरी-काली मिट्टी का एक और मनुष्य चाहिए
मुझे एक वैकल्पिक मनुष्य चाहिए।


ऐसे ही दूसरी कविता में एक हिंसक राज्य की डरावनी भूमिका का भान होता है...

राज्य
संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के अनुरूप
आय का समान वितरण न कर सका
तो उसने क्रूरता का समान वितरण कर दिया
जो मुझे सड़क पर मारने आता है, वह कुछ वैसा ही बर्बर है
जो मुझे नहीं बचाता, वह अधिक बर्बर है
मेरे पास वहां से निकल भागने की कातर हिंसा है, मैं उसका इस्तेमाल शायद अपनी स्त्री के विरुद्ध करूंगा
पारस्परिक क्रूरता की यह बहुत लंबी रात है जहां
नागरिकता नहीं, राज्य का कोई तिलिस्मी स्थापत्य सुरक्षित है


दिल्ली में आकर हिंसा का यह रूप अधिक चटख हो जाता है –  इसमें जाटलैंड की मर्दमूलक समाज संरचना नागरिकता को सामंती, बहुत कम लोकतांत्रिक, असांस्कृतिक, पितृसत्तात्मक और बर्बर बनाती है. तुरंत न्याय कर देने का खाप पंचायती दिमाग दिल्ली के सामूहिक अवचेतन का हिस्सा रहा है. लिंच करने, घेरने का मानस हमारी संरचना में प्रगाढ़ होता जा रहा है. हमें सोचना तो पड़ेगा कि मनुष्य समूह के तौर पर हमारी नियति घेरकर मारने वालों की नाज़ी नियति है या कि हममें घेरकर बचाने का उन्माद भी बचा है. हम मारने के लिए नहीं, बचाने के सामाजिक स्त्रोतों की तलाश करें.

पचासी साल के मेरे पिता ने जब पिछले दिनों NDTV पर मुझे श्री रवीश कुमार से बातचीत के दौरान यह कहते हुए सुना कि मैं अपने प्रपीड़कों को माफ करने के मानस से संचालित हूं, तो उन्होंने फोन करके मुझसे कहा कि यह तुमने अच्छा फैसला किया है. जान पड़ता है कि उनके मन में भी उन प्रपीड़कों को लेकर प्रतिकार जैसा कुछ था भी, तो वह एक वृहत्तर मनुष्यता से ज्यादा संचालित थे, जो चाहती है कि किसी का मूलगामी अहित न होने पाए. यही बात कई दूसरे बंधुओं ने भी कही कि 'आंख के बदले आंख' वाला न्याय हमेशा ज़रूरी नहीं.

जिस दिन हिंसा का यह हादसा हुआ, मैं पैदल आ रहा था अपने लिखे हुए पहले उपन्यास और किसी न लिखी कविता के बारे में सोचता हुआ. उस दिन की हिंसा के बाद बहुत विषण्ण होने के बावजूद उस उपन्यास पर मैं काम करता रहा. लेकिन उस पर काम करने से ज्यादा मैं एक नए उपन्यास के बारे में भी सोचता रहा, जो इस घटना के इर्द-गिर्द घूमेगा - क्रूरता क्यों है, क्यों लोग बचाने नहीं आते, हमारे पास क्यों प्रतिरोध की दैनंदिन आवाज़ें नहीं हैं. मैं इसमें क्रूरता, लोगों की उदासीनता, मध्यवर्ग की तटस्थता ग्रंथि की जांच करना चाहता हूं. इस लिखे पर मैं फिल्म भी बनाना चाहता हूं. हमारी विपत्तियों में इतनी ताकत नहीं होनी चाहिए कि वे हमें निरीह कर दें या खत्म हो जाने दें. वे आएं, लेकिन हमें पराजित नहीं, प्रकाशित करके जाएं.

मेरी टोका-टाकी, जो सड़क पर चलती रहती है, वह कविता में है ही. सड़क पर मैं छोटे-छोटे अन्यायों, झगड़े-झंझट को लेकर किसी हस्तक्षेप या किसी बड़बड़ाहट में मुब्तिला होता हूं और कविता में राज्य की भयावहता का वृत्तांत लिखता रहता हूं, उसके कम क्रूर होने की मांग करता. दोनों ही जगहों पर पिटने की आशंका बनी रहती है.

देह प्रेम के काम आती है।
वह यातना देने और सहने के काम आती है।
पीटने में जला देने में
आत्मा को तबाह करने के लिए कई बार राज्य और धर्म
देह को अधीन बनाते हैं
बाज़ार भी करता है यह काम
वह देह को इतना सजावटी बना देता है कि
उसे सामान बना देता है
बहुत दुःख की तुलना में
बहुत सुख से खत्म होती है आत्मा


इस विषम दौर में जिस दिन मेरी देह के दंडित होने की संभावना खत्म होगी, वही मेरे मनुष्य और कवि के मृत होने का भी दिन होगा. तब यह कहना भी पड़ेगा कि 'क्यों इंकलाबी इम्तिहां में फेल हो गया. मरना था एक बार, मैं दो बार मर गया...' और यह बात मैं दुनिया के सबसे बड़े कवि गालिब के कहन का अनुकरण करते हुए ही कह सकता था.

देवीप्रसाद मिश्र हिन्दी के सुख्यात कवि हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com