बटइया और रेहन के किसान किससे मांगे अपनी बर्बाद फसलों का मुआवजा

वाराणसी:

मैं गांव में नहीं रहता, लेकिन गांव-घर से जुड़ा हुआ हूं। मेरे पास खेत और खलिहान भी हैं। पिता बाहर नौकरी करते थे, लिहाजा मैं पैदा शहर में हुआ और पला बढ़ा शहर में। फिर भी अपनी मिट्टी से रिश्ता बना रहा। जब भी मौका मिलता है मैं गांव घूम आता हूं। परिवार के ज़्यादा सदस्य नौकरी पेशा वाले हो गए तो खेती रेहन और बटइया पर दी जाने लगी।

परिवार अपने खेतों का एक हिस्सा रेहन पर रखता है और एक हिस्सा बटइया पर देता है। बटइया में खेत और बीज मेरे होते हैं। बाकी मेहनत दूसरे किसान की, फिर जो फसल हुई वो बांट ली गई। रेहन पर जिसने खेत लिए उसने एक तय रकम अदा कर दी। फिर साल भर के लिए खेत उसका। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में ऐसे किसानों की एक बड़ी संख्या है जो भूमिहीन हैं, मगर मेरे जैसे लोगों से खेत रेहन पर उठाते हैं और खेती करते हैं। अगर किसी ने दस एकड़ जमीन रेहन पर ली तो उसके लिए मोटे तौर पर अलग-अलग इलाके और खेत के हिसाब से साठ हजार से एक लाख रुपये तक की रकम लगती है। उसके अलावा फसल उगाने की लागत अलग से।

इन किसानो की संख्या कितनी है इसके आंकड़े में उलझने के बजाय यही कहना ज़्यादा उचित होगा कि हमारे देश के असली अन्नदाता यही छोटे किसान हैं। मौसम की मार ने सबसे अधिक इन्हीं किसानों को बर्बाद किया है। आज सरकार हिसाब लगा रही है कि किसानों को क्या मुआवजा दिया जाए। केंद्र सरकार राज्यों पर तो राज्य सरकारें केंद्र पर किसानों की बदहाली की जिम्मेदारी डाल रही हैं। संसद में राहुल गांधी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसानों के बीच जाने की सलाह दे रहे हैं। किसानों का ये दर्द राजनितिक पार्टियां सिर्फ संसद में ही नहीं सोशल मीडिया पर अपने फायदे के हिसाब से उछाल रही हैं। मोदी के विदेश दौरे पर सवाल उठ रहे हैं।

कहने का मतलब ये कि बर्बाद और मर रहे किसानों का मुद्दा राहुल बनाम मोदी बनता जा रहा है। जहां तक किसानों की बात है तो अभी तक उनके नुकसान का सर्वे तक नहीं हो सका है। जब तक ये सब होगा तब तक अगली फसल बोने का समय आ जाएगा। लेकिन ये फसल कैसे बोई जाएगी ये बड़ा सवाल किसानों के सामने है।

तबाह और बर्बाद हो चुके किसान अगली फसल के बीज, खाद, पानी और कीटनाशकों के लिए पैसे कहां से जुटाएंगे. कर्ज में डूब चुके भूमिहीन किसानों को अगली खेती के लिए अब कर्ज कौन देगा? और पिछला कर्ज वो कैसे चुकाएंगे? कितनी लड़कियों की शादियां टल जाएंगी। कितने बच्चों को पढ़ाई बीच में छोड़नी होगी। कितने किसान अपना घर-बार बेचकर शहरों के मजदूर बन जाएंगे। किसानों के इतने दर्द हैं कि मैं और आप उन्हें बयां करते-करते थक जाएंगे, मगर उनकी दास्तानें कम नहीं होंगी।

बटइया और रेहन पर खेत लेकर गुजर-बसर करने वाले किसानों की स्थिति तो भयावह है। उनकी जमा-पूंजी जा चुकी है। कर्ज बढ़ चुका है और खाने के लिए अनाज भी नहीं है। और क्रूर मजाक यह कि उन्हें मुआवजा भी नहीं मिलेगा। खेत उनके नाम पर नहीं है और खेत ही नहीं हैं तो मुआवजा कैसा? कितना विभत्स है यह, इसका अंदाजा शहरों में रहने वाले लोग नहीं लगा सकते। ऐसे में इन किसानों को राहत कैसे मुहैया करायी जाएगी?

इसी सवाल का जवाब जानने के लिए हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के एक गांव जगरदेवपुर गए। मगर वहां जवाब मिलने की जगह कई नए सवाल मिल गए। हीरा लाल इस गांव की हरिजन बस्ती से रहते हैं। वो भूमिहीन हैं और उन्होंने तीन बीघा खेत रेहन पर लेकर फसल लगाई थी। बारिश ने कुछ नहीं छोड़ा। हीरालाल इस गम में बीमार हो गए हैं। चारपाई पर लेटे रहते हैं, लेकिन जब एनडीटीवी की टीम इनका हाल जानने पहुंची तो यह किसी मदद की आस में उठ खड़े हुए। गर्मी में भी शाल ओढ़ कर खेत की तरफ चल दिए। अपनी बर्बाद फसल दिखाकर उन्होंने अपना गम बयां किया। "हालात एक दम्मे डाउन बा, तीन बिगहा लिये थे कुलही नाश कर दिये। अब हमें का मिली का न मिली वो त बताइ दिहे."

गांव के मलिक यादव का भी यही हाल है। उन्होंने दो बीघा खेत किराये पर लिया था और अब बर्बाद हो चुके अनाज में से कुछ काम लायक निकालने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने हमें बताया कि कैसे पानी की वजह से अनाज सड़ गया है। यही हाल सालिक राम का भी है। वहीं हमें बर्बाद फसल को निहारती पियारी भी मिली।  पियारी के घर शादी है और फसल बर्बाद हो गई। वह समझ नहीं पा रही है कि क्या करे? सारे रास्ते बंद हो गए हैं। "तीन बिगहा हम खेत ले ले रहली, हमरे घर झटकल दाना बा नाही, हमरे घर शादी पड़ल बा। अब ई बाताई हम केकरे बूते बियाह करी। घर में सब केहु रोअत-पीटत बा। हे भगवान ई कौना मुसीबत में डाल देहला।"

रेहन पर खेती करने वाले किसान छुन्ना लाल हमें देखकर इस आस में दौड़ते चले आए कि साहब आए हैं। बर्बाद फसल का मुआयना कर रहे हैं। आते ही फ़ौरन अपने बर्बाद खेत की तरफ चलने की ज़िद करने लगे पर जब हमने उनसे रेहन खेत लेने वालों के बारे में पूछा तो फ़ौरन फट पड़े, कहा साहब से मुलाकात हम खुद रेहन पर खेत लिए हैं। खेत जिसके नाम है। अधिया वाले खेती किये है जुताई किये है, बेंगा डाले है सुर्रा खाद डाले है अपना खर्चा लगा दिये हैं उनको क्या मिलेगा। मिलेगा तो कास्तकार को मिलेगा, हमको क्या मिलेगा। हम तो मर जाएंगे।"

जागरदेवपुर समेत बनारस के महदा, चक्का, तिलमपुर, नामापुर, वारडीह, खोंचवा, अखरी छितौनी जैसे सैकड़ों गांव में बटइया और रेहन पर खेती करने वाले किसान बदहवास हैं। इनका सबसे बड़ा दर्द यही है कि किसी तरह पैसे जुटा कर, उधार लेकर इन्होंने खेती की और अब जब फसल नष्ट हो गई है तो इन्हें मुआवजा भी नहीं मिलेगी। यही नहीं जिसकी जमीन है उसे रेहन की रकम तो देनी ही होगी। अब ये उनके रहम-ओ-करम पर हैं।

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ये एक दर्दनाक सच है क्योंकि रेहन और बटइया पर खेती करने वाले भूमिहीन किसानों की ज़िन्दगी जमीन के बिना वैसे भी आधी है और इस बार की बारिश ने उनकी सारी मेहनत धो दी है। लिहाजा उनकी जिंदगी एकदम बेजार हो चुकी है। बड़ा सवाल ये है कि मुआवजों की लिस्ट में क्या ऐसे किसानों को जगह मिलेगी? ये किसान सरकार के एजेंडे में हैं भी या नहीं? अगर नहीं तो आप खुद सोच सकते हैं कि ये कैसे जिंदा रहेंगे और किसी तरह जिंदा भी रहे तो किस हाल में जिएंगे?