अटलबिहारी बाजपेयी को बहादुरा के लड्डू इतने अच्छे लगते थे कि कभी-कभी वो दिल्ली से विशेषतौर पर लड्डू खाने बहादुरा स्वीट्स पर आते थे. ग्वालियर के लोगों को पता था कि अटल जी से कुछ काम करवाना हो या उनका बिगड़ा मूड ठीक करना हो तो बहादुरा के बूंदी के लड्डू ये काम आसान कर देते थे. ड्राइवर से बात करते हुए सिटी सेंटर से करीब पंद्रह मिनट में बहादुरा स्वीट्स पहुंच गया. इस दुकान को देखकर हैरान रह गया जिस लड्डू का फैन पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर ग्वालियर का शहर हो उसे देखकर साधारण भी शरमा जाए.
दुकान के बाहर बहादुरा स्वीट्स का एक बदरंग हो चुका पुराना सा बोर्ड लगा है और बाहर मिट्टी से बनी कोयले की पुरानी सी भट्टी में बूंदी छानता एक हलवाई दिख रहा था...दुकान के अंदर पहुंचा तो पाया कि 85 साल पुरानी बहादुरा की दुकान में मिठाई होने के बावजूद मख्खी नहीं दिख रही थी...मशहूर होने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी या बड़े नेताओं की कोई तस्वीर नहीं लगी है...सफाई इतनी है कि मिठाई जहां रखी है वहां चप्पल और जूता पहनकर आप जा नहीं सकते हैं.. देशी घी के साथ बेसन की सोंधी खुशबू जहां आपकी दीमागी तंत्रिकाओं को झकझोर दे वहीं लड्डू की सॉफ्टनेस इतनी कि बूंदी का लड्डू मुंह में रखते ही घुल जाए.
तड़क-भड़क से दूर स्वाद के देसी भोलेपने का आभास देती बहादुरा स्वीट्स के मालिक विकास शर्मा बताते हैं कि अटल जी खाने के काफी शौकीन थे. यहां वो अपनी मित्र मंडली के साथ बैठा करते थे और कम से कम ढाई सौ ग्राम लड्डू जरुर खाते थे...आपको अगर बहादुरा स्वीट्स के पकवान मसलन जलेबी और कचौड़ी के लिए सुबह सात से साढ़े नौ बजे तक और बूंदी के लड्डू के लिए शाम साढ़े सात बजे तक आना पड़ेगा.
विकास कहते हैं वक्त की पाबंदी पर कठोरता से अमल होता है क्योंकि ये हमारे लिए मात्र व्यवसाय भर नहीं है हम अच्छी चीज खिलाना चाहते हैं. इसीलिए बहुत सीमित मात्रा में सुबह कचौड़ी और मिठाई में केवल बूंदी के लड्डू और रसगुल्ला ही तैयार करवाया जाता है. लड्डू 450 रुपया किले और हां त्यौहार में यहां से मिठाई खरीदने के लिए बड़ी सिफारिश भी लगवानी पड़ती है क्योंकि इस लड्डू पर एक अनार और सौ बीमार वाली कहावत जो लागू होती है. मैंने भी लड्डू खाया और लड्डू दिल्ली ले जाने के वादे के साथ नया बाजार से लौटने लगा.
गुरु पूर्णिमा होने के वजह से बाजार की बहुत सारी दुकानें बंद थी. सूरज ढ़ल रहा था यहां की सियासत तेजी से भाग रही है, लेकिन ग्वालियर गली नुकड्डों के चाय, मिठाई,चाट और पान की दुकान पर पूरे इत्मीनान से बैठा था...इस तरह जिंदगी से अपने दिनचर्या की तुलना के अधेड़बुन में फंसा मैं कब नया बाजार से सिटी सेंटर के होटल पहुंच गया पता नहीं चला.
(रवीश रंजन शुक्ला एनडटीवी इंडिया में रिपोर्टर हैं.)
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