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This Article is From Jan 24, 2018

पद्मावत विवाद: देश में सिर्फ एक ही सेना है- भारतीय सेना

Akhilesh Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 24, 2018 18:27 pm IST
    • Published On जनवरी 24, 2018 18:27 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 24, 2018 18:27 pm IST
अहमदाबाद और गुरुग्राम की तस्वीरें विचलित करने वाली हैं. संजय लीला भंसाली की विवादास्पद फिल्म 'पद्मावत' के विरोध में सड़कों पर उतरे मुट्ठी भर गुंडों ने आगजनी कर पूरे देश की छवि को शर्मसार किया है. मॉल में हमला, मोटरसाइकलों को जलाना और बसें फूंक देना, आखिर विरोध का यह कौन सा तरीका है? और कैसा विरोध? किस बात का विरोध? बिना फिल्म देखे पद्मावत के बारे में यह धारणा बना दी गई है कि इसमें राजपूतों के शौर्य, साहस और बलिदान को कम कर दिखाया गया है. रानी पद्मावती के ऐतिहासिक किरदार के साथ छेड़छाड़ का भी आरोप लगाया गया. लेकिन अभी तक जितने लोगों ने यह फिल्म देखी है उन सभी ने इन आरोपों से इनकार किया है. 

उनका कहना है कि प्रचलित गलत धारणा के उलट पद्मावत में राजपूतों के शौर्य, गौरव, साहस और बलिदान का महिमामंडन किया गया है. ऐसा कहने वालों में पत्रकार, दार्शनिक और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय महत्वपूर्ण लोग शामिल हैं. इसके बावजूद न सिर्फ विरोध जारी है बल्कि यह हिंसक भी होता जा रहा है. इस पूरे विवाद को शुरू करने वाली है करणी सेना, जो राजपूतों की नुमाइंदगी करने का दम भरती है. इस तथाकथित सेना के लोकेंद्र सिंह कालवी कह रहे हैं कि फिल्म के विरोध में गिरफ्तारियां भी होंगी और गोलियां भी चलेंगी. सवाल यह है कि आखिर भारत में इस तरह की निजी सेनाओं की अनुमति कैसे दी जा सकती है. इन निजी सेनाओं की हरकतों ने सेना जैसे पवित्र शब्द को शर्मसार किया है. कुकुरमुत्ते की तरह उग आई ये सेनाएं जाति विशेष के अधिकारों को बचाने का दावा करती हैं. लेकिन हकीकत इसके उलट है.

इन सेनाओं के मुद्दे तात्कालिक होते हैं और उनके समाधान ढूंढने की कोशिश भी स्थाई नहीं होती. इनका मकसद एक मुद्दे को बड़ा कर लोकप्रियता हासिल करना है. इस लोकप्रियता की आड़ में राजनीतिक मंसूबे सीधे करने का इरादा भी दिखाई देता है. माना जा रहा है कि करणी सेना के इस विरोध के पीछे भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है. लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर पुलिस और राज्य प्रशासन हिंसक विरोधों से सख्ती से क्यों नहीं निपट पा रहा है. जिन अधिकांश राज्यों में हिंसक प्रदर्शन हुए हैं वहां पर बीजेपी की सरकार है. राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे बीजेपी शासित राज्यों में इस फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए हैं और इनमें से कुछ राज्यों में इस पर सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट मिलने के बावजूद पाबंदी लगाई गई थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया.

इसके बाद इनमें से कुछ राज्यों ने कानून-व्यवस्था का हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट से अपने फैसले पर दोबारा विचार की अपील की जिसे कोर्ट ने फिर खारिज कर दिया. इसके बाद इन राज्यों में हिंसक प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हुआ है. खबर यह भी है कि गुजरात और राजस्थान में वितरकों और सिनेमा हॉल के मालिकों ने पद्मावत न दिखाने का फैसला किया है. यह एक तरह का अघोषित प्रतिबंध है. हालांकि इसमें सिनेमा मालिकों की मजबूरी समझ में आती है क्योंकि उन्हें अपने जान-माल की चिंता है. लेकिन सवाल यह है कि राज्य सरकारें कानून-व्यवस्था के हालात को संभाल क्यों नहीं पा रही हैं? ऐसा क्यों हो रहा है कि हिंसा और आगजनी की जो तस्वीरें आ रही हैं उनमें इन घटनाओं को रोकने के लिए पुलिसवाले नजर नहीं आ रहे हैं. क्या ऐसा तो नहीं है कि इस अघोषित प्रतिबंध को राज्य सरकारों की भी शह है. अगर ऐसा है तो यह और ज्यादा गंभीर मामला है.

आरोप लग रहा है कि राजस्थान में दो लोक सभा और एक विधानसभा उपचुनाव के मद्देनजर राज्य सरकार पद्मावत को लेकर जोखिम मोल नहीं लेना चाहती, क्योंकि उसे राजपूत वोटों की चिंता है. यही सवाल कांग्रेस के बारे में भी उठ रहा है जिसने इस फिल्म के बारे में कुछ नहीं कहा है. हालांकि गुजरात में कांग्रेस के सहयोगी हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर ने पद्मावत का खुल कर विरोध कर दिया है. इस पूरे विवाद में एक और पहलू है. मेरे विचार से वह भी एक महत्वपूर्ण पहलू है और वह यह है कि अगर आप ऐतिहासिक किरदारों पर फिल्म बनाते हैं तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर तथ्यों से छेड़छाड़ नहीं कर सकते. खासतौर से उन संवेदनशील मुद्दों को छूने में सावधानी बरतने की जरूरत है जो लोक मान्यताओं और विश्वासों से जुड़े हैं. कहने के लिए यह दलील दी जा रही है कि पद्मावत मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य पद्मावत पर आधारित है. लेकिन यह दलील नाकाफी है क्योंकि राजस्थान के इतिहास और मान्यताओं से वाकिफ लोग जानते हैं कि वहां महारानी पद्मावती को लेकर किसी तरह की भावनायें हैं.

लेकिन इन चिंताओं का समाधान करने का प्रयास किया गया है. फिल्म को इतिहासकारों और राजे-रजवाड़ें के नुमाइंदों को दिखाया गया. उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ नहीं की गई है और न ही भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई. सेंसर बोर्ड ने भी अपनी ओर से कुछ सुधार करवाए हैं. जिसके बाद इस फिल्म को दिखाने की अनुमति दी गई है. भारत में फिल्मों पर घोषित और अघोषित पाबंदियों का एक लंबा इतिहास रहा है. ऐसी कई फिल्में आई हैं जिन पर कुछ आपत्तियों के बाद राज्य या फिर कें सरकार ने पाबंदी लगाई. ये बात अलग है कि अदालतों में ऐसे प्रतिबंध टिके नहीं. पद्मावत को सेंसर बोर्ड की मंजूरी है और देश की सबसे बड़ी अदालत की भी. ऐसे में इसको लेकर हो रहा हिंसक विरोध न सिर्फ बेमानी है बल्कि इससे सख्ती से निपटने की भी जरूरत है. 

(अखिलेश शर्मा एनडीटीवी इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
 

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