"अब कोई भी घटना इतनी निरपेक्ष भी नहीं हो सकती है, अलग अलग भी नहीं, एक दूसरे से सबका संबंध होता है. हर एक घटना में पिछली किसी घटना से पड़ा बीज होता है. ये दार्शनिक चर्चा शुरू में ही इसलिए है क्योंकि गुड़गांव या गुरुग्राम में ट्रैफ़िक जाम की जो घटना होगी उस पर जैसी प्रतिक्रिया देखने को मिली या जो कवरेज मिला वो कुछ के लिए स्वाभाविक होगा और कुछ को अस्वाभाविक और उनके ऐसा महसूस करने के पीछे वजहों में कई पुराने रास्ते और वास्ते हो सकते हैं."
पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया दोनों को देखें तो पता चल जाएगा कि ये किनके लिए स्वाभाविक है. वो स्वाभाविक है उस मीडिया के लिए जिनके ज़्यादातर चैनल एनसीआर में स्थित हैं, जिससे आमतौर पर हमारी दृष्टि का दायरा एनसीआर के मैप से बाहर जाते जाते धुंधला हो जाता है. हमारी निजी चिंताएं और सरोकार स्थानीय ज़िम्मेदारी या सरोकार में तब्दील हो जाती हैं और वो ख़बर बनने लगती हैं. वहीं इंफ़्रास्ट्रक्चर पर दबाव तो पूरी कायनात पर है तो मीडिया इससे कैसे अछूता रह सकता है. तो इस एंगिल से ये कवरेज स्वाभाविक है.
गुड़गांव एक ऐसी जगह थी जहां की बिल्डिंगों को बैकड्रॉप में शूटिंग कर मैं कई ख़ूबसूरत गाड़ियों या मोटरसाइकिलों को और ख़ूबसूरत पाता था, वहां की सड़कों और साफ़ सुथरे पार्किंग लौट की हालत कुछ साल पहले तक ऐसी थी कि सस्ती मोटरसाइकिलों की मेरी एक स्टोरी का फुटेज देखकर मेरे सहयोगी ने पूछा था कि इतनी सस्ती बाइक को विदेशी लोकेशन पर क्यों शूट किया है? सच में ये अतिशयोक्ति नहीं है. लेकिन अब मैं वहां ग़लती से भी नहीं जाता क्योंकि सड़कों की हालत ऐसी ख़राब है कि पहुंचने निकलने में ही आपका पूरा दिन निकल जाता है. शूट कब करेंगे. उस शहर में मेरे दोस्त भी रहते हैं, लेकिन उनके घर पर जाकर उनसे मिले सालों गुज़र गए हैं. सच. इसका नतीजा क्या हुआ? कल रात ही मैंने ट्वीट ठोक दिया. त्राहिमाम-त्राहिमाम. निजी तौर पर भी मेरे लिए ये कवरेज स्वाभाविक है.
वहीं अपनी आईटी कंपनियों के लिए नामी गुड़गांव से वैसे भी उच्च मध्यम वर्ग ज़्यादा एसोसिएट करता है. उसका कोई ना कोई रिश्तेदार या फ़ेसबुक फ़्रेंड आईटी में ज़रूर होगा जो कभी ना कभी गुड़गांव में रहा होगा, जिसे गुरुग्राम से ज़्यादा समस्या हुई होगी. वो वर्ग आमतौर पर इन मुद्दों पर सोशल मीडिया में सबसे ज़्यादा मुखर होता है. तो ऐसे लोगों के लिए भी कवरेज स्वाभाविक है.
अब सवाल ये है कि ये कवरेज अस्वाभाविक किसे लग सकता है. हो सकता है बंगलूरु के लोगों को अस्वाभाविक लगे कि उनके शहर में भी तो घंटों ट्रैफ़िक जाम रहा, उनका दर्द उतना व्यापक क्यों नहीं हुआ कि कोई गुरुजाम की तरह बैंग-जैम पुकारे, गुड़गांव का गुड़गोबर के तर्ज़ पर बिग-बेंगलुरू थ्योरी बोले. उनके लिए गुड़गांव की समस्या का राष्ट्रीयकरण अस्वाभाविक हो सकता है.
हो सकता है असम के लोग भी इसे अस्वाभाविक मानें. जहां पानी के बढ़ने से अठारह लाख लोग प्रभावित हो गए हैं. डेढ़ से दो दर्ज़न जानें चली गई हैं. इंसान तो इंसान लाखों जानवरों की जान पर ख़तरा साफ़ हो गया है. ऐसे में उन्हें शायद अचरज हो इस कवरेज पर, ख़ासकर जब वो एयरटाइम या कॉलम स्पेस के हिसाब से दोनों ख़बरों की तुलना करें तो. लेकिन शायद वहां पर नेटवर्क और बिजली दोनों आउट होगा तो उनका मन इतना द्रवित नहीं हो पाया होगा.
वैसे सड़कों की जितनी डिज़ाइन को अब तक समझ पाया हूं, गुड़गांव में ट्रैफ़िक मैनेजमेंट की जो हालत देखी है और नियमों के पालन करवाने को लेकर प्रशासन में तत्परता दिखी है, उससे ये तो होना ही था. आज नहीं तो कल नाले फटने थे, सड़कें रुकनी थीं, लोग फंसने थे, बूढ़े-बच्चे तड़पने थे. ये किश्तों में होता रहा है, आज बड़ी ईएमआई निकल गई. लेकिन सच्चाई ये भी है कि अधकचरे विकास के नाम पर लोन तो हुक्मरानों ने लिए हैं और गारंटर में हमारा आपका नाम दे दिया है और याद रहे कि भुगतान केवल गुरुग्रामवासी नहीं करेंगे. सबकी बारी आएगी. चिंताओं को व्यापक करना पड़ेगा.
क्रांति संभव एनडीटीवी इंडिया में एसोसिएट एडिटर और ऐंकर हैं.
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