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प्रशांत किशोर: चुनावी रणनीतिकार… चुनाव में कितना 'असरदार' 

संजीव कुमार मिश्र
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 06, 2025 19:08 pm IST
    • Published On अक्टूबर 06, 2025 19:08 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 06, 2025 19:08 pm IST
प्रशांत किशोर: चुनावी रणनीतिकार… चुनाव में कितना 'असरदार' 

बिहार की राजनीति दशकों तक दो ध्रुवों में बंटी रही है. एक तरफ नीतीश कुमार और बीजेपी का एनडीए गठबंधन, तो दूसरी ओर लालू-तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाला महागठबंधन. गठबंधनों के बनने-बिगड़ने के इस खेल में मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उपेक्षित भी महसूस करता रहा है. इसी राजनीतिक ठहराव के बीच, चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) ने 'किंगमेकर' की अपनी भूमिका को छोड़कर सीधे चुनाव मैदान में ताल ठोंकने का फैसला किया. उनका 'जन सुराज' अभियान बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय लिखने की कोशिश कर रहा है. पीके के 'जन सुराज' का लक्ष्य 30 साल से स्थापित सत्ता के समीकरणों को चुनौती देना है.

चुनाव रणनीतिकार से नेता तक का सफर

प्रशांत किशोर को समझने से पहले उनका ट्रैक रिकॉर्ड जानना होगा. 2014 में नरेंद्र मोदी का चुनाव अभियान चलाकर बीजेपी को केंद्र में पूर्ण बहुमत दिलाना उनकी बड़ी सफलता थी. इसके ठीक बाद, 2015 में उन्होंने बिहार में नीतीश कुमार के गठबंधन को एक मुश्किल लड़ाई में जीत दिलाई. उनकी सफलता का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, तमिलनाडु में एमके स्टालिन और आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की ऐतिहासिक जीत में भी पीके का भी योगदान था. इन जीतों ने उन्हें एक ऐसे रणनीतिकार के रूप में स्थापित किया, जो चुनावी जीत का अचूक फॉर्मूला जानता है.

राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा आम है कि एक सलाहकार की भूमिका से निकलकर सीधे राजनीति में आने की उनकी इच्छा तब सामने आई, जब उन्होंने जनता दल (यूनाइटेड) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का पद संभाला. हालांकि, नागरिकता संशोधन कानून (CAA) जैसे मुद्दों पर नीतीश कुमार से उनके मतभेद इतने बढ़े कि उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया. यहीं से प्रशांत किशोर के सीधे राजनीतिक मैदान में उतरने की नींव पड़ी. 

पैदल ही चले 'पटना' की ओर

प्रशांत किशोर का 'जन सुराज' अभियान सिर्फ एक आंदोलन नहीं, बल्कि 3500 किलोमीटर से अधिक की एक महा-पदयात्रा थी. इस यात्रा में वे महीनों से गांवों में रहे, सीधे लोगों से मिले. यह केवल जनसंपर्क नहीं, बल्कि बिहार की नब्ज को समझने और एक नया संगठन खड़ा करने की कवायद थी. अपनी यात्रा के दौरान प्रशांत किशोर बड़े सुनियोजित तरीके से नीतीश समेत तेजस्वी यादव पर प्रहार करते थे. वे अक्सर उन मुद्दों को उठाते जिनसे जनता का सीधे सरोकार है. प्रशांत किशोर अपने भाषणों में कहते हैं, "30 साल के लालू-नीतीश के राज ने बिहार को देश का सबसे गरीब राज्य बना दिया है, और अब अपने बच्चों के भविष्य के लिए वोट देने का वक्त है." 

प्रशांत किशार अपनी जनसभाओं में ऐसे सवाल पूछते जो आम आदमी की रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़े हैं. जैसे- वे पूछते कि "क्या आपके बच्चों के लिए अच्छे स्कूल हैं? क्या पीने का साफ पानी मिलता है? क्या युवाओं को रोजगार मिला?" 

प्रशांत किशोर की सबसे बड़ी ताकत राजनीतिक बहस का रुख मोड़ने की उनकी क्षमता है. जिस बिहार में दशकों से राजनीति जाति के इर्द-गिर्द घूमती थी, वहां उन्होंने भ्रष्टाचार और विकास को एक केंद्रीय मुद्दा बना दिया है.

चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है. इस बार का चुनाव दो चरण में छह और 11 नवंबर को कराया जाएगा.

चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है. इस बार का चुनाव दो चरण में छह और 11 नवंबर को कराया जाएगा.

बेखौफ राजनीतिज्ञ की छवि

पीके ने केवल हवा-हवाई आरोप नहीं लगाए, बल्कि सबूतों के साथ बड़े नेताओं को घेरा है. उन्होंने उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी को 1995 के तारापुर नरसंहार से जोड़ा और अदालती दस्तावेजों के आधार पर उन पर उम्र में हेरफेर का आरोप लगाया. इसी तरह, उन्होंने ताकतवर कैबिनेट मंत्री अशोक चौधरी पर सरकारी ठेकों में भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए उनकी बेनामी संपत्ति का खुलासा करने की धमकी दी.

जब विरोधियों ने उनके अभियान की फंडिंग पर सवाल उठाए, तो पीके ने अपनी कमाई और चंदे का पूरा हिसाब सार्वजनिक कर दिया. उन्होंने बताया कि पिछले तीन सालों में उन्होंने कंसल्टेंसी से 241 करोड़ रुपये कमाए, टैक्स चुकाया और 'जन सुराज' को 98.5 करोड़ रुपये का दान दिया. इससे साफ है कि पीके पहले से ही पूरा होमवर्क करके रखते हैं. 

जाति का चक्रव्यूह

पीके की राह में सबसे बड़ी बाधा बिहार की जाति आधारित राजनीति है. यहां दशकों से राजद का ‘एम-वाई' (मुस्लिम-यादव) समीकरण और एनडीए का सवर्ण-अति पिछड़ा-महादलित गठबंधन चुनावी नतीजों को तय करता आया है. ऐसे में पीके को किसका वोट मिलेगा और उन्हें कितनी सफलता मिलेगी, इसके लिए हमें 14 नवंबर तक का इंतजार करना होगा.

पीके की छवि अभी भी एक कुशल रणनीतिकार की है, न कि एक लोकप्रिय नेता की. इसकी झलक कंबल विवाद से दिखती है, जिसमें उन पर गरीबों की मदद के बाद अहसान जताने का आरोप लगा.

संगठन और कार्यकर्ताओं का अभाव

एक मजबूत चुनाव लड़ने के लिए कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज चाहिए. पीके का मुकाबला दशकों पुराने संगठनात्मक ढांचे वाले दलों से है. उनका खुद को एक कमजोर विद्यार्थी कहना, जो परीक्षा की तैयारी पहले से कर रहा है, इस बात को स्वीकार करना है कि उनके पास अभी भी एक मजबूत जमीनी संगठन की कमी है.

उनके विरोधी पूछते हैं कि क्या वे सच में बिहार का भला चाहते हैं या किसी और पार्टी की 'बी-टीम' बनकर केवल वोट काटने आए हैं? 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए 303 सीटों की उनकी गलत भविष्यवाणी ने भी उनकी 'चाणक्य' वाली छवि को धक्का दिया है.

प्रशांत किशोर की रणनीति में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के शुरुआती दिनों की स्पष्ट झलक दिखाई देती है. जिस तरह केजरीवाल ने कांग्रेस और बीजेपी के खिलाफ भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाकर एक आंदोलन खड़ा किया और सत्ता हासिल की, उसी तर्ज पर पीके बिहार में राजद और एनडीए के 30 साल के शासन को निशाना बना रहे हैं. उनके आलोचक इसी समानता को आधार बनाकर उन पर सवाल उठाते हैं. उनका आरोप है कि पीके भी 'केजरीवाल मॉडल' की तरह लोकलुभावन वादे कर रहे हैं और सत्ता में आने के बाद वे भी उसी तरह जनता को धोखा दे सकते हैं, जैसे आरोप केजरीवाल पर लगते रहे हैं. यह तुलना उनकी विश्वसनीयता के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है.

नीतीश-तेजस्वी पर सीधा हमला 

प्रशांत किशोर की रणनीति बिहार के दो सबसे बड़े नेताओं पर एक साथ हमला करने की है, ताकि वे खुद को एक व्यवहार्य तीसरे विकल्प के रूप में पेश कर सकें. प्रशांत किशोर एक तरफ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर हमलावर हैं. मुख्यमंत्री की सुशासन बाबू की छवि पर लगातार हमला कर रहे हैं. उन्हें बिहार की भ्रष्ट सरकार का ईमानदार मुखौटा साबित कर रहे हैं. वहीं वो तेजस्वी यादव को पढ़ाई और वंशवाद के आरोपों से घेरते हैं. वो उन्हें नौंवी फेल बताते हैं. वों नीतीश और तेजस्वी को एक ही सिक्के के दो पहलू बताकर खुद को तीसरा विकल्प बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

वे नीतीश को बिहार की सबसे भ्रष्ट सरकार का ईमानदार मुखौटा कहकर उनकी पूरी सरकार को कटघरे में खड़ा करते हैं. इसके साथ ही वो नीतीश कुमार को शारीरिक रूप से थका हुआ और मानसिक रूप से अस्वस्थ बताकर उनकी प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठाते हैं. बार-बार गठबंधन बदलने की उनकी प्रवृत्ति पर हमला करते हुए पीके ने उन्हें 'पलटूराम' बता रहे हैं, जिससे उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता पर चोट की जा सके. वहीं दूसरी तरफ वो तेजस्वी यादव को उनकी सबसे कमजोर नस, यानी 'जंगल राज' की विरासत पर घेरते हैं. वे लोगों को लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन की याद दिलाते हैं और कहते हैं कि तेजस्वी की वापसी उसी दौर की वापसी होगी. पीके बार-बार तेजस्वी को '9वीं फेल' कहकर उनकी शैक्षिक योग्यता पर सवाल उठाते हैं और पूछते हैं कि जो खुद दसवीं पास नहीं कर सका, वह 13 करोड़ लोगों का भविष्य क्या संवारेगा. वो तेजस्वी को वंशवाद की राजनीति का प्रतीक बताकर एक ऐसे नेता के रूप में पेश करते हैं, जिन्हें राजनीति विरासत में मिली है, न कि उन्होंने इसे अपनी मेहनत से हासिल किया है.

बिहार चुनाव तय करेगा प्रशांत किशोर का भविष्य? 

बिहार विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर के लिए कई संभावनाएं हैं. सबसे यथार्थवादी संभावना उनके 'किंग मेकर' बनने की है. यदि 'जन सुराज' 10-15 फीसदी वोट के साथ 15-25 सीटें जीतने में कामयाब हो जाता है, तो त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में सरकार बनाने की चाबी उनके हाथ में होगी. एक दूसरी संभावना उनके 'स्पॉइलर' यानी वोटकटवा की होगी. अगर 'जन सुराज' ज्यादा सीटें नहीं भी जीत पाता, तब भी वह सत्ता विरोधी वोटों को बांटकर नतीजों पर बड़ा असर डाल सकता है, इससे किसी एक गठबंधन को अप्रत्यक्ष रूप से फायदा या नुकसान हो सकता है. इन सबसे अलग, सबसे महत्वाकांक्षी लेकिन मुश्किल लक्ष्य उनका खुद 'किंग' बनना है. प्रशांत किशोर दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की तरह एक चौंकाने वाली जीत की उम्मीद कर रहे हैं, जहां वे यह दावा करते हैं कि बिहार के 60 फीसदी से ज्यादा लोग बदलाव चाहते हैं. वे उस बदलाव का चेहरा बन सकते हैं. यदि ऐसा होता है, तो यह बिहार की राजनीति में एक ऐतिहासिक क्षण होगा.

प्रशांत किशोर का 'जन सुराज' अभियान बिहार की राजनीति में एक बड़ा और साहसिक प्रयोग है. 2025 के चुनाव के नतीजे चाहे जो भी हों, यह तय है कि उन्होंने बिहार की राजनीति के ठहरे हुए पानी में हलचल पैदा कर दी है. उन्होंने भ्रष्टाचार और विकास जैसे मुद्दों को बहस के केंद्र में लाकर स्थापित दलों को अपनी रणनीति पर फिर से सोचने के लिए मजबूर किया है. हालांकि, जाति का समीकरण और एक मजबूत संगठन की कमी उनकी राह की सबसे बड़ी बाधा हैं. उनका भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या वे बिहार की जनता को यह विश्वास दिला पाते हैं कि वे सिर्फ एक चुनावी रणनीतिकार नहीं, बल्कि एक ऐसे नेता हैं जो राज्य को एक बेहतर भविष्य दे सकता है.

अस्वीकरण: लेखक देश की राजनीति पर पैनी नजर रखते हैं. वो राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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