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This Article is From May 28, 2024

कश्मीर ने वोटिंग का रिकॉर्ड क्यों बनाया

Abhishek Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 28, 2024 13:44 pm IST
    • Published On मई 28, 2024 13:35 pm IST
    • Last Updated On मई 28, 2024 13:44 pm IST

जब पूरा देश लोकसभा चुनाव में ये बहस कर रहा था कि क्या-क्या हो सकता है... ठीक उसी दौर में कश्मीर में एक क्रांति हो गई. ये क्रांति वोटिंग की थी. 1985 के बाद पहली बार कश्मीर में अपनी मर्जी से वोट डालने के लिए लोग निकले. ऐसा पूरी घाटी में कई दशक बाद हुआ. चुनाव में ये उत्साह कश्मीर और मुल्क के लिए कई मायने रखता है. एक ऐसा राज्य जहां का चुनाव पड़ोसी पाकिस्तान एक मुद्दे के तौर पर दुनिया में दिखाता है, अब उसके लिए भी कुछ कहने और करने को इस बार नहीं था. बिना किसी शक के ये कश्मीरी आवाम की जीत है. वोट किसी भी नाम पर पड़े और किसी के लिए भी डाला जाए, चुनाव में हिस्सेदारी अनुच्छेद 370 हटने के बाद एक बड़ा कदम है. कश्मीर का चुनाव पूरे इंटरनेशनल मीडिया के लिए किसी सर्कस सा होता था. अलगाववादी पहले चुनाव के बहिष्कार का ऐलान करते और बाद में आतंकी संगठन कश्मीरियत के नाम पर खून खराबा करके इन चुनाव को एक संघर्ष के तौर पर दिखाते. ये सालों साल चलता रहा. इसलिए भी चलता रहा क्योंकि इसमें एक किस्म से सबकी रजामंदी थी. अब राजनीतिक माहौल बदला है, जो लोग सिर्फ और सिर्फ भावनात्मक मुद्दे उठाकर वोट नहीं होने देते थे वो राजनीतिक मंच से अब गायब हैं. नए लोगों को मौका मिल सकता है इस आस ने भी चुनाव के लिए माहौल बनाया है. 

1989 के बाद कश्मीर की लोकसभा सीट में पहली बार 38 फीसदी वोट पड़े. कश्मीर में एक तबका ऐसा भी है जो कह रहा है कि अब विरोध के रास्ते नहीं बचे हैं. आवाम ने दिल्ली में बैठी सरकार के खिलाफ सारे दांव चल कर देख लिए हैं.

उन्हें लगता है कि वोट ही अपनी बात और प्रदर्शन का तरीका है. अगर कुछ देर के लिए ये तर्क मान भी लिया जाए तो लोकतंत्र के पैमाने पर यही सही बात लगेगी. एक चुना हुआ नुमाइंदा ही तो ये बताएगा कि उसके वोटर पर क्या गुजर रही है. कश्मीर में एक दूसरा तबका भी है जो ये बता रहा है कि पत्थर फेंकने वाले प्रदर्शनों का जमाना जा चुका है. दिल्ली से अगर बात करनी है तो उसका सही रास्ता वोटिंग ही है. कश्मीरी सियासत में भी कुछ बदला है, जिसके चलते वोटिंग हुई है.  कल तक जिन सियासी परिवारों के बारे में माना जाता था कि वो दिल्ली के इशारे पर चलते हैं अब वो खुद को कश्मीरियों की आवाज़ बता रहे हैं. वो चुनाव के ज़रिए ये साबित करना चाहते हैं कि दिल्ली उनको बातचीत के लिए टेबल पर बिठाए. 

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कश्मीर की लोकसभा सीट में गन के साये में चुनाव होते रहे हैं. पुलवामा आतंक प्रभावित इलाकों में सबसे आगे हुआ करता था. यहां गन का आतंक इतना था कि घरों से वोट देना मुमकिन नहीं था. चुनाव कराने वाले डरते थे और वोट देने वाले उनसे ज्यादा. पिछले लोकसभा चुनाव में पुलवामा में सिर्फ एक फीसदी वोट हुआ. ये वोट भी कैसे गिरा ये एक पहेली बना था, क्योंकि चुनाव का मतलब डर था. 2024 के चुनाव में पुलवामा ने रिकॉर्ड तोड़ा है. अबकी बार यहां 43.39 फीसदी वोट पड़े. पुलवामा की कहानी ये भी बता रही है कि नए वोटर अब तर्क ढूंढ रहे हैं. पूछ रहे हैं कि चुनाव का बॉयकाट करके अब तक क्या मिला है.

दूसरा एक तबका कश्मीर में ये भी मानता है कि आम कश्मीरी के अंदर अब बेचैनी बढ़ी है. उसे लगता है कि लोकसभा चुनाव में वोटिंग आने वाले वक्त में उसके लिए विधानसभा का रास्ता भी साफ करेगा. कश्मीर में पिछले 10 साल से कोई चुनी हुई सरकार नहीं है. केंद्र ने सारे संकेत दिए हैं कि वो विधानसभा बहाल करने और फिर से जम्मू कश्मीर को राज्य बनाने के पक्ष में है. इस हकीकत को लेकर पिछले कुछ वक्त से लगातार आवाज उठ रही है. आम जनता के हर दिन के काम में स्थानीय विधायकों की बड़ी भूमिका है. अपने नुमाइंदे तक पहुंचना आम कश्मीरी को आसान लगता है. यही वजह है कि वो ये संकेत दे रहे हैं कि लोकसभा के बाद विधानसभा की बारी आनी चाहिए.

एक दूसरा बदलाव बारामूला में भी दिखा. इस सीट ने भी अपने इतिहास को हमेशा हमेशा के लिए बदल दिया है. बारामूला में ऐतिहासिक 59 फीसदी वोट डाले गए. ये सब तब हो रहा है जब सियासी नाटकीय घटनाएं नहीं हो रही हैं. क्या बारामूला, बडगाम, कुपवाड़ा में ऐसा कुछ हुआ है, जिसने वोटिंग पर भरोसा बढ़ाया है.



कश्मीर लोकसभा सीट में एक बड़ा बदलाव और दिखा...महिलाओं का लाइन में लग कर आगे आना. आतंकवाद के बाद से ये कल्पना करना भी मुश्किल था कि ऐसा वक्त आएगा कि कश्मीरी महिलाएं लोकतंत्र में हिस्सा लेंगी.

कुछ लोग ये तर्क दे रहे हैं कि पिछले चुनावों के उलट इस बार चुनाव और वोटिंग का सीधा प्रसारण किया गया. इसने कई लोगों की हौसला अफजाई की है. बारामूला वोटिंग के बाद केंद्रीय चुनाव आयोग ने भी कहा है कि विधानसभा चुनाव की भी जल्द तैयारी की जाएगी. वोटर के इस भरोसे को कोई अपनी वाहवाही के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता. वोटर ने सुरक्षा बल, सरकारों, अलगाववादियों और पाक समर्थित आतंकियों को एक साथ संदेश दिया है कि वो शांति के लिए वोट कर रहे हैं. वो किसी बायकाट के साथ नहीं हैं. उन्हें लगता है कि वोट करने की पहल अरसे से रुकी हुई थी. वोटिंक के हक का इस्तेमाल करके आम नागरिक ने कई अटकलों को भी खत्म किया है. आतंक के साए से निकल रहे कश्मीरी वोटर ने नई इबारत लिखी है. दिल्ली के लिए भी ये सही मौका है ये जताने का कि कश्मीरी आवाम की आवाज़ खाली न जाए.

अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं. वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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