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This Article is From May 29, 2015

प्रियदर्शन की बात पते की : केजरीवाल क्रांति के संकट

Priyadarshan
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 29, 2015 23:27 pm IST
    • Published On मई 29, 2015 23:19 pm IST
    • Last Updated On मई 29, 2015 23:27 pm IST
दिल्ली की केजरीवाल क्रांति कभी अपनों से उलझ रही है कभी दूसरों से। केजरीवाल जैसे सारे किले फतह करने पर तुले हैं लेकिन हर किले के बाद उनकी छवि की चमक कुछ फ़ीकी पड़ जा रही है। फिलहाल वो दिल्ली में अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं।

लेकिन जो हक़ की लड़ाई लड़ते हैं उन्हें नाहक दूसरों पर हमला करने से बचना चाहिए। सम्मान पाने की पहली शर्त ये होती है कि आप दूसरों का सम्मान करें। केजरीवाल सारे हक़, सारा सम्मान चाहते हैं लेकिन दूसरों को नहीं देना चाहते।

दिल्ली के मौजूदा झगड़े में भी उनका यही रुख़ दिखता है। नजीब जंग से टकराते-टकराते वो शकुंतला गैमलिन पर आरोप लगाने लगे और केंद्र सरकार की अधिसूचना के बाद क्वीन विक्टोरिया और वायसराय जैसी भाषा पर उतर आए। एक राज्य के चुने हुए मुख्यमंत्री को ये शोभा नहीं देता।

बेशक, दिल्ली को उसका हक़ मिलना चाहिए और दिल्ली विधानसभा और सरकार के पास वे प्रशासनिक अधिकार होने चाहिए जो दूसरी विधानसभाओं और सरकारों के पास होते हैं। लेकिन ये लड़ाई राजनीति और लोकतंत्र के दायरे में ही लड़ी जा सकती है। केजरीवाल अक्सर अपने अंदाज़ से इस लोकतंत्र को उसकी सीमाएं बताने लगते हैं।

वे स्टिंग, सख़्त कानून और सख़्त कार्रवाई की बात बहुत करते हैं, लेकिन अचानक अपनों के प्रति सदय हो जाते हैं। दूसरों पर आरोप लगाते हुए वे ये परवाह नहीं करते कि अदालत ने उनके बारे में क्या कहा है, लेकिन अपने किसी विधायक या मंत्री के बारे में अदालत के फ़ैसले की दलील देने लगते हैं।

बेशक, ये छोटी-मोटी राजनीतिक चालें हैं जो केजरीवाल से ज़्यादा उनके विरोधियों के यहां दिखाई पड़ती हैं। लेकिन तब दिल्ली की जनता ने किसी दूसरे पर इतना भरोसा नहीं जताया है जितना केजरीवाल पर जताया है। केजरीवाल ने राजनीतिक शुचिता का एक पैमाना बनाने की कोशिश की, तो इस पर उन्हें अमल भी करना होगा।

तब जो ताकत उन्हें कानूनी बाध्यताएं नहीं दे रहीं, वे उन्हें अपनी शख्सियत से हासिल कर पाएंगे। मुश्किल ये है कि अक्सर उम्मीद का आईना जितनी ऊंचाई से गिरता है, उतने ही ज़ोर की आवाज़ करता है। कहावत पुरानी है कि क्रांतियां सबसे पहले अपने बच्चों को खा जाती हैं। केजरीवाल को इस कहावत को भी गलत साबित करना है।

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