बात पते की : राम मंदिर के बाद राष्ट्र मंदिर की राजनीति

बात पते की : राम मंदिर के बाद राष्ट्र मंदिर की राजनीति

प्रतीकात्मक फोटो

उत्तर प्रदेश में चले राम मंदिर आंदोलन ने उत्तर प्रदेश को कम से कम 20 साल पीछे धकेल दिया। न राम मंदिर बन पाया और न उत्तर प्रदेश। बीजेपी दोनों को छोड़कर आगे बढ़ गई।

उस राम मंदिर आंदोलन के अलग-अलग सिरों को याद करें तो पाएंगे तो देश के सामने खड़े कई संकटों के बीज वहीं थे। इसी आंदोलन की वजह से 1992 की बाबरी मस्जिद टूटी, मुंबई में दंगे हुए और 1993 में इस शहर ने आतंकी धमाके देखे। इसी आंदोलन के क्रम में 2002 में अयोध्या से चली कारसेवकों की बोगी गोधरा में जली, गुजरात में दंगे हुए और उसके बाद माहौल में एक ज़हर घुल गया। इनके सामाजिक-आर्थिक नुकसानों की वास्तविक ऑडिटिंग होनी बाकी है। इसकी वजह से कितने छोटे-बड़े कारोबार प्रभावित हुए, कितने लोगों ने भारत में निवेश का इरादा छोड़ा- इन सबका हिसाब शायद कभी नहीं लगाया जा सकेगा। लेकिन अब वह सब पीछे छोड़कर बीजेपी आगे बढ़ चुकी है। उसे लग रहा है कि राम मंदिर का मुद्दा अब और नहीं चलेगा। अब वह एक नया मंदिर बनाने की कोशिश में है- यह है राष्ट्र-मंदिर। कौन नहीं चाहेगा कि ऐसा राष्ट्र मंदिर बने और उसमें भारत माता की प्रतिमा स्थापित हो।

अपनी बहुत सारी गड़बड़ियों के बावजूद राष्ट्र अब तक हमारे भीतर एक स्पंदन पैदा करता है- एक गरिमा का भाव। लेकिन वह भारत माता कौन सी है जिसे हम पूजें? यह सवाल आज़ादी की लड़ाई के दौर में नेहरू ने भारत माता की जय का नारा लगाने वालों से पूछा था। बाद में सुमित्रानंदन पंत ने कविता लिखी, ‘भारत माता ग्राम वासिनी, खेतों में फैला है श्यामल, धूल भरा मैला सा आंचल, गंगा-जमुना में आंसू जल, मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी।' इसी कविता का ‘मैला आंचल’ रेणु के यहां उपन्यास में बदल गया। दरअसल यह सब देश को समझने-पहचानने की कोशिश थी-  वह कविता, वह गद्य लिखने की कोशिश जिसका नाम भारत है। दिनकर ने इसी देश के लिए लिखा था कि ‘भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है।'

लेकिन यह कविता किसी मुग्ध भाव से नहीं लिखी जा रही थी, इस गद्य के पीछे कोई उन्माद नहीं था। इसी दौर में अपने नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में प्रसाद मगध के विलासी शासकों से कुपित चाणक्य के मुंह से कहला रहे थे, ‘क्या राष्ट्र की शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने इसीलिए किया था? मगध-मगध, सावधान! इतना अत्याचार सहना असंभव है। तुझे उलट दूंगा। नया बनाऊंगा, नहीं तो नाश ही कर दूंगा।' कहने की जरूरत नहीं कि मगध के इस रूपक का इस्तेमाल करते हुए प्रसाद को राष्ट्रवाद के उन्मादी ख़तरों का एहसास था। इसी दौर में संभव था कि एक शायर सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा लिख सकता था और दूसरा पूछ सकता था कि जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं।

भारत की कविता कहीं पीछे छूट गई है, भारत को समझ सकने वाला गद्य कहीं खो गया है। यह समझ भी बेमानी होती चली जा रही है कि राष्ट्रों की कोई जड़ मूर्ति नहीं हो सकती, वे हमेशा हिलते-डुलते, स्पंदित होते, और वक़्त के हिसाब से बदलते संगठन ही होते हैं। इन सबकी जगह बस भारत माता की जय के नारे ने ले ली है। यह सबसे आसान है। भारत माता की जय का नारा लगाया और देशभक्त हो गए। इतना नारा भर लगा लेने से आपको कानून तोड़ने का, दंगे करने का, भ्रष्टाचार करने का, महिलाओं से बलात्कार करने का लाइसेंस मिल जाता है।
इन दिनों ऐसी ही देशभक्ति उफान पर है- एक बहुत आसान किस्म की देशभक्ति, जिसके लिए न कोई त्याग करना पड़ता है, न किसी मर्यादा का पालन करना पड़ता है। बस उन लोगों को डराना-धमकाना और कभी-कभार पीटना होता है जो देश की इस अवधारणा को स्वीकार नहीं करते और मानते हैं कि देश की सेहत के लिए देश पर भी बहस ज़रूरी है।

भारतीय जनता पार्टी ऐसी ही देशभक्ति के सहारे अब राष्ट्र मंदिर की राजनीति करने चली है। हैदराबाद के रोहित वेमुला, और जेएनयू के उमर ख़ालिद और कन्हैया मिलकर उसके लिए प्रतिरोध की जो चट्टान बना रहे हैं, उसका सामना वह उन्माद की नदी बहाकर ही कर सकती है। इसलिए वह जेएनयू में कुछ शरारती तत्वों द्वारा लगाए गए चंद नारों को देश के लिए ख़तरनाक बता रही है। वह पूरे देश में ऐसा माहौल बनाने में लगी है जैसे जेएनयू किन्हीं बाहरी ख़ुफिया और दहशतगर्द एजेंसियों और संगठनों का ठिकाना हो जहां सिर्फ अय्याशी और देशद्रोह के नारे चलते हैं और जो लोग इसके समर्थन में खड़े हैं, वे भी गद्दार हैं। जबकि जेएनयू क्या है, वह अपने छात्रों को कैसी शिक्षा देता है और इस देश को कितने सारे जेएनयू चाहिए- यह बताने के लिए सिर्फ कन्हैया के बीते दिनों दिए गए भाषण ही पर्याप्त हैं।  

मामला जेएनयू के विरोध का नहीं है। बीजेपी और संघ परिवार को सिर्फ जेएनयू नहीं, कोई ऐसा संस्थान नहीं चाहिए जहां विवेक और वैज्ञानिक तर्क की बात होती है- जहां इतिहास, समाज-विज्ञान या अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नए शोध होते हों जो आधी-अधूरी धारणाओं को चुनौती देते और उन्हें ध्वस्त करते हों। उन्हें बस ऐसे करिअर बनाऊ इंस्टीट्यूट चाहिए जहां बच्चे दो साल पढ़ाई करें और फिर किसी नौकरी में लग जाएं- वे रुपये कमाने की जगह डॉलर को तरजीह दें और दिल्ली की जगह न्यूयॉर्क में भी रहना चाहें तो कोई यह नहीं पूछने वाला है कि उन पर हुई पढ़ाई की लागत किसके काम आ रही है। जो इससे इतर, छात्रों को कुछ सोचने-समझने का, लोकतंत्र, न्याय और बराबरी पर बहस करने का सबक सिखाते हैं, वे मंज़ूर नहीं किए जा सकते। तो यह सिर्फ जेएनयू में नहीं हो रहा, यह संस्थानों की सामूहिक हत्या का काम है जो लगातार चल रहा है।

क्योंकि बीजेपी अब राजनीति का नया एजेंडा बनाने की कोशिश में है। भव्य राम मंदिर के बाद वह राष्ट्र मंदिर का सपना बेच रही है। लेकिन जैसे राम मंदिर नहीं बना, वैसे ही राष्ट्र मंदिर भी नहीं बन पाएगा, क्योंकि वह इस देश की मूल आत्मा के ख़िलाफ़ है। मगर इस कोशिश में जैसे यूपी पीछे छूटा, इस बार भारत पीछे छूट जाएगा। क्योंकि यह थोपी हुई देशभक्ति- 270 फुट के तिरंगों के सहारे रोपा जाने वाला राष्ट्रवाद सिर्फ भय, संशय और टूटन पैदा करेंगे, गरिमा और गौरव का वह भाव नहीं, जुड़ाव और आत्मीयता का वह देशज ठाट नहीं, जिसके बीच कोई कन्हैया जेएनयू के छात्रों, खेतों के किसानों और सीमा के जवानों को एक साथ जोड़ सकता है। एक विराट, भरे-पूरे, विविधतापूर्ण, बहुलतावादी, गंगा-जमनी भारत को ख़त्म करके ही ऐसा राष्ट्र मंदिर बनाया जा सकता है- जो सच्चे भारतीयों को किसी हाल में मंज़ूर नहीं होगा।

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

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