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This Article is From Mar 02, 2015

अखिलेश शर्मा की कलम से : 'सीता-द्रौपदी' ने रखी बीजेपी-पीडीपी गठबंधन की बुनियाद

Akhilesh Sharma, Vivek Rastogi
  • Blogs,
  • Updated:
    मार्च 02, 2015 20:30 pm IST
    • Published On मार्च 02, 2015 20:25 pm IST
    • Last Updated On मार्च 02, 2015 20:30 pm IST

नई दिल्ली : जम्मू-कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी का साथ आना चुनाव तक बिल्कुल असंभव लगता था। खुद मुफ्ती मोहम्मद सईद कह चुके हैं कि यह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के मिलने जैसा है। जब उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव मिलते हैं, तब प्रलय होती है, मगर इस बार सृजन हुआ है। जम्मू-कश्मीर में एक नई सरकार का सृजन।

लेकिन यह सृजन प्रक्रिया बेहद कष्टप्रद, जटिल और उतार-चढ़ाव से भरी रही। बीजेपी की ओर से बातचीत की जिम्मेदारी आरएसएस का सार्वजनिक चेहरा रहे और अब पार्टी के महासचिव राम माधव को दी गई। वहीं पीडीपी की ओर से बातचीत का जिम्मा संभाला मशहूर अर्थशास्त्री रहे हसीब अहमद द्रबू ने। जहां कश्मीर को लेकर आरएसएस का शुरू से ही बेहद राष्ट्रवादी रवैया रहा है और राम माधव से उसी लाइन पर चलने की अपेक्षा थी, वहीं द्रबू शुरुआत में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के लिए नरम रहे और उन्हें पार्टी का साफ संदेश था कि कश्मीर पर पीडीपी की लाइन पर ही चला जाए।

करीब दो महीने तक दोनों नेताओं के बीच दिल्ली, जम्मू और चंडीगढ़ में मुलाकातें चलती रहीं। जहां द्रबू के लिए यह आसान था कि उन्हें बातचीत के बारे में सिर्फ मुफ्ती मोहम्मद सईद को ही बताना होता था, वहीं राम माधव को पार्टी की केंद्रीय इकाई, राज्य इकाई, आरएसएस, प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय और दूसरे संगठनों को भी इस बातचीत के बारे में लगातार बताना पड़ता था और उनकी राय लेनी होती थी। इसी पर दोनों नेताओं के बीच बातचीत में मजाक में यह भी कहा गया कि जहां द्रबू 'सीता' जैसे हैं, क्योंकि उन्हें सिर्फ मुफ्ती से बात करनी होती है, वहीं राम माधव 'द्रौपदी' जैसे हैं, क्योंकि उन्हें कई लोगों के साथ बात करनी पड़ती है।

विवादास्पद मुद्दों जैसे अनुच्छेद 370, सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा), पश्चिमी पाकिस्तानी से आए शरणार्थी और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से बातचीत जैसे मुद्दों पर बात बनती-बिगड़ती रही। एक-एक शब्द को लेकर घंटों-घंटों बहस हुई। संविधान के जानकारों से सलाह-मशविरा किया गया। राम माधव बातचीत की प्रगति के बारे में केंद्रीय नेतृत्व को बताते रहे। न्यूनतम साझा कार्यक्रम का कई बार मसौदा तैयार किया गया। बीच में दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आए। बीजेपी की करारी हार ने बातचीत के रुख को मोड़ दिया, अब पीडीपी हावी हो गई, बीजेपी के तेवर ठंडे हो गए। पीडीपी अपने हिसाब से बातचीत की शर्तों को तय करने लगी। जहां एक बार लग रहा था कि बीजेपी का अपना मुख्यमंत्री अगर न भी हो तो कम से कम तीन-तीन साल के रोटेशन फार्मूले पर सहमति बन सकती है, मगर दिल्ली के नतीजों ने ऐसा होने से रोक दिया।

सब कुछ तय होने के बाद महबूबा मुफ्ती की अमित शाह से मुलाकात हुई, लेकिन उसके बाद बात फिर बिगड़ गई। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से बातचीत के मुद्दे पर मामला पटरी से उतर गया। मुफ्ती मोहम्मद सईद की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात भी टालनी पड़ी। राम माधव और हसीब द्रबू की फिर बातचीत के बाद आखिकार नए सिरे से इस बात को सीएमपी में डाला गया।

यह बात भी सामने आई है कि शुरुआत में बीजेपी की नेशनल कांफ्रेंस के साथ बातचीत हुई थी। बीजेपी ने यह बात पीडीपी को भी बता दी थी। बताया गया कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ बीजेपी की बात नहीं बन सकी, क्योंकि उसे उमर अब्दुल्ला की शर्तें मंजूर नहीं हुईं। इस बीच पीडीपी को भी नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस से संदेश आए। मगर पीडीपी को भी लगा कि क्षेत्रीय संतुलन बनाने के लिए ज़रूरी है कि बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई जाए।

अब जबकि सरकार बनते ही गठबंधन के मुखिया और राज्य के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के बयानों को लेकर विवाद हुआ है और पीडीपी के कुछ विधायकों ने संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को लेकर बयान दिए हैं, इन वार्ताकारों की ओर फिर देखा जाने लगा है। हालांकि इनका साफ कहना है कि बीजेपी-पीडीपी सरकार सिर्फ और सिर्फ न्यूनतम साझा कार्यक्रम के हिसाब से चलेगी। विवादों को सुलझाने के लिए दोनों पार्टियों की एक समन्वय समिति बनाई जाएगी, जिसमें महबूबा मुफ्ती और जुगल किशोर शर्मा के अलावा कुछ अन्य नेता होंगे। यह भी कहा गया है कि फिलहाल पीडीपी एनडीए का हिस्सा नहीं है। इस बारे में अंतिम फैसला मोदी और मुफ्ती लेंगे।

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