लेकिन बीजेपी-आरएसएस को ऐसा प्यार आया है कि वो संभाले नहीं संभल रहा है। उसी बीजेपी को जिसके मंत्री अरुण शौरी ने अंबेडकर के खिलाफ 'वर्शिपिंग फॉल्स गॉड्स' (Worshipping False Gods) नाम की किताब लिखी थी। और वही बीजेपी जिसकी यूपी की महिला मोर्चा की अध्यक्ष मधु मिश्रा ने हाल ही में कहा था, 'जिन्हें कभी हम बराबर बिठाना नहीं पसंद करते थे, जो कभी हमारी जूतियां साफ करते थे, आज वही हमारे ऊपर शासन कर रहे हैं। और कल हमारे बच्चे इन्हें हुजूर कहेंगे।'
लगता है कि बीजेपी अंग्रेजी की उस कहावत पर यकीन रखती है कि 'अगर आप किसी से प्यार करते हैं तो उसका इजहार भी कीजिए।' लिहाजा पीएम मोदी ने अंबेडकर जयंती पर महू में अंबेडकर रैली की, दलित सांसदों के साथ स्टैंडअप इंडिया लॉन्च किया, 26 नवंबर को संविधान दिवस घोषित कर दिया। अंबेडकर की तस्वीर वाले सिक्के जारी कर दिए, लखनऊ में अंबेडकर की अस्थियों पर फूल चढ़ाए, अंबेडकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला पर भाषण देते देते भावुक हो गए, वाराणसी के रविदास मंदिर में दलितों के साथ भोजन किया और महू रैली में तो एक चाय वाले के बेटे को पीएम बनाने का श्रेय भी बाबा साहब को ही दिया।
लेकिन देश की सबसे बड़ी दलित नेता मायावती उनसे नाराज हैं। यूपी के 21 फीसदी दलितों में ज्यादातर उनके साथ हैं। लेकिन यहां अगले चुनाव में मायावती से बड़ा दाव बीजेपी का लगा है जिसने यूपी में 80 में से 73 लोकसभा सीटें जीत ली थीं। लेकिन विधानसभा चुनाव में इससे भी बड़ी कामयाबी के लिए उसे मायावती के वोट बैंक में हिस्सा चाहिए होगा। इसलिए मायावती को लग रहा है कि बीजेपी-आरएसएस अंबेडकर से प्यार नहीं बल्कि 'लव जिहाद' कर रहे हैं।
इस शक की कुछ वाजिब वजहें भी हैं। मनु स्मृति एक अंदाजे के मुताबिक 200 ईसा पूर्व लिखी गई जिसमें कहा गया कि शूद्र खरीदा हुआ हो या नहीं, उसे दास बनना ही होगा क्योंकि परमात्मा ने उसका सृजन दास बनने के लिए ही किया है। सन् 629 में ह्वेन सांग भारत आया जिसने तब भी अपने सफरनामे में लिखा कि उसने शूद्रों के घर गांव दक्षिण में देखे थे। करीब 400 साल पहले भी गोस्वामी तुलसीदास ने उसे 'ताड़न के अधिकारी' बताया और 1930 में भी यही हो रहा था जब अंबेडकर को नासिक के कला राम मंदिर में घुसने नहीं दिया गया।
यही नहीं, पिछले महीने हम एक शूट के लिए बुंदेलखंड के एक गांव में उस गांव के प्रधान जो कि एक ब्राह्मण थे, उनके साथ खड़े थे। तभी तीन महिलाएं सर पर बोझा उठाए सामने से आती दिखीं। अचानक तीनों ने अपनी चप्पलें उठा कर सिर पर रख लीं। हमें हैरत हुई कि वो ऐसा क्यों कर रही हैं। बताया गया कि वो दलित हैं और गांव में ऊंची जाति के सामने चप्पल पैर में पहन कर नहीं गुजर सकते।
पिछले एक महीने से वो तस्वीर मेरी आंखों में चिपकी हुई है। मैं दलित नहीं हूं लेकिन उनका अपमान बहुत गहरे अपने अंदर महसूस करता हूं। लेकिन उपयोगिता का सिद्धांत सबसे ज्यादा सियासत में ही लागू होता है। मिसाल के लिए अंबेडकर को 1930 में नासिक के जिस कला राम मंदिर में घुसने नहीं दिया गया था उसके पुजारी रमदास के पोते ने कुछ वक्त पहले बीएसपी ज्वाइन करली। और तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार का नारा देने वाली मायावती की बीएसपी ने हाथी के गणेश होने की घोषणा कर दी। जंग और मोहब्बत के साथ-साथ सियासत में भी सब कुछ जायज है।
(कमाल खान एनडीटीवी में रेजिडेंट एडिटर हैं)
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