झारखंड की 14 में से 12 लोकसभा सीटें जीत लेने के सिर्फ सात ही महीने बाद BJP को राज्य में बेहद ज़ोरदार झटका लगा है. वर्ष 2014 में मिली शानदार जीत से भी ज़्यादा समर्थन और सीटों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दूसरा कार्यकाल हासिल करने के बाद क्या बदला है...? केंद्रीय गृहमंत्री और BJP के राष्ट्रीय अध्यक्ष की दोहरी ज़िम्मेदारी संभाल रहे अमित शाह का देश के सर्वाधिक शक्तिशाली राजनेता के रूप में उभरना. प्रशंसकों के मुताबिक, मोदी-शाह की जोड़ी 'संघ इतिहास की सबसे प्रभावशाली साझीदारी' है. आप भले ही सहमत हो या नहीं, इसमें कोई दो राय नहीं कि शीर्ष मुद्दों पर शाह का नाम मोदी के साथ हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ गया है.
मैंने इसी कार्यकाल के दौरान यहीं एक बार कहा था कि शाह ही मोदी के राजनैतिक उत्तराधिकारी हैं. मोदी के दूसरे कार्यकाल, यानी मोदी 2.0, के दौरान लिए गए कई बड़े और विवादास्पद फैसलों के कर्ताधर्ता और चेहरा शाह ही रहे हैं. इन फैसलों में (कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करते हुए) अनुच्छेद 370 को हटा देना और देश के एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में तब्दील कर देना शामिल रहा है. शाह ने बिल पेश किया और बेहद आक्रामक अंदाज़ में संसद में घोषणा की कि (जम्मू एवं कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री) डॉ फारुक अब्दुल्ला गिरफ्तार नहीं हैं, लेकिन वह (अमित शाह) उन्हें (डॉ फारुक अब्दुल्ला को) 'कनपटी पर बंदूक' रखकर यहां नहीं ला सकते थे. सदन तथा मीडिया भाषा से हैरान ज़रूर हुआ, लेकिन चुप्पी साधे रहा, यहां तक कि तब भी जब यह पता चल गया कि दरअसल डॉ फारुक अब्दुल्ला हिरासत में हैं, और उसके बाद भी हिरासत में ही रहे.
BJP का आधारभूत समर्थक, जिसका सबसे ज़्यादा प्रतिनिधित्व उसके ऑनलाइन समर्थक तथा IT सेल किया करता है, 'शाह जी को दूसरा सरदार पटेल' करार देते नहीं थक रहा था, और वह 'मोदी और शाह की जोड़ी' के बारे में बात कर रहा था, जिसमें 'बेहद आश्वस्त मोदी' बहुत दयानतदारी से अपने 'साझीदार' को सारी लाइमलाइट लेने दे रहे थे.
अनुच्छेद 370 को हटाने के वक्त इस्तेमाल किए गए तरीके ही उस समय फिर अपनाए गए, जब नागरिकता संशोधन बिल (CAB) को कानून (CAA) बनाया गया. उधर, उससे करीबी तौर पर जुड़े राष्ट्रीय नागरिक पंजी (NRC) को लेकर शाह बार-बार प्रतिबद्धता जताते रहे हैं. मोदी उस वक्त लोकसभा में मौजूद भी नहीं थे, जब अमित शाह ने बिल पेश किया, और BJP के आधारभूत समर्थक ने तब भी ऐसा ही जोश दिखाया था. अब, जब विरोध प्रदर्शनों से जुड़ी हिंसा में 22 लोग जान गंवा चुके हैं, यह मोदी के लिए बहुत संभलकर चलने का वक्त है, और वह खुद को NRC से अलग-थलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. दिल्ली के रामलीला मैदान में रविवार को प्रचार भाषण में मोदी ने अपने जाने-पहचाने स्टाइल में NRC के खतरे को नकारने की कोशिश की - मुझे नहीं पता, देश ने उन पर यकीन किया है या नहीं. मोदी के भाषण के तुरंत बाद फैक्ट चैकर्स (तथ्य परखने वाले) सक्रिय हो गए, जिन्होंने शाह की बार-बार की गई घोषणाओं के सहारे बताया कि NRC साफ-साफ मौजूद खतरा है. यहां तक कि आमतौर पर अनुकूल रहने वाले अख़बारों ने भी संपादकीयों में लिखा कि मोदी बार-बार जो आश्वासन दे रहे हैं कि उनकी सरकार ने NRC पेश करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए हैं, काफी नहीं है और मोदी सरकार को बिल को ठोस रूप में वापस लेना ही पड़ेगा.
विपक्ष भी मोदी के आश्वासन से कतई प्रभावित नज़र नहीं आया, क्योंकि सोमवार को ही आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी ने घोषणा कर दी कि वह अपने राज्य में NRC को लागू नहीं करेंगे. नवीन पटनायक (ओडिशा) और नीतीश कुमार (बिहार) जैसे मुख्यमंत्रियों की ही तरह वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी ने भी संसद में नागरिकता संशोधन कानून का समर्थन किया ता, लेकिन वह NRC के लिए तैयार नहीं हैं. अब झारखंड के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हेमंत सोरेन भी कह चुके हैं कि वह NRC वाला रास्ता अख्तियार नहीं करेंगे.
NRC के खिलाफ मुख्यमंत्रियों की बढ़ती तादाद से राजनैतिक तस्वीर स्पष्ट होती है. केंद्र पर डाला जा रहा यह दबाव अभूतपूर्व है, और BJP के सहयोगियों ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वे इसमें साथ नहीं देंगे. अंततः मोदी और शाह को वास्विकता को कबूल करना होगा कि सिर्फ BJP-शासित राज्यों से ही NRC को समर्थन मिलेगा. उन्हें राजनैतिक दबाव पसंद नहीं है, और उन्होंने कभी राजनैतिक मतैक्य की परवाह नहीं की. मोदी ने NRC के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को चुनौती दी थी, 'अपने सॉलिसिटर जनरल से पूछिए, क्या आप किसी केंद्रीय कानून को लागू करने से इंकार कर सकती हैं...'
तो क्या शाह 1.0 की वजह से मोदी 2.0 में बड़ी समस्या पैदा हो रही है, जैसा कल (सोमवार को) NDTV पर एक पैनलिस्ट ने कहा...? BJP नेताओं का कहना है कि शाह बेहद निर्णायक और ज़िद्दी नेता हैं, जो अपनी रणनीति पर पुनर्विचार शायद ही कभी करते हों. मोदी के पहले कार्यकाल में BJP अध्यक्ष के रूप में शाह कुछ शांत रहते थे, क्योंकि उनके पास कोई कार्यकारी अधिकार नहीं थे. लेकिन वर्ष 2019 में मिली जीत के बाद शाह का किरदार बेहद बड़ा हो गया, जिसे मीडिया में मौजूद उनके अनुकूल रहने वाले 'पन्ना प्रमुखों' ने 'आधुनिक युग के चाणक्य' की संज्ञा दे डाली. अब तक जो भी निर्णय अमित शाह ने लिए हैं, उन्हें 'मास्टरस्ट्रोक' करार दिया गया है. मोदी के कैबिनेट में, जहां चुप्पी साधे रखने में ही भलाई है, सिर्फ शाह ही अक्सर मोदी से बात करते हैं. संभवतः शाह ने अपनी खुद की मीडिया में भरोसा करना शुरू कर दिया है.
निश्चित रूप से, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में कम रसूख वाली जातियों के मुख्यमंत्री बना देने का अमित शाह का सोशल इंजीनियरिंग प्रयोग नाकाम रहा. उनकी किस्से-कहानियों की तरह मशहूर ज़िद ने उद्धव ठाकरे को कांग्रेस और NCP के साथ अनिश्चित-सा गठबंधन करते देखा. यहां तक कि झारखंड में भी, जो पिछले साल में शाह के हाथ से निकलने वाला पांचवां सूबा बन गया है, शाह ने बहुत-सी चेतावनियां मिलने के बावजूद कतई अलोकप्रिय रघुबर दास का साथ दिया था.
अब कुछ ही वक्त बाद दिल्ली और बिहार में, और 2021 में पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनाव शाह के लिए चुनौती हैं.
लेकिन मुझे लगता है, मोदी और शाह NRC को लेकर कतई कृतसंकल्प रहेंगे, शाह BJP के अध्यक्ष बने रहेंगे (जे.पी. नड्डा कार्यकारी अध्यक्ष पद तक सिमटे रहेंगे), और उनके उठाए कदम ज़्यादा आक्रामक होते जाएंगे. यह सब इसलिए, क्योंकि BJP 'दुर्भाग्य' के लिए कथित रूप से दिल्ली में बने नए पार्टी मुख्यालय को दोष दे रही है.
स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो 'इंडियन एक्सप्रेस', 'द स्टेट्समैन' तथा 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' के साथ काम कर चुकी हैं...
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