हालिया समय में कुछ बयानों को लेते हैं. अभी हाल ही आईएमएफ बॉस गीता गोपीनाथ भारत दौरे पर थीं. उन्होंने जोर देकर कहा कि 7 प्रतिशत की वृद्धि तो हो रही है, लेकिन नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं. भारत को अधिक संख्या में नौकरियां पैदा करने की जरूरत है.
मार्च 2024 में आइएलओ रिपोर्ट में भी भारत में रोजगार की खराब स्थिति पर प्रकाश डाला गया. ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की रट लगाने वाली सरकार ने देश की सबसे बड़ी रोजगार प्रदाता कंपनियों में शामिल इंफोसिस को 32000 करोड़ का टैक्स नोटिस थमा चुकी थी. सरकार के इस कदम की भर्त्सना हो ही रही थी कि आईआईटी को भी रिसर्च ग्रांट पर 120 करोड़ का टैक्स नोटिस थमाया जा चुका था.
आखिर ऐसा क्यों है कि दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था के तमगे का ढोल पीटने वाली सरकार, जो पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने का दंभ भर रही है, वह न तो नौकरियां पैदा कर रही है और टैक्स बेस बढ़ाने के लिए टैक्स टेररिज्म पर उतारू है. जो सरकार इसका ढोल पीट रही है, वह 80 प्रतिशत जनता को जीवित रखने के लिए मुफ्त अनाज दे रही है. दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में लोगों को इजरायल और यूक्रेन जैसे युद्धग्रस्त इलाकों में नौकरियों के लिए जान जोखिम में डालना पड़ रहा है.
ऐसा करिश्मा करने का साहस सिर्फ मोदी सरकार ही कर सकती है. सरकार के धुर समर्थक माने जाने वालों में टी वी मोहनदास पई भी आलोचनात्मक लहजे में कहते हैं कि पूरे देश में मध्यम वर्ग बहुत दुखी है क्योंकि वे अधिकांश करों का भुगतान कर रहे हैं, उन्हें कोई कर कटौती नहीं मिल रही है, मुद्रास्फीति अधिक है. छात्रों की फीस बढ़ गई है. रहने की लागत बढ़ गई है.
वैसे मैं आंकड़ों का बहुत प्रेमी नहीं हूं, लेकिन अर्थव्यवस्था के मामले में इनके बिना आप कुछ बता नहीं सकते. आखिर सरकार सुधारों का इतना ढोल पीटती रही है, तो कोई मुझे यह समझाए कि देश में निजी निवेश इतना कमजोर क्यों है?
सरकार मेक इन इंडिया की दुदुंभी पीट रही है लेकिन विदेशी निवेशक देश नहीं आ रहे हैं. वे चीन छोड़ तो रहे हैं लेकिन मलेशिया, वियतनाम जैसे देशों का रुख कर रहे हैं. वैश्विक निवेशक भारत के दरवाजे तक पहुंचने के लिए अनिच्छुक रहे हैं और यहां तक कि घरेलू कंपनियां भी निवेश से कतराती रही हैं, खासकर विनिर्माण क्षेत्र में.
विदेशी संस्थागत निवेशक शायद इसलिए नहीं आ रहे हैं क्योंकि उन्हें कुछ ऐसा पता है जो देश की आम जनता को नहीं पता है. उन्हें सरकारी आंकड़ों पर भरोसा नहीं है. यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी के 2024 मई के एक लेख में कहा गया है भारत के आर्थिक प्रदर्शन का आकलन करना कठिन है क्योंकि सरकार ने 2011 के बाद से गरीबी और रोजगार पर आधिकारिक डेटा प्रकाशित नहीं किया है.
सरकार का "कर आतंकवाद" देश के विकास का नया मंत्र बन गया है. निवेशक भाग रहे हैं? विदेशी कंपनियां डर रही हैं? कानूनी लड़ाइयां बढ़ रही हैं? कर अनुपालन कम हो रहा है? क्या यह सरकार की नई कमाई का जरिया बन गया है.
विकास के नाम पर हम निवेश, विश्वास और कानूनी निश्चितता की बलि चढ़ा रहे हैं. शिकायत करने वालों को बताइए, यह सब “अच्छे दिनों“ की तैयारी है. बस धैर्य रखिए, शायद अगले जन्म में आपको विकास के फल मिल ही जाएंगे!
शायद हमारी सरकार को एक नया नारा अपनाना चाहिए: "आंकड़े छुपाओ, विकास बढ़ाओ!" क्योंकि जब तक कोई देख नहीं सकता, तब तक कोई सवाल भी नहीं पूछेगा. और अगर कोई पूछे भी, तो हम कह सकते हैं कि यह सब "राष्ट्रीय सुरक्षा" का मामला है. आखिरकार, एक खुशहाल अर्थव्यवस्था का मतलब है एक खुश जनता, और खुश जनता का मतलब है कम सवाल. तो क्या फर्क पड़ता है अगर हमारे पास नौकरियां नहीं हैं, या अगर हमारे आंकड़े गायब हैं? कम से कम हमारे पास एक बढ़िया कहानी तो है जिसे हम दुनिया को सुना सकते हैं!
(दिलीप पांडे दिल्ली की तिमारपुर विधानसभा सीट से AAP विधायक हैं.)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.