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This Article is From Jul 28, 2016

प्रियदर्शन की बात पते की : महायोद्धा महाश्वेता देवी

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 29, 2016 10:20 am IST
    • Published On जुलाई 28, 2016 17:21 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 29, 2016 10:20 am IST
मेरी महाश्वेता देवी से छिटपुट मुलाकातें ही रहीं हैं - यह मुलाकातें उनकी उस उम्र में रहीं जिसे लोग बुढ़ापा कहते हैं। लेकिन यह बुढ़ापा जैसे उनसे दूर छिटकता था। वे हमेशा जैसे किसी मोर्चे पर दिखती थीं - चौकन्नी या तैयार नहीं, बल्कि बेफ़िक्र, जैसे लड़ना उनके लिए जीने के सहज अभ्यास का हिस्सा हो। मेरी एक मुलाकात उस दिन की थी जब एक छोटी सी लड़ाई वे हार चुकी थीं। 2003 में साहित्य अकादेमी के अघ्यक्ष पद के चुनाव में गोपीचंद नारंग ने उन्हें हरा दिया था। लेकिन इस हार का कोई मलाल उनके चेहरे पर नहीं था। मैंने उनकी प्रतिक्रिया पूछी तो उन्होंने कहा कि जीतने वाला हमेशा सही नहीं होता।

वैसे साहित्य अकादमी की ये लड़ाई तो उन लड़ाइयों के आगे बहुत ही छोटी थी जिसे वे उसके पहले और बाद लड़ती रहीं - और शायद ज़्यादातर लड़ाइयों में उन्हें मालूम था कि उनके लिए जीतना आसान नहीं होगा। क्योंकि ये सारे मोर्चे उन्होंने वही चुने जो हमारे लोकतंत्र के सबसे अंधेरे, अनसुने और दुर्गम हिस्सों में पड़ते थे। झारखंड में उन्होंने बंधुआ मजदूरी के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी, आदिवासियों के इंसाफ़ के लिए लड़ाई लड़ी, गैर अधिसूचित जनजातियों का सवाल उठाया - और ये सारे सवाल वे थे जिनके जवाब मुख्यधारा की राजनीति के लिए आसान नहीं थे। लेकिन महाश्वेता बरसों-बरस तक ये सवल उठाती रहीं, उनके इलाकों में जाकर लड़ाई लड़ती रहीं - और यह सब करते हुए उन्होंने प्रचार की वह मुद्रा कभी अख्तियार नहीं की जो दूसरे कई समाजसेवी करते दिखाई पड़ते हैं।

साहित्य की परंपरा और बगावत
शायद यह भी एक वजह है कि महाश्वेता देवी को लोग सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कम, और एक साहित्यकार के तौर पर ज़्यादा याद करते हैं। साहित्यकार बेशक वे बड़ी थीं और इस बड़प्पन की वजह भी अंततः उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता में ही निहित थी। कुछ हद तक यह परंपरा महाश्वेता को विरासत में मिली थी और कुछ हद तक इसका उन्होंने अतिक्रमण किया। महाश्वेता के पिता मनीष घटक बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशकों में बांग्ला में चर्चित कल्लोल आंदोलन के जाने-माने कवि थे। काजी नजरूल इस्लाम जैसा बागी कवि इसी परंपरा की देन था। ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकार महाश्वेता के चाचा थे। जाहिर है, इस माहौल से निकली महाश्वेता के लिए साहित्य की परंपरा और उससे बगावत दोनों घुट्टी में मिले थे। सिर्फ इत्तिफाक नहीं है कि उन्होंने जिस एक महिला चरित्र पर केंद्रित कोई उपन्यास लिखा, वह झांसी की रानी थीं। बंगाल से झांसी के बीच की यह सांस्कृतिक दूरी शायद उन्होंने इसीलिए तय की कि रानी लक्ष्मीबाई उनके लिए स्त्री शौर्य की एक बड़ी प्रतीक थीं।

बाद के वर्षों के उनके उपन्यास भी बंगाल के भद्रलोक से नहीं, बल्कि झारखंड के आदिवासी समाज से आए। अग्निगर्भा, चोट्टीमुंडा के तीर, जंगल के दावेदार या हजार चौरासी की मां जैसे उपन्यासों ने भरपूर ख्याति अर्जित की और महाश्वेता का क़द बड़ा होता चला गया। उन्हें साहित्य अकादेमी, पद्मभूषण, ज्ञानपीठ जैसे सम्मान मिले। उनकी किताबों पर फिल्में बनती रहीं।

प्रतिरोध की आस्था
कई बार यह ख़याल आता है कि आदिवासियों, दलितों और गैरअधिसूचित जनजातियों के लिए काम करने वाली यह लेखिका इतने सारे पुरस्कार और सम्मान कैसे हासिल करती रही। दरअसल उनमें दो दुनियाओं को साध सकने का सहज कौशल था। उनके उपन्यास पढ़ते हुए खयाल आता था कि भले वे हाशिए के समाजों की कहानी लिख रही हैं, लेकिन उनकी कहानी में कथन की वह बांग्ला शैली केंद्रीय है जिससे कोई कहानी अचानक पठनीय हो उठती है। उनके लिखे हुए की यह ताकत थी - वह पाठक से जुड़ा हुआ लेखन था। हालांकि यहीं से एक सीमा भी दिखती थी। कई बार उन सूक्ष्मताओं की अनदेखी करती थीं जो इन समाजों के भीतर से उठने वाली अंतर्कथाओं में संभव थे। यह अनायास नहीं है कि इन समाजों के गहरे अध्येता महाश्वेता के संघर्ष से जितने प्रभावित होते थे, उतना उनके साहित्य से नहीं।

शायद यह एक विवादास्पद स्थापना लगे, लेकिन यह सच है कि महाश्वेता ख़ुद भी अपने संघर्ष को लेकर जितनी संजीदा रहीं, अपने साहित्य को लेकर शायद उतनी नहीं। निजी तौर पर भी शोक की घड़ियों को उन्होंने चुपचाप सहा और स्थगित किया। कुछ अरसा पहले उनके बेटे और बांग्ला के बहुत महत्वपूर्ण कवि नवारुण भट्टाचार्य को कैंसर ने ग्रस लिया। लेकिन महाश्वेता नाम की चट्टान भीतर से चाहे जितनी हिली या दरकी, बाहर उसने वह टूटन दिखने नहीं दी - या फिर शायद कुछ करीबी लोगों ने इसे महसूस किया हो।

दरअसल महाश्वेता अपने-आप में प्रतिरोध की आवाज़ थीं - प्रतिरोध की आस्था थीं। उनको देखकर लेखन और संघर्ष में एक भरोसा जागता था। बेशक, वे पिछले कई दिनों से बीमार थीं - अस्पताल में भर्ती थीं। लेकिन तब भी वे ऐसे समय गईं, जब इस प्रतिरोध, संघर्ष और भरोसे की ख़ासी ज़रूरत थी। उनके जाने की असली हूक यही है। वरना जाना तो हर किसी को किसी न किसी दिन है।

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

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