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This Article is From Jun 09, 2015

प्रियदर्शन की बात पते की : सत्‍य किधर सत्ता किधर?

Priyadarshan
  • Blogs,
  • Updated:
    जून 09, 2015 23:43 pm IST
    • Published On जून 09, 2015 23:38 pm IST
    • Last Updated On जून 09, 2015 23:43 pm IST
भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई को लगभग मध्यवर्गीय क्रांति में बदलते हुए और एक नई नैतिक राजनीति का आहवान करते हुए दिल्ली में शानदार बहुमत के साथ सरकार बनाने वाले अरविंद केजरीवाल ने अगर समय रहते अपने कानून मंत्री से इस्तीफ़ा ले लिया होता तो शायद जितेंद्र तोमर की गिरफ़्तारी के बाद भी कम से कम उनकी छीछालेदर नहीं होती।

लेकिन दूसरे दलों के तमाम मंत्रियों और नेताओं पर, देश के बड़े उद्योगपतियों पर खुलेआम आरोप लगाने का हौसला दिखाने वाले केजरीवाल अपने एक मंत्री के मामले में यह नैतिक बल क्यों नहीं दिखा सके? क्या इसलिए कि उनकी भी प्राथमिकताएं इस बात से तय होती हैं कि कौन उनके समर्थन में खड़ा है और कौन उनका विरोध कर रहा है?

यह सवाल पूछने की तबीयत इसलिए होती है कि आम आदमी पार्टी ने कुछ ही दिन पहले नैतिकता के सवाल पर एक तीखी अंदरूनी लड़ाई लड़ी। जिन लोगों ने यह ज़रूरी समझा कि पार्टी को पाक-साफ़ रखा जाए और संदिग्ध लोगों को किनारे किया जाए, उन्हें न सिर्फ़ दरकिनार, बल्कि अपमानित करके बाहर कर दिया गया और उनकी जगह वे सारे संदिग्ध लोग बचे रहे जो अपने पुराने धंधों में कई सवालों से घिरे हुए थे।

दरअसल पता नहीं क्यों, शुद्धतावाद की तमाम परियोजनाओं में एक विडंबना सी यह होती है कि वे सारी दुनिया पर फ़ैसले सुनाती हैं, बस अपने भीतर के अंधेरों को देख नहीं पातीं। अपने सही होने का अहंकार उनको लोकतांत्रिक नहीं रहने देता। उल्टे एक अतिरिक्त भावुकता उनको दूसरों के प्रति कुछ क्रूर ही बना डालती है।

अरविंद केजरीवाल के साथ भी यह विडंबना घटित होती नजर आती है। अफ़सोस ये है कि इस विडंबना का फ़ायदा सबसे ज़्यादा वो केंद्र सरकार उठा रही है जो लोकतांत्रिक बहुलता की बात तो बहुत करती है, लेकिन न वह उसकी विचारधारा में दिखाई पड़ती है न उसके नेताओं की बात में। वरना डिग्री को लेकर गलत जानकारी देने का जो आरोप जितेंद्र तोमर पर है, वह केंद्र सरकार के मंत्रियों पर भी है और उनके मामले भी अदालतों में हैं।

मगर यह दरअसल नैतिक मानदंडों की लड़ाई नहीं है, एक-दूसरे को अपनी ताकत दिखाने का झगड़ा है और इसमें संदेह नहीं कि फिलहाल इस झगड़े में केंद्र सरकार राज्य सरकार पर भारी पड़ रही है। दुर्भाग्य ये है कि इस बार लोग भी महसूस कर रहे हैं कि यह नैतिक बनाम राजनैतिक की नहीं, राजनैतिक बनाम राजनैतिक की लड़ाई है जिसमें एक तरफ़ फ़र्ज़ी डिग्रियों का खेल है तो दूसरी तरफ़ कानून के नाम पर अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने की चालाकी। सत्य किसी तरफ़ नहीं है, दोनों तरफ़ सत्ता है।

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