कोरोना काल में शिवराज सिंह चौथी बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने, बग़ैर मंत्रिमंडल सरकार चलाने का रिकॉर्ड बनाकर कुछ मंत्री बनाए. कोरोना सरकार अब नये कानून बना रही है, किसानों के लिये मंडी एक्ट में बदलाव, मज़दूरों के लिये श्रम कानूनों में बदलाव ... लेकिन इनपर चर्चा किये बग़ैर ... अब सवाल है कि जिस वर्ग को फायदे पहुंचाने के नाम पर ये संशोधन किये जा रहे हैं क्या वाकई उनको फायदा होगा.सीपीएम के नेता बादल सरोज सीधे कहते हैं, श्रम कानून में संशोधन जन विरोधी हैं, शोषण बढ़ाने वाले हैं.
पहले ये जानते हैं बदलाव क्या हैं-
कारखाना अधिनियम 1948 के अंतर्गत कारखाना अधिनियम 1958 की धारा 6,7,8 धारा 21 से 41 (एच), 59,67,68,79,88 एवं धारा 112 को छोड़कर सभी धाराओं से नए उद्योगों को छूट रहेगी. इससे अब उद्योगों को विभागीय निरीक्षणों से मुक्ति मिलेगी. उद्योग अपनी मर्जी से थर्ड पार्टी इंस्पेक्शन करा सकेंगे. फैक्ट्री इंस्पेक्टर की जांच और निरीक्षण से मुक्ति मिलने का दावा है, उद्योग अपनी सुविधा में शिफ्टों में परिवर्तन कर सकेंगे. मध्यप्रदेश औद्योगिक संबंध अधिनियम 1960 में संशोधन के साथ इस अधिनियम के प्रावधान उद्योगों पर लागू नहीं होंगे. इससे किसी एक यूनियन से समझौते की बाध्यता समाप्त हो जाएगी.
औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 में संशोधन के बाद नवीन स्थापनाओं को एक हजार दिवस तक औद्योगिक विवाद अधिनियम में अनेक प्रावधानों से छूट मिल जाएगी. संस्थान अपनी सुविधानुसार श्रमिकों को सेवा में रख सकेगा. उद्योगों द्वारा की गई कार्रवाई के संबंध में श्रम विभाग एवं श्रम न्यायालय का हस्तक्षेप बंद हो जाएगा. मध्यप्रदेश औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधिनियम 1961 में संशोधन के बाद 100 श्रमिक तक नियोजित करने वाले कारखानों को अधिनियम के प्रावधानों से छूट मिल जाएगी.
मध्यप्रदेश श्रम कल्याण निधि अधिनियम 1982 के अंतर्गत जारी किये जाने वाले अध्यादेश के बाद सभी नवीन स्थापित कारखानों को आगामी एक हजार दिवस के लिए मध्यप्रदेश श्रम कल्याण मंडल को प्रतिवर्ष प्रति श्रमिक 80 रुपए के अभिदाय के प्रदाय से छूट मिल जाएगी. इसके साथ ही वार्षिक रिटर्न से भी छूट मिलेगी.
लोक सेवा प्रदाय गारंटी अधिनियम 2010 के अंतर्गत जारी अधिसूचना के अनुसार श्रम विभाग की 18 सेवाओं को पहले तीस दिन में देने का प्रावधान था. अब इन सेवाओं को एक दिन में देने का प्रावधान किया गया है. दुकान एवं स्थापना अधिनियम 1958 में संशोधन के बाद कोई भी दुकान एवं स्थापना सुबह 6 से रात 12 बजे तक खुली रह सकेगी. इससे दुकानदारों के साथ ही ग्राहकों को भी राहत मिलेगी. पचास से कम श्रमिकों को नियोजित करने वाले स्थापनाओं में श्रम आयुक्त की अनुमति के बाद ही निरीक्षण किया जा सकेगा.
ठेका श्रमिक अधिनियम 1970 में संशोधन के बाद ठेकेदारों को 20 के स्थान पर 50 श्रमिक नियोजित करने पर ही पंजीयन की बाध्यता होगी. 50 से कम श्रमिक नियोजित करने वाले ठेकेदार बिना पंजीयन के कार्य कर सकेंगे. इस अधिनियम में संशोधन के लिए प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा गया है.
कारखाना अधिनियम के अंतर्गत कारखाने की परिभाषा में विद्युत शक्ति के साथ 10 के स्थान पर 20 श्रमिक और बगैर विद्युत के 20 के स्थान पर 40 श्रमिक किया गया है. इस संशोधन का प्रस्ताव भी केन्द्र शासन को भेजा गया है. इससे छोटे उद्योगों को कारखाना अधिनियम के पंजीयन से मुक्ति मिलेगी. इसके पूर्व 13 केन्द्रीय एवं 4 राज्य कानूनों में आवश्यक श्रम संशोधन किए जा चुके हैं.
अब समझिये, खेल क्या हो रहा है -
पहले अगर कोई न्यूनतम मज़दूरी ना दे तो लेबर इंस्पेक्टर को अधिकार थे ...कानून तोड़ने वाले पर वो मुकदमा लगा सकता है जिसमें 6 महीने की जेल, 7 गुना जुर्माने का भी प्रावधान था ... जांच और निरीक्षण से मुक्ति का मतलब ये होगा शोषण करो, सज़ा से मुक्ति. पहले ये भी प्रावधान थे कि श्रम आयुक्त आदेश दे तो निरीक्षण कराया जा सकता था, शिकायत करने पर वो ऐसे आदेश दे सकते थे लेकिन अब उसे हटा दिया गया है.
आप अपने आसपास किसी छोटी, बड़ी फैक्ट्री को देख लें, 90 प्रतिशत से ज्यादा में श्रम कानूनों का उल्लंघन होता है फिर चाहे 8 घंटे काम की शर्त हो, साप्ताहिक अवकाश या फिर ओवरटाइम की लेकिन अब इस शिकायत के मायने नहीं है.
दूसरा मध्यप्रदेश औद्योगिक संबंध अधिनियम 1960 लागू थे तो कम से सत्तारूढ़ दल से संबंधित ही सही कामगारों के यूनियन को मान्यता मिल जाती थी. श्रमिक को अधिकार था सीधे लेबर कोर्ट चला जाए लेकिन उसमें जो संशोधन होते रहे पहले ही प्रक्रिया को बहुत जटिल और थकाऊ बनाया जा चुका है जिसमें विवाद की स्थिति में पहले लेबर ऑफिस जाए वो बैठक करेंगे ... महीने, सालों फिर लेबर कमिश्नर के पास मामला इंदौर जाएगा, फिर लेबर कोर्ट उसमें फिर बदलाव हो गया.
यानी शिवराज सरकार ने निजी क्षेत्र के मज़दूरों को पूरी तरह से बंधुआ मज़दूर बना दिया है. दुकान एवं स्थापना अधिनियम 1958 में जो संशोधन हुआ उसमें 6-12 बजे रात तक दुकानें खुली रह सकती हैं, लेकिन ज़रा सोचिये जिन लोगों से दुकानों में काम कराया जाता है उसमें से कितनों को डबल शिफ्ट या दूसरी शिफ्ट के लिये कामगार रखे जाएंगे उनके श्रम कानूनों के लिये क्या आवाज़ उठाने की गुंजाइश बची है?
पहले प्रावधान थे कि किसी उद्योग में जहां 100 मजदूर हैं उसे बंद करने के लिये इजाज़त लेनी होगी, कामगारों को सुनना होगा लेकिन 1000 दिन खुले रहने यानी लगभग 3 साल काम हुआ तो किसी तरह का कानून लागू नहीं होगा ...
एक और अहम सवाल है कि पूंजीवादी व्यवस्था में सरकारें लगातार श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ा रही हैं इससे पहले भी श्रम कानूनों को तोड़ा-मरोड़ा गया कि निवेश को आकर्षित किया जा सके चकाचौंध से भरे इन्वेस्टर मीट हुए लेकिन निवेश के नाम पर आया क्या ... आंकड़े उठा कर देख लीजिये कितने प्रतिशत ग्रीन फील्ड निवेश हुआ है
आखिरी बात ये कानून विधानसभा में बने, उनपर लंबी चर्चा हुई ऐसे में एक नोटिफिकेशन से उसे बदला जा रहा है ये ग़ैरकानूनी तो नहीं लेकिन दुरुपयोग तो निश्चित तौर पर है. बादल सरोज सवाल उठाते हैं कहते हैं ये काम वो सरकार कर रही है जो अप्रत्यक्ष तौर पर अभीतक बहुमत में नहीं है अगर विधानसभा में पूरी सदस्य संख्या की बात हो या उपचुनाव के लिहाज़ से.
भारतीय मज़दूर संघ के नेता ज्ञान शंकर तिवारी भी कहते हैं कि इन संशोधनों से कारोबारियों की मनमानी होगी, ऐसे में इसकी समीक्षा करके वो सरकार को ज्ञापन देंगे इसके विरोध में. उनका कहना है कि वो भी चाहते हैं उत्पादन बढ़े, लेकिन मज़दूरों का शोषण हुआ तो वो विरोध करेंगे.
2018 में शिवराज के ही शासन काल में श्रमिक कल्याण योजना के क्रियान्वयन की समीक्षा बैठक में पता लगा कि 2 करोड़ लोगों ने बतौर श्रमिक पंजीयन करवाया है, ये चौंकाने वाले आंकड़े थे क्योंकि मध्यप्रदेश की आबादी लगभग 7 करोड़ है यानी राज्य का हर चौथा शख्स मज़दूर निकला, ज़रा सोचिये क्या हर चौथे शख्स को कथित तौर पर बंधुआ बनाने के बदलावों से आप सहमत हैं.
एक और बात कांग्रेस की सरकार में श्रम मंत्री थे महेन्द्र सिंह सिसोदिया ज्योतिरादित्य सिंधिया के करीबी सिसोदिया जी अब बीजेपी में शामिल हो गये हैं, उनके विभाग ने उनके कार्यकाल में कहा कि मजदूरों, कमजोर वर्ग के लिये संचालित संबल योजना में 6816 करोड़ का घोटाला हुआ, 71 लाख अपात्रों को फ़ायदा दिया गया, जिसमें 55 लाख लोग बीजेपी के थे ... सरकार सत्ता बदलते ही पात्र-अपात्र भी बदल जाते हैं ... घोटाला कथित में तब्दील हो जाता है ... क्या इसे ही कहते हैं - वक्त है बदलाव का.
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