अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भारत अब वैश्विक तौर पर अपनी साख बचाने की समस्या से जूझ रहा है. ज्यादातर पश्चिमी अखबार (न्यूयॉर्क टाइम्स, ले मोंडे, वाशिंगटन पोस्ट, गार्डियन, लंदन टाइम्स आदि) किसान आंदोलन, कश्मीर, फ्री स्पीच, विरोध प्रदर्शन के अधिकार, अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव के रिकॉर्ड को लेकर सरकार के आलोचक रहे हैं और अभी भी हैं.
अब यह छिपा नहीं है कि ये आलोचना अब मीडिया समूहों के दायरे से फैलकर प्रभावशाली शख्सियतों तक पहुंच गई है. अमेरिकी और ब्रिटिश जनप्रतिनिधि भी इस मुद्दे पर बोल रहे हैं. कारोबारी हस्तियां और सोशल मीडिया सेलेब्रिटी भी इस मुहिम में शामिल हो रहे हैं.
इसके जवाब का एक रास्ता तो यह है कि ये सब मायने नहीं रखता. अगर तुर्की के राष्ट्रपति एरदोगान इस बात की चिंता नहीं करते हैं कि पश्चिमी देश क्या कहते हैं, या फिर उत्तर कोरिया, जहां पश्चिम की राय बेहद कम अहमियत रखती है. यहां तक कि रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन भी इससे कतई प्रभावित नहीं है कि पश्चिमी देशों में उनकी कैसी छवि पेश की जाती है.
मैं इस बात को लेकर कतई निश्चिंत नहीं हूं कि भारत के लिए यह विकल्प उपलब्ध होगा, क्योंकि दुनिया हमारे बारे में जो कहती है, हम उस पर ध्यान देते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया भर में काफी घूम चुके हैं और विदेशी नेताओं से बनाए गए रिश्तों को लेकर वह काफी गर्वान्वित हैं. उनके पहले कार्यकाल में, उनके समर्थक उनकी छवि ग्लोबल स्टेट्समैन के तौर पर पेश करते थे, जिससे भारत की वैश्विक साख बढ़ रही है. अमेरिका इस बारे में बेहद मायने रखता है. पीएम नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से व्यक्तिगत रिश्ते मजबूत करने के लिए काफी मेहनत की, यहां तक कि उन पर ट्रंप के दोबारा निर्वाचन के लिए प्रचार करने का आरोप भी लगा.
हजारों की संख्या में किसान दिल्ली की सीमाओं पर नवंबर से जमा हुए हैं और सरकार से तीनों कृषि कानून वापस लेने की मांग कर रहे हैं. ऐसे में अगर वैश्विक स्तर पर आलोचना होती है और यह मायने रखती है तो सरकार को इससे कैसे निपटना चाहिए ? क्या इसका सबसे स्पष्ट तरीका होगा कि आलोचना की बुनियाद को ही खत्म किया जाए या कमजोर किया जाए.
कश्मीर में ज्यादा मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाए. पंजाब के किसानों को खालिस्तानी के तौर पर पेश न किया जाए. मीडिया और पत्रकारों पर केंद्रित हमलों को रोका जाए. देशभक्त भारतीयों पर राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल न किया जाए. हास्य कलाकारों को उन जोक्स के लिए गिरफ्तार न करो, जो उन्हें कहे ही नहीं. लव जिहाद के पागलपन को बंद करो. लेकिन पिछले कुछ महीनों से यह एकदम स्पष्ट है कि सरकार अपने उस रुख में कोई बदलाव नहीं करना चाहती, जिस तरह से वह भारत को चला रही है. उनके समर्थक खुश हैं. प्रधानमंत्री की लोकप्रियता की रेटिंग ऊंची है. तो फिर रुख में बदलाव क्यों लाया जाना चाहिए?
और फिर भी, इसके दोनों तरीके नहीं हो सकते. अगर वे लगातार इसी रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो अंतरराष्ट्रीय आलोचना बढ़ेगी, जिसका जितना ज्यादा प्रतिरोध होगा, वह उतनी ज्यादा तीव्र होगी. और जब कि सरकार बड़ी मुश्किल से इस दुविधा से जूझ रही है, आलोचना को लेकर बिना सोचे समझे जवाब और गलत नसीहतों वाला गुस्सा सामने आया है, जबकि आलोचना को नजरअंदाज किया जाना चाहिए था.
मैं कनाडाई प्रधानमंत्री के बयान पर विदेश मंत्रालय की आपत्ति को समझ सकता हूं. जस्टिन ट्रूडेयू ने कूटनीतिक परंपराओं को तोड़ा था और अपनी आधिकारिक क्षमता का इस्तेमाल करते हुए किसानों के आंदोलन पर बयान दिया था. लेकिन क्या यह समझ पाने योग्य है कि अपनी राय रखने वाले अमेरिका के हर सांसद या सीनेटर के बयान पर प्रतिक्रिया दी जाए. इनमें से ज्यादातर व्यक्तिगत टिप्पणियां हैं. यही ब्रिटिश सांसदों के मामले में भी है.
ग्रेटा थनबर्ग, रिहाना और कई अन्य विदेशी हस्तियों ने भी भारत में किसानों के आंदोलन को लेकर ट्वीट किया था. अब हम ऐसे ट्वीट पर भी सरकार की ओर से प्रतिक्रिया देख रहे हैं, जो किसी भी पद पर बैठे लोगों की ओर से नहीं किए गए. विदेश मंत्रालय ने जिस तरह से सीएनएन की खबर का हवाला देने वाले रिहाना के ट्वीट पर बयान जारी किया, वह काफी हद तक हास्यप्रद है.
इस सच्चाई से परे कि नौकरशाह पॉप सेलेब्रिटी की बातों का जवाब देने में खुद को समर्थ नहीं पाते हैं, बयान इस गहन स्तर तक बोझिल भाषा में लिखा गया था कि मैं हैरत में हूं कि क्या किसी ने इसे पूरा पढ़ने का कष्ट उठाया होगा. इससे बदतर रहा है कि इसका अंत एक हैशटैग से हो रहा था जो भारत सरकार की ओर से जारी किसी बयान में पारंपरिक तौर पर दिखाई नहीं देता.
विदेश मंत्रालय की ऐसी प्रतिक्रिया को सिर्फ नौकरशाहों के अनजान क्षेत्र में दखल देने की कवायद का नतीजा माना जा सकता है. लेकिन इसके बाद जिस समन्वित तरीके से सोशल मीडिया अभियान छेड़ा गया, वह बेचैन करने वाला और हास्यास्पद था.
हास्यास्पद हिस्सा था कि सेलेब्रिटी को कुछ संदेश भेजे गए और उन्हें इसे पोस्ट करने को कहा गया. कुछ सेलेब्रिटी ने उसे जस का तस कॉपी पेस्ट करके ट्वीट कर दिया, जो साफ तौर पर दिखाई दे रहा था. इनमें से ज्यादातर ने उस संदेश के एक भी शब्द को बदलने की जहमत तक नहीं उठाई. अजीबोगरीब था कि ये उकसाने वाले ट्वीट अमेरिकियों की ओर से किए गए थे, लेकिन कई क्रिकेटर भी इस अभियान में कूद पड़े, जबकि अमेरिका के ज्यादातर हिस्सों में क्रिकेट लोकप्रिय नहीं है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार कह रही है कि वह किसानों से बातचीत करने को तैयार है, लेकिन कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी.
लेकिन बेचैन करने वाली बात, उस सुनियोजित तरीके की घृणा को लेकर है, जो फैलाई जा रही है. अमेरिकी उप राष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजा मीना हैरिस के पुतले जलाए गए. रिहाना, हैरिस और अन्य के खिलाफ आपत्तिजनक ट्वीट किए गए. जिस पैमाने पर और जिस स्तर पर प्रतिक्रिया दी गई, उसने निशाने पर आए तमाम लोगों को चौंका दिया. विडंबना है कि इसने उस मूल बात को साबित कर दिया.
अगर कोई भारत के खिलाफ कोई बात कहता प्रतीत होता है तो वे अधिकांशतया हिन्दुओं के उस उन्मादी समूह के प्रतिशोध के निशाने पर होंगे, जिनमें ज्यादातर स्त्री द्वेष रखते हैं. इससे भी बदतर होता है कि आप ऐसी उन्मादी भीड़ को सोशल मीडिया पर ऐसे बयान देने वालों के पीछे छोड़ देते हैं. ट्वीट से उठा यह बवंडर शायद एक दिन में शांत पड़ गया होता, लेकिन भावनाओं के ज्वार वाली प्रतिक्रियाओं ने इसे नया जीवन दे दिया है.
वास्तविकता यह है कि आलोचना शांत नहीं होगी. सरकार के समर्थकों द्वारा पश्चिमी मीडिया को भयभीत नहीं किया जा सकता. सरकार के पास एक ही विकल्प होगा कि वह इंदिरा गांधी के उपाय को आजमाए और कहे कि विदेशी भारत को अस्थिर करने का प्रयास कर रहे हैं. इससे सोशल मीडिया कंपेन भी बंद नहीं होगा. असलियत में सरकार के समर्थन जिस स्तर पर घृणा, अपशब्दों भरी और स्त्री द्वेष से भरी प्रतिक्रिया का सहारा ले रहे हैं, उससे आगे और भी बदतर कहानी देखने को मिलेगी.
सरकार के पास अब दो विकल्प हैं, या तो वह यह कह सकती है कि वैश्विक राय से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता या फिर वह साथ मिलकर काम कर सकती है. वह ज्यादा सहिष्णु, उदार चेहरा पेश करे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वैश्विक छवि की रक्षा करे. इसके अलावा कोई तीसरा रास्ता नहीं है.
(वीर सांघवी पत्रकार तथा TV एंकर हैं.)
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