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This Article is From Jul 16, 2016

तुर्की में तख्तापलट की कोशिश युद्ध और बम धमाकों से पस्त हालात का नतीजा

Harimohan Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 16, 2016 16:09 pm IST
    • Published On जुलाई 16, 2016 15:46 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 16, 2016 16:09 pm IST
तुर्की में तख्तापलट की कोशिश पहली नजर में इरोदगनवाद बनाम कमालवाद का नतीजा लगती है। लेकिन कुछ खबरों के मुताबिक पिछले साल से जारी बम धमाकों और आतंकी घटनाओं से लोग काफी तंगी महसूस कर रहे हैं। सीरिया और इस्लामिक स्टेट (आईएस) के खिलाफ अभियान, विद्रोही कुर्द लड़ाकों से लड़ाई ने भी तुर्की के जन-जीवन को काफी तबाह किया है। लिहाजा, यह हालात भी फौज में असंतुष्ट और राष्ट्रपति इरोदगन विरोधी तत्वों को शह की वजह बने होंगे।

तुर्की सीरिया के शरणार्थी संकट को भी झेल रहा है और वह शरणार्थियों को यूरोप रवाना करने का भी मुख्य द्वार है। राष्ट्रपति इरोदगन सीरिया में अल असद की शिया सरकार के खिलाफ विद्रोहियों की मदद तो कर ही रहे थे, नाटो का महत्वपूर्ण ठिकाना होने के नाते तुर्की ही आईएस के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अभियान का भी मुख्य केंद्र है। तख्तापलट होने के हालात में सीरिया की राजधानी में जश्न का माहौल था, लेकिन यह नाकामयाब होने पर सन्नाटा छा गया। इससे पिछले साल से ही तुर्की में पर्यटकों की आमद और कारोबार लगभग ठप हो गया था। एक खबर में तुर्की के एक बुद्धिजीवी को यह कहते उद्धृत किया गया है कि ‘‘हम ठगा-सा महसूस करते हैं। तुर्की के समाज में अब और ऊर्जा नहीं बची है। हम कुछ होने का इंतजार कर रहे हैं, मानो तुर्की के नए उभार का इंतजार कर रहे हों।’’ जाहिर है, वे अस्तित्ववादी नाटककार सैमुअल बेकेट की कृति ‘‘वेंटिंग फॉर टर्की’’ (वेटिंग फॉर गोडो) का जिक्र कर रहे थे।

दरअसल तुर्की का समाज एक विचित्र स्थिति में फंसा हुआ है। उसके सभी बड़े शहरों में बम धमाके लगभग रोजमर्रा की बात हो चली है। उसका समाज बुरी तरह बंटा हुआ है। वहां कुछ लोग किसी भी वक्त गृह युद्ध छिड़ने की आशंका जताने लगे हैं। देश की दक्षिण-पूर्वी सीमा पर कुर्द अलगाववादी नए सिरे से सक्रिय हो गए हैं। उसके दक्षिण के देश इराक और सीरिया तो भयावह युद्ध की चपेट में हैं ही, जिसकी आग से वह झुलस रहा है।

लेकिन सबसे बड़ा बदलाव तो शायद तुर्की के समाज में आया है और उसके लिए उसके तेजतर्रार राष्ट्रपति इरोदगन ही जिम्मेदार हैं। इरोदगन उस सेकुलर व्यवस्था को लगातार झटके दे रहे हैं जो 1920 के दशक में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने स्थापित की थी। उन्होंने अपने इस्लामी नजरिए को तरजीह देकर लंबे समय से उपेक्षित निम्नवर्गीय मुस्लिम आबादी के उत्थान की कोशिशें तो कीं और गरीब इलाकों को विकसित करने के लिए आर्थिक नीतियां भी अपनाईं, मगर इस प्रक्रिया में उनका शासन निरंकुश भी हो गया। उनके करीबी लोगों की संपत्ति में काफी इजाफा हुआ। इससे एक धारणा घर करने लगी कि पुरानी व्यवस्था की जगह वे जो व्यवस्था कायम करना चाहते थे, वह बेपनाह भ्रष्टाचार से ढहती जा रही है। लिहाजा, 2013 में इरोदगन के खिलाफ भारी प्रदर्शन हुए जिसे उन्हें सख्ती से शांत करना पड़ा। उन्होंने तब विरोधियों की ‘‘कमालवादी’’ कहकर खिल्ली उड़ाई थी। फिर उनकी पार्टी एके जून 2015 के चुनावों में संसद में बहुमत खो बैठी। तब भी विपक्ष ने हमले तेज कर दिए। लेकिन इरोदगन ने फौरन मध्यावधि चुनाव का ऐलान करके उन्हें शांत कर दिया।

इरोदगन अपना जन समर्थन हासिल करने के लिए तुर्की के उस्मानिया साम्राज्य का गौरव वापस लाने की बात करते हैं और आठ दशकों के कमालवाद की सेकुलर व्यवस्था को बेमानी बताते हैं। असल में कमाल अतातुर्क ने 20वीं सदी के प्रारंभ में अपने तब के क्रांतिकारी विचारों के साथ तुर्की को एक आधुनिक राज्य के रूप में स्थापित किया था। हालांकि उसमें किसानों और कुर्द जैसे स्थानीय अल्पसंख्यकों को उपेक्षा सहनी पड़ी थी। शायद इरोदगन इसी भावना को भड़काकर अपनी सत्ता कायम रखने में कामयाब हुए हैं।

करीब 2003 से सत्ता में काबिज इरोदगन मौजूदा तख्ता पलट की कोशिश को देश में उदारवादियों और विपक्षी पार्टियों की साजिश बता रहे हैं। उनके मुताबिक यह फेतुल्ला गुलेन के समर्थकों का कारनामा है। फेतुल्ला एक उदार धर्मगुरु हैं जो पहले इरोदगन के समर्थक थे और बाद में उनके कट्टर विरोधी बन गए। वे अब अमेरिका के पेनसेल्विनिया में स्वयंभू निर्वासन में रहते हैं। हालांकि फेतुल्ला समर्थक एलायंस फॉर शेयर्ड वैल्यूज ने इससे इनकार किया है और राजनीति में किसी तरह की सैन्य दखलंदाजी की निंदा की है। फेतुल्ला रहस्यवादी इस्लाम में यकीन रखते हैं और लोकतंत्र, शिक्षा, विज्ञान और विभिन्न धर्मों में साझा मूल्यों के हिमायती हैं। उनके समर्थक स्कूल, अस्पताल, धर्मार्थ संस्थाएं, एक बैंक और एक काफी प्रभावी मीडिया हाउस चलाते हैं। इरोदगन उन पर काफी समय से विरोध भड़काने का आरोप लगाते रहे हैं।

हालांकि यह भी सही है कि सेना में कमालवादी तत्व कई बार तख्तापलट की कोशिश कर चुके हैं पर उन्हें 1980 के बाद से कामयाबी हासिल नहीं हो पाई है। एक छोटी कोशिश 1997 में भी हुई थी। इस बार भी छुट्टियां मना रहे इरोदगन ने वापस लौटकर लोगों से तख्तापलट करने की कोशिश करने वालों के खिलाफ उठ खड़े होने का आह्वान किया तो लोग सड़कों पर उतर आए, फौजी टैंकों के सामने खड़े हो गए।

मगर असंतोष की असली वजह शायद लगातार युद्ध की स्थितियों से जर्जर होती देश की व्यवस्था ही है। इसलिए पश्चिम एशिया के हालात और आतंकवाद से लड़ाई पर नए नजरिए की दरकार है। युद्ध के हालात निरंतर नहीं चल सकते। आतंकवाद का यह दौर तो लगभग डेढ़ दशकों से जारी ही है, बल्कि हम इसकी पृष्ठभूमि अमेरिका और यूरोप की तेल पिपासा में भी तलाश सकते हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति बुश सीनियर के दौर में इराक युद्ध की याद कीजिए। वह तेल पर कब्जे की लड़ाई से ही शुरू हुआ था, जब सद्दाम हुसैन ने रूस और यूरोपीय देशों से डॉलर के बदले उनकी मुद्राओं में लेनदेन शुरू कर दिया था। अमेरिका को चुनौती देने के लिए ही सद्दाम ने कुवैत पर कब्जा करने की नीति भी अपनाई थी, जो उनके लिए घातक सिद्ध हुई। बहरहाल, इस लड़ाई के अब कई तरह के दुष्परिणाम उजागर होते जा रहे हैं। इसलिए नए विचार की फौरी जरूरत है।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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