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गोगी सरोज पाल की चित्रकला में नियति, प्रारब्ध और कथाएं

Poonam Arora
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    June 21, 2024 16:37 IST
    • Published On June 21, 2024 16:37 IST
    • Last Updated On June 21, 2024 16:37 IST

स्त्री पक्ष के जिन आयामों को जिस पारखी दृष्टि से चित्रकार गोगी सरोज पाल ने कैनवस पर उतारा है, उससे कई दुविधाएं तो कम से कम दूर हो जाती हैं कि स्त्री संभावनाओं और सीमाओं के मध्य स्वयं को पहचानने में कभी गलत नहीं होती. वह सहचर भी है और अबोध भी और अगाध भी, लेकिन इसका निर्णय अक्सर पितृसत्ता करती है. चित्रकार ने मनुष्य और पशु के सम्मिलित आकारों को निर्मित कर स्त्री के प्रत्येक भाव को भय से मुक्त करना चाहा है. मैं इसे किसी तरह का प्रयास नहीं कहूंगी, बल्कि सचेत और सतत प्रकिया कहूंगी, जिसके मंथन से न विष प्राप्त हुआ, न अमृत, क्योंकि स्त्री न तो नर्क का द्वार है, और न स्वर्ग की चेष्टा.

यहां मैंने गोगी सरोज पाल के चित्रों में कुछ कथा-सूत्र पहचाने, जिन्हें मन के शब्द देने का प्रयास किया है.

काया और माया

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जैसे रंग मनोभावों का अतिक्रमण करते हैं और शोर एकांत का, उसी तरह का उल्लंघन जल भी करता है. जल की अतिरिक्त अपेक्षा रंगों से संवाद का एक जाल बुनती है. उनमें धीरे-धीरे कदम रखते हुए सामूहिक अतिक्रमण की क्रियाओं में संवादों के ठोस, लेकिन मृदुल बिंदुओं को रच देती है.

यह भी कैसा संसार है, जहां जीवन की मुद्राएं साक्षात भी और अस्पष्ट-सा ईश्वर बन माया रूप में साथ-साथ चलती हैं. काया नग्न हो सकती है, लेकिन नग्नता के प्रति रंग का संदेश शुभ को आलक्षित करता है.

जैसे काया ने अपनी माया को रंगों के वस्त्रों से ढक लिया हो, लेकिन माया ने काया के अंगों का उन्माद रच दिया हो.

लोप

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अकारण नहीं कि मैंने कई बार ऐसा विश्वास करना चाहा कि स्त्रियां अपनी पूर्वज पीढ़ी के रंग ओढ़ती हैं अक्सर. उनकी पोशाकों से उनकी अदृश्य देह का कभी पता नहीं लगाया जा सकता. उनकी स्मृतियों को पहचानना किसी जटिलतम कार्य से थोड़ा-सा और जटिल मान लीजिए, बस इतना ही.

वे राग में मौन हो जाती हैं और अनुराग में लोप.

स्त्रियों के पास स्मृतियों का इतना विशाल भंडारगृह होता है कि उन्हें गांव-शहर की गलियां ठीक से याद नहीं हो पातीं और दूर देश के रिवाज़ों को वे भूलवश अपने देश में सींचने लगती हैं.

स्त्रियां आत्मीयता का द्वार और शक्ति की पशु-देह होती हैं, जैसे सारा अजन्मा संसार वे अपने गर्भ में और जन्मा हुआ आभास गोद में सहेज लेंगी. सोचती हूं, उन्हें कोई भी रंग पहना दो, तो भी वे एक रंग अपनी आंखों में छुपाकर रख सकती हैं.

श्वेत-श्याम

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उस स्त्री की ओर कभी मत देखो, जो करुणा की आसक्ति में हो. जिसकी ग्रीवा पारदर्शी हो और श्वास नाभि तल को छूती हो. वह अपने प्रारब्ध की सुकोमल दृश्यवाहिनी बन एक अन्य संसार (नियति) में हो सकती है और किसी छोटी-सी आहट से कांप भी सकती है.

देखना सुनियोजित बंधन भी हो सकता है.

देखना रंगों के प्रति शाप भी हो सकता है.

उस स्त्री को कभी मत देखो, जो अपने किसी प्रिय के बिछड़ने की पीड़ा को आंखों से बहा रही हो और वह पीड़ा किसी कुत्ते के स्पंदनों में घुल रही हो.

उसे ठोस ईश्वर से बात करने दो. उस ईश्वर के तरल होने की अपनी यात्रा है.

इल्हाम

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रक्त की भी स्मृति होती है, जैसे जल ने सभ्यताओं की स्मृतियों को अपने गर्भ में पोषित किया.

स्त्री का निर्माण भी स्मृति द्वारा होता है और वह स्वयं ही अपनी स्मृतियों से अपना निर्माण करती है.

सुना है...?

स्त्री नेत्रों द्वारा आह्वान करती है. देह द्वारा अनुष्ठान और रिक्ति द्वारा इल्हाम पाती है.

स्त्री को पुकारने के लिए स्वर का तो जन्म होता है, लेकिन कंठ नहीं जन्म पाते. स्त्री के सबसे उदास दिनों को सबसे गहरे रंग इसलिए ही ओढ़ा दिए जाते हैं कि वह अपनी आंखों से झुठला सके स्वयं को.

कापित्ता

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कई बार स्वप्न नींद के आखिरी पहर में टूट जाते हैं. उससे पहले उलझी रहती हूं स्वप्न के आईने में. मैं अब से पहले यह नहीं जान पाई कि आईनों के भ्रम तोड़ने ही होते हैं. अब जब तोड़ती हूं, तो रक्त की बूंदें मेरा होना बुझाने लगती हैं.

मेरा आकाश बन रहा है धीरे-धीरे, लेकिन मैं अंधेरे और उजाले के ग्रहण में खिंची जा रही हूं.

मेरा सौंदर्य निर्मित हो रहा है धीरे-धीरे, लेकिन मैं अभी भी नहीं भूलती, बीत जाने को बीतते देखना.

मैं नृत्य की एक हस्त-मुद्रा बनाती हूं 'कापित्ता' और देर तक उसी मुद्रा में समर्पित रहती हूं. मैं आकार लेने लगती हूं उसी हस्त-मुद्रा का और बारिश रुकने की आस करने लगती हूं.

पूनम अरोड़ा 'कामनाहीन पत्ता' और 'नीला आईना' की लेखिका हैं... उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी पुरस्कार, फिक्की यंग अचीवर, और सनातन संगीत संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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