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This Article is From Sep 26, 2014

बाबा की कलम से : महाराष्ट्र में बवाल

Manoranjan Bharti
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  • Updated:
    नवंबर 20, 2014 15:08 pm IST
    • Published On सितंबर 26, 2014 17:16 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 20, 2014 15:08 pm IST

महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ है वह भारतीय राजनीति में अवसरवादिता की पराकाष्ठा है, जहां सभी इस उम्मीद में जीते हैं कि अब उनका ही नंबर आने वाला है। बीजेपी को लगा कि इससे सुनहरा अवसर और कब मिलेगा, जब पार्टी के कार्यकर्ता आत्मविश्वास से लबालब हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजों के अनुसार बीजेपी 130 विधानसभा सीटों पर आगे है। यदि बीजेपी के अपने सर्वे को मानें तो वह 100 का आंकड़ा छूने वाले हैं। ऐसे में अकेले लड़ने में ही बीजेपी ने भलाई समझी।

जब 25 साल पुराना गठबंधन टूट सकता है तो साफ है कि पार्टियों की सोच बदल रही है और बीजेपी बदल चुकी है। आपको याद दिला दूं कि 1984 के बाद प्रमोद महाजन ने बाल ठाकरे को इस बात के लिए मना लिया था कि शिव सेना बीजेपी के चुनाव चिह्न पर लड़े, क्योंकि उस वक्त शिव सेना के पास अपना चुनाव चिह्न नहीं था।

इसके ठीक 11 साल बाद 1995 में बीजेपी−शिवसेना गठबंधन सत्ता में आया। इस गठबंधन को बनाने वाले लोगों में बाल ठाकरे, प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे जैसे लोग अब नहीं हैं। न ही वाजपेयी सक्रिय हैं और आडवाणी बीजेपी की राजनीति में हाशिये पर आ गए हैं। फिर बीजेपी का नया नेतृत्व यह भी नहीं भूला होगा कि 2012 में बाल ठाकरे ने सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री के लिए अपनी पसंद बताया था।

ऐसे में उद्धव किस बात की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन राजनीति में कोई दुश्मन नहीं होता। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस वक्त के दुश्मन चुनाव के बाद फिर एक हो जाएं। लेकिन महाराष्ट्र में नए गठबंधन भी बन सकते हैं। बीजेपी और एनसीपी भी साथ आ सकते हैं। शिवसेना और एनसीपी का भी साथ हो सकता है। मगर वक्त इतना कम है कि आनन फानन में कुछ भी करना संभव नहीं है। जबकि सच्चाई ये है कि आज के दिन महाराष्ट्र में किसी भी पार्टी के पास 288 सीटों पर न तो संगठन का ढांचा है और न ही उम्मीदवार।

गठबंधन की गाठें खुलने के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में हाशिए पर जा चुके राज ठाकरे एकाएक महत्वपूर्ण हो गए हैं। यही वजह है कि उद्धव ठाकरे ने उन्हें फोन किया, तो क्या दोनों एक हो सकते हैं। राज को यकीनन कई और फोन गए होंगें, क्योंकि मुंबई में उनकी उपयोगिता हो सकती है। वजह साफ है कि चौतरफा मुकाबले में जीत का अंतर इतना कम हो जाता है कि दो−ढाई हजार वोट भी मायने रखेंगे।

एनसीपी की रणनीति भी साफ है। लगता है कि शरद पवार से अधिक अजीत पवार की चली है, जब से सिंचाई घोटाला आया है वह अपने आप को कांग्रेस के साथ असहज पा रहे थे। गाहे बगाहे एनसीपी के नेता यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि इस बार हमारा मुख्यमंत्री और यहीं बात टूट गई। ये बात भी कि कांग्रेस− एनसीपी को मालूम है कि लगातार चौथी बार सत्ता में आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। कांग्रेस को लगा कि इसी बहाने 288 सीटों पर लड़कर अपना जनाधार ही बढ़ाया जाए।

तो ऐसे में क्या सबसे घाटे में उद्धव रहे? मिशन 150 और मुख्यमंत्री की जिद में क्या उद्धव ने राजनीतिक नौसिखियेपन का परिचय दिया है। क्या यह अच्छा नहीं होता कि मुख्यमंत्री का मुद्दा चुनाव बाद सुलझाया जाता। लगातार हार वाली सीटें बीजेपी को देने में क्या बुराई थी। साथ ही इस गठबंधन को बचाने की जरूरत किसी बड़े लीडर ने नहीं समझी। मतलब साफ है बीजेपी ऐकला चलो की राह पर है और महाराष्ट्र का महाभारत चुनाव के बाद भी जारी रहेगा।

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