मृत्यु ही अंतिम सत्य, अंतिम सत्य छुपाती सरकार

अक्सर आपने देखा होगा कि क्लास रुम में जो छात्र होमवर्क कर नहीं जाता है वो इसी जुगाड़ में रहता है कि मास्टर की नज़र उस पर न पड़े और जल्दी कक्षा ख़त्म होने की घंटी बज जाए. लगता है सरकार की भी यही हालत हो गई है. गोदी मीडिया कोशिश तो कर रहा है कि डिबेट का कोई ऐसा टॉपिक मिल जाए कि नया हंगामा खड़ा हो, जनता उसमें उलझ जाए मगर हो नहीं पा रहा है.

अक्सर आपने देखा होगा कि क्लास रुम में जो छात्र होमवर्क कर नहीं जाता है वो इसी जुगाड़ में रहता है कि मास्टर की नज़र उस पर न पड़े और जल्दी कक्षा ख़त्म होने की घंटी बज जाए. लगता है सरकार की भी यही हालत हो गई है. गोदी मीडिया कोशिश तो कर रहा है कि डिबेट का कोई ऐसा टॉपिक मिल जाए कि नया हंगामा खड़ा हो, जनता उसमें उलझ जाए मगर हो नहीं पा रहा है. मैं रोज़ इसलिए बताता हूं ताकि आपको पता रहे कि इन दिनों व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में मुस्लिम विरोधी मैसेज की भरमार हो रही है. आपको सांप्रदायिक ताव में लाने की कोशिश हो रही है. नफ़रत करने के लिए तर्क और तर्क करने के लिए नफरत का सहारा मत लीजिए. आपने चंद हफ्ते पहले देखा था कि क्या हिन्दू क्या मुस्लिम सब एक दूसरे की मदद में लगे थे और सरकार नदारद थी. इस सांप्रदायिकता से आपको क्या मिला. क्या अपनों की जान बचा पाए, अस्पताल में ऑक्सीजन बंद हो गया और जब लोग मरने लगे तो आप उन्हें बचा पाए, सिलेंडर मिला? वेंटिलेटर मिला? अस्पताल मिला? हर परिवार में या उनकी रिश्तेदारी में लोग मरे हैं. आप तो यह भी नहीं जान पा रहे हैं कि कोविड से कितने लोग मरे.

दोस्तों, सुख में केवल झूठ है. झूठ के इतने पहरेदार और चौकीदार हैं कि हर झूठ सर पर नाच रहा है. आज किसी झूठ को कोई तक़लीफ़ नहीं है. हर झूठ का ख़्याल रखा जा रहा है. मुफ्त राशन दिया जा रहा है. सारे झूठ मिलकर मैं ही चौकीदार का गीत गा रहे हैं. सच के सारे रास्ते बंद हैं.

मामूली तर्कों के लिए कोई रास्ता नहीं मिल रहा. भारत में झूठ की ऐसी अविरल अय्याशी अकल्पनीय भी है. अभूतपूर्व भी है. अ से मेरे शब्द ख़त्म हो गए, अब न और ज से वाक्य बनाता हूं. पंचतंत्र में आपने सुना होगा, जब नीयत साफ नहीं होती है, नीति अस्पष्ट होती है, निरंतर परिश्रम का अभाव होता है तब नतीजे में जनता को जान गंवानी पड़ती ही है. लाशों को ग़ायब कर, उनकी गिनती कम करनी ही पड़ती है.

पटना दैनिक भास्कर रिपोर्ट में सुर्खियां चीख रही हैं कि सरकार ने मरने वालों की संख्या 72 प्रतिशत छिपाई थी. बिहार सरकार के ऑडिट के बाद कोविड से हुई मौत के मामले में बिहार अब 16वें नंबर से 12वें नंबर पर आ गया है. 8 जून को पूरे बिहार में मरने वालों की संख्या 5,424 थी जिसमें 3,951 और जोड़ा गया है. इस तरह बिहार में कोविड से मरने वालों की संख्या 9,375 हो गई है. हालांकि स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक़ ये संख्या इस से भी अधिक है और बिहार में 9429 लोगों की मौत हुई है.  3 जून को पटना भास्कर के राकेश रंजन, आलोक कुमार और उनकी टीम ने बताया था मई के महीने में पटना शहर के तीन श्मशानों में ही 1648 शवों का अंतिम संस्कार हुआ है. जबकि सरकारी आंकड़ा 446 का है. करीब 73 प्रतिशत कम संख्या बताई गई. नई संख्या के हिसाब से पटना में कोविड से मरने वालों की संख्या 2303 हो चुकी है जो कि पहले 1229 थी. भास्कर ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि पटना में मरने वालों की संख्या 5000 तक जा सकती है. सरकार करीब 2300 बता रही है.

पटना राजधानी है. यहीं के लोगों से छिपाया गया कि कितने लोग मरे हैं कोविड से. दावे से कोई नहीं कह सकता कि नई संख्या सही संख्या है. बिहार के 38 ज़िलों में मरने वालों की संख्या 72% बढ़ गई है. 7 जून को कैमूर ज़िले में 44 लोगों की मौत हुई थी. इसे सुधार कर अब 146 कर दिया गया है. 231 प्रतिशत संख्या बढ़ी है. इस तरह से हिसाब लगा कर देखिए कि मार्च अप्रैल और मई के महीने में कितनी संख्या छिपाई गई. सहरसा ज़िले में 225 प्रतिशत संख्या बढ़ गई है. बेगुसराय में 7 जून तक कोविड से मरने वालों की संख्या 138 थी, 8 जून को 454 कर दी गई.

इसी हिसाब से आप सोचिए कि देश के स्तर पर क्या हाल होगा. बिहार सरकार को ऑडिट इसलिए करना पड़ा क्योंकि अदालत लगातार हलफनामा मांग रही है. उन हलफनामों में सरकार का झूठ बिना मेहनत के पकड़ में आ जा रहा था. बक्सर ज़िले में मरने वालों की संख्या में हास्यास्पद तरीके से अंतर पकड़ा गया. कोर्ट में राज्य के मुख्य सचिव अपनी रिपोर्ट में कोर्ट को बताते हैं कि बक्सर में 1 मार्च से 15 मई के बीच केवल 6 मौतें हुई हैं. पटना के कमिश्नर अपनी रिपोर्ट में कहते हैं कि पांच से पंद्रह मई के बीच बक्सर के एक श्मशान घाट पर 789 लाशें जलाई गई हैं. इस इस लेवल के झांसे दिए गए हैं. 

17 मई को पटना हाईकोर्ट की एक टिप्पणी से पता चलता है कि अदालत का धीरज भी जवाब देने लगा था. दोनों हलफनामों में मौतों के अंतर को देखकर चीफ़ जस्टिस संजय क़रोल और जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने कहा कि “जिस तरह से बक्सर में हुई मौतों के दो अलग अलग आंकड़ों के हलफ़नामे कोर्ट के सामने दाख़िल किए गए हैं हम हैरान हैं. कोर्ट को सरकार से सही और प्रमाणित आंकड़ों की उम्मीद है.”

अगर कोर्ट ने सक्रियता न दिखाई होती तो आप इतना भी नहीं जान पाते. कोविड से कितने लोग मरे इसकी सही संख्या भारत के लोग नहीं जानते हैं. इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है कि लोग मरे हैं यह जानते हैं मगर कितने लोग मरे हैं इसकी सही संख्या नहीं जानते हैं. गांव गांव में इसका ऑडिट होना चाहिए. बल्कि गांव के लोगों को टीम बनाकर खुद ही ऑडिट शुरू कर देना चाहिए. इस टीम में हर पक्ष के लोग हों. मुखिया को साथ लिया जाए. घर घर सर्वे हो. फिर एक लिस्ट बने. उस लिस्ट को गांव के बीच में टीन की चादर वाले होर्डिंग पर लिखा जाए. बैनर फ्लैक्स का न हो. नहीं तो आंधी में फट जाएगा. मरने वालों के नाम और मरने की तारीख लिखी जाए. यह भी लिखा जाए कि मौत अस्पताल के रास्ते में हुई, अस्पताल पहुंच कर बाहर ही हो गई या अस्पताल में हुई या घर पर हुई. गांव में मरने वालों की कुल संख्या लिखी जाए. अगर गांव के लोग ऐसा नहीं करेंगे तो दो लोगों को मुआवज़ा मिलेगा, बाकी लोग कोर्ट कचहरी में जीवन गंवा देंगे और मुआवज़े की राजनीति होती रहेगी. मुआवज़ा से ज़्यादा ज़रूरी है इस सच को जानना कि कोविड से कितने लोग मरे हैं.

लोग जानना चाहते हैं कि अस्पतालों की हालत खस्ता थी, ऑक्सीजन का समय पर क्यों नहीं इंतज़ाम हुआ था. लोगों के लाखों रुपये लुट गए. सरकारों को पता है कि गुस्सा होगा. इस गुस्से के लिए मुआवाज़ा आ रहा है. वो भी केवल चार लाख. 350 करोड़ मुआवज़ा बांटने की तैयारी हो रही है. कायदे से यह राशि किसी के लिए भी दस लाख से कम नहीं होनी चाहिए. लेकिन क्या हम तब भी जान पाएंगे भारत में कितने लोग कोविड से मरे हैं. जिनकी मौत कोविड से हुई और अस्पताल ने कोविड नहीं लिखा, उनका क्या होगा. यह भी सुनने में आया कि एक ज़िले का मरीज़ दूसरे ज़िले के अस्पताल में मरा तो उसे दोनों जगहों पर नहीं गिना गया. ऐसे कितने मरीज़ हैं. इसकी भी अलग से ऑडिट होनी चाहिए.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि कोविड के इलाज का खर्चा सरकार देगी. सरकार को बताना चाहिए कि कितने लोगों ने इलाज के खर्चे के लिए आवेदन किया है? कितनों को पैसा दिया गया है. बहुत सारे लोगों की रिपोर्ट निगेटिव आई लेकिन उन्हें कोविड था. इलाज कोविड का हुआ. क्या ऐसे लोगों के इलाज का खर्चा सरकार देगी.

कोविड से जुड़े सवाल इतने हैं कि उन्हीं का जवाब मांगते और पड़ताल करने में एक साल का समय कम पड़ जाएगा. आप जानते हैं कि मरने वालों की संख्या हर दिन के हिसाब से दी जाती है. क्या बिहार सरकार ने हर दिन के हिसाब से अपना डेटा सही किया है या टोटल में करीब 4000 और बढ़ा दिया है. इस सवाल का जवाब बहुत ज़रूरी है तभी पता चलेगा कि संशोधन के नाम पर कहीं फिर से धूल झोंकने की कोशिश तो नहीं हुई है. 

स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाइट पर कोरोना से मरने वालों की कुल संख्या 3,59,676 बताई गई है. अगर हम देश के आंड़ों में बिहार के नए आंकड़ों के हिसाब से इसमें 72 प्रतिशत बढ़ा कर जोड़ दें तो भारत में कोरोना से मरने वालों की संख्या 6,18,642 हो जाती है. अब भी आप दावे से नहीं कह सकते कि बिहार ने सही संख्या बताई है. बीएमसी हर महीने मरने वालों की संख्या में संशोधन करती है और नई संख्या बताती है.

इस सवाल को बार बार पूछते रहना होगा कि भारत सरकार कोविड के दौरान हुई मौतों की सही संख्या कब बताएगी. इसका पारदर्शी ऑडिट कब होगा. सरकार कब तक इस सवाल से दायें बायें होती रहेगी. पेरु जैसे देश ने जनता के सवाल करने पर मरने वालों की संख्या की जांच कराई और डबल की गई है. भारत में कांग्रेस शासित राज्यों ने भी एलान तो किया है लेकिन देखना होगा कि वे कितनी ईमानदारी से आंकड़ा सामने रखते हैं और कब रखते हैं. कितनी पारदर्शिता से रखते हैं.

11 जून को दैनिक भास्कर के चेतन पुरोहित ने अहमदाबाद सिविल अस्पताल का रिकार्ड खंगाल कर पोल खोल दी है. चेतन ने 10 अप्रैल से 9 मई के बीच मरने वालों का डेटा लिया. उनका अध्ययन किया और देखा कि अहमदाबाद के सिविल कोविड अस्पताल में 3,416 मौतें हुईं, जबकि इस दौरान सरकारी संख्या केवल 698 और पूरे गुजरात में 3,578 संख्या ही बताई गई. सोचिए किस लेवल पर मरने वालों का डेटा छिपाया गया है. एक अस्पताल में तीस दिन में 3416 लोगों की मौत हुई है. क्या यह डरावना नहीं है.

हमारी आंखों के सामने नदियों में लाशें बहती मिलीं. सरकार के झूठ को उजागर करने के लिए लाशों को ही बाहर आना पड़ा. लेकिन परंपरा के नाम बातों को उलझा कर सरकार बच निकली. संख्या पर पर्दा डाल दिया गया. उन ढाई महीनों के सच से पर्दा उठाने के लिए रिपोर्टर को बहती लाशों को गिनना पड़ा तो श्मशान में जाकर जलते शवों को गिनना पड़ा है लेकिन सरकार टस से मस नहीं हुई.

आप खुद से पूछें. क्या आप मरने वालों की संख्या को लेकर सरकारी आंकड़ों पर यकीन करते हैं? उस आंकड़े पर यकीन करते हैं जिसे सरकार हर दिन गंभीरता से जारी करती है. बिहार ने मरने वालों की संख्या 9000 से अधिक पहुंच गयी है इसके बाद भी ख़ामोशी है. कम से कम सरकार श्मशान में अंतिम संस्कार करने वालों की ही एक बैठक बुला ले. उन्हीं की आंख में आंख डाल कर कह दे कि उसका आंकड़ा सही है. श्मशान का आंकड़ा झूठ है. यह वो झूठ है जो समाज को अपराध बोध से भर देगा कि वह बोल नहीं सका कि मरने वालों की संख्या सही क्यों नहीं बताई गई. एक नागरिक की हैसियत क्या रह गई. 9 जून को उत्तराखंड हाई कोर्ट ने आदेश दिया है कि मरने वालों की संख्या का ऑडिट किया जाए और 21 जून तक रिपोर्ट सौंपी जाए. वहां के सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज़ फाउंडेशन ने एक रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के मुताबिक अस्पताल 24 घंटे के अंदर सभी मौतों की जानकारी सरकार को देने के बजाय कई-कई दिन बाद दे रहे हैं.

पिछले साल 17 अक्टूबर को अस्पतालों ने 89 बैकलॉग डेथ दिखाईं यानी पिछली तारीख़ में हुई मौतों की जानकारी दी. इस साल कोविड की दूसरी लहर के बाद 9 मई को 29 बैकलॉग डेथ दिखाईं, 14 मई को 65 और 17 मई को 87 बैकलॉग डेथ दिखाईं. 17 मई से हर रोज़ अस्पताल बैकलॉग डेथ दिखा रहे हैं. 8 जून को 53 बैकलॉग डेथ की जानकारी दी गई. क्या हमें इन्हें छुपाई हुई मौत नहीं कह देना चाहिए. कहते हैं कि मृत्यु ही अंतिम सत्य है और उस सत्य को अस्पताल और सरकार कैसे सुविधा के साथ छुपा लेते हैं. उत्तराखंड में कुल मिलाकर अस्पतालों ने 8 जून तक 868 बैकलॉग डेथ दिखाई हैं.

अस्पताल ऐसा आख़िर क्यों कर रहे हैं. क्या उन पर सरकार का दवाब है. ये मौतें अब तक क्यों छुपाई गईं और क्या मौतें इतनी ही हैं या फिर इससे कहीं ज़्यादा जिन्हें एक साथ बताने के बजाय ऐसे ही किश्तों में धीरे धीरे बताया जाता रहेगा ताकि लोगों को झटका न लगे और वो सरकार पर एकदम से बड़े सवाल न करने लगें.

प्रधानमंत्री ने मरने वालों की संख्या को लेकर कुछ नहीं कहा है. भारत का इतिहास दर्ज कर रहा है. अगर अकल्पनीय और अभूतपूर्व कुछ है तो अपने नागरिकों की मौत की संख्या छिपाना. 15 मई को प्रधानमंत्री की तरफ से एक बयान जारी हुआ था कि संख्या अधिक है तो अधिक बताई जाए तो फिर बताई क्यों नहीं जा रही है. किस चीज़ की संख्या बताई जाए प्रधानमंत्री के उस बयान में स्पष्ट नहीं है. कर्नाटक भी मरने वालों की संख्या में चार हज़ार जोड़ने जा रहा है. इसे भी बैकलॉग बताया जा रहा है. इस पर रुक कर सोचने की ज़रूरत है. कहीं संख्या को लेकर उठते सवालों पर कोई नया पर्दा तो नहीं डाला जा रहा कि बैकलॉग से डेटा सुधार कर दिया. क्या हम अब भी यही संख्या जानते हैं?

7 जून को सरकार ने बताया था कि भारत में ब्लैक फंगस के मरीज़ों की संख्या 28,252 है. कोई बहुत बड़ी संख्या नहीं है लेकिन इसके बाद भी ब्लैक फंगस के मरीज़ों को दवा नहीं मिल रही है. हमारे सहयोगी मनीष कुमार ने बताया है कि पटना के नालंदा मेडिकल कालेज में चार पांच मरीज़ों के लिए दवा दो दिन से नहीं है. पीएमसीएच में भी उपकरण नहीं हैं. यही नहीं इस अस्पताल में ब्लैक फंगस के आपरेशन के लिए ज़रूरी उपकरण भी नहीं हैं. इस मशीन को माइक्रो डेबराइडर कहते हैं. इसी के ज़रिए फंगस को हटाया जाता है. नालंदा मेडिक कालेज में तीन तीन माइक्रो डेबराइडर हैं लेकिन तीनों ख़राब हैं. इसके बिना ब्लैक फंगस की सर्जरी नहीं हो सकती है और सर्जरी के बिना इलाज का कोई मतलब नहीं है. कई साल पहले इन उपकरणों की सप्लाई हुई थी जो अब खराब हो चुके हैं. टेंडर निकला था लेकिन कंपनी को उपकरण देने में अभी कई दिनों की देरी लग सकती है तब तक यहां इलाज के नाम पर भगवान को याद कर रहे मरीज़ों का क्या होगा. यही नहीं सर्जरी के लिए ज़रूरी उच्च गुणवत्ता वाला कैमरा भी नहीं है. जेनोम लाइट नहीं है. कोविड के कारण अस्पताल के पास फंड है मगर उपकरण नहीं है.

क्या यह अकल्पनीय नहीं है, क्या यह अभूतपूर्व नहीं है? ब्लैक फंगस में मरीज़ की जान बचाने के लिए एक एक क्षण महत्वपूर्ण हो जाता है. और पटना के दो बड़े अस्पताल में ऑपरेशन करने के उपकरण नहीं हैं. मरीज़ों और उनके परिजनों पर क्या बीत रही होगी. यहां काम करने वाले डॉक्टरों की हताशा समझिए. वो क्या कर सकते हैं. लाखों रुपये के ये उपकरण अपनी जेब से नहीं खरीद सकते.

विश्व गुरु लेवल का देश दवा नहीं दे पा रहा है. सवाल पूछो तो जवाब में झूठ मिलता है. 24 मई को भारत सरकार ने कहा था कि लाखों वायल का आयात हो रहा है इसके बाद भी इसकी इतनी कमी है. दवा नहीं मिल रही है. यशस्विनी ने ट्वीट किया है कि तिरुपति में Liposomal Amphotericin B इंजेक्शन की ज़रूरत है. अर्जेंट है. चेन्नई में कोई मदद कर सकता है. शुमेंदु ने 17 साल के वी पेरिन कृष्णा के लिए ट्वीट किया है. विशखपटनम के अस्पतालम में 28 दिन के लिए ब्लैक फ़ंगस के 140 इंजेक्शन चाहिए. देहरादून में प्रियंका को अपने अंकल के लिए 60 इंजेक्शन चाहिए.

ये सारे मैसेज आज कल के हैं. आप प्रियंका, शुभेंदु और यशस्विनी के संघर्ष को समझिए. क्या आपको लगता है कि इस वक्त में इससे भी बड़ा कोई मुद्दा हो सकता है. ब्लैक फंगस के मरीज़ को हम दवा नहीं दे पा रहे हैं. केवल राष्ट्र के नाम संदेश दे पा रहे हैं. यह हमारा 23 वां एपिसोड है तभी उन ढाई महीनों की और उसके बाद के हम सारे पहलुओं तक नहीं पहुंच सके हैं. सोचिए एक न्यूज़ चैनल स्पीड न्यूज़ और डिबेट से आपके दर्शक होने की क्षमता को कैसे खत्म करता है. यह बात भी मुझी को बतानी पड़ती है. जब आप दर्शक के रूप में ही नहीं बचेंगे तो नागरिक के रुप में कैसे बच जाएंगे. जयपुर से एक डॉक्टर मनीष की व्यथा बताना चाहता हूं. वो कैमरे पर नहीं आ सके. जयपुर के मनीष कुमार की व्यथा को कैसे दर्ज करें, करना तो है ही. उनके एक भाई की कोविड से मौत हो चुकी है. दूसरे भाई को ब्लैक फंगस हो गया है.

मनीष ने बताया कि 29 मई को अपने भाई को लेकर जयपुर के सवाई माधोसिंह मेडिकल कालेज ले गए. वहां एडमिट करने से मना कर दिया गया. कहा गया कि अगले दिन सुबह लेकर आएं जब ब्लैक फंगस की ओपीडी शुरू होगी. मनीष अपने भाई को लेकर अगले दिन फिर गए. वहां कोई डॉक्टर नहीं था. इंटर्न थे. पूरा दिन टेस्ट करने में निकल गया और इलाज भी शुरू नहीं हुआ. फंगस आंखों में पहुंच चुका था. उसके बाद वहां से एक प्राइवेट अस्पताल लेकर गए. तब तक और देर हो गई. फंगस ब्रेन और जबड़े में पहुंच गया था. एक आंख निकालनी पड़ी. 20 लाख खर्च कर चुके हैं. भाई की उम्र 37 साल है. जब 12 इंजेक्शन की ज़रूरत होती है मिलता है 6. वो भी हर दिन नहीं मिलता है.

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आप इस परिवार की व्यथा समझिए. दवा नहीं है इस देश में. बीस लाख रुपये खर्च करने पड़े हैं. कहां से कोई पैसा देगा. सरकार क्यों नहीं ऐसे मरीज़ों की मदद करती है. न दवा दे पा रही है और न पैसा.