विज्ञापन
This Article is From Dec 31, 2014

महावीर रावत की कलम से : हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो 'पीके' है!

Mahavir Rawat
  • Blogs,
  • Updated:
    दिसंबर 31, 2014 12:41 pm IST
    • Published On दिसंबर 31, 2014 12:37 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 31, 2014 12:41 pm IST

पहले ही बता दूं मेरा नाम महावीर है और मुझसे ज्यादा हिन्दू नाम किसी का नहीं हो सकता। पीके या फिर किसी भी फिल्म का मेरे धर्म से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि धर्म इतना छोटा या नाज़ुक नहीं होता कि इन बातों से आहत हो जाए और वैसे भी मैंने सिवाय हिन्दू घर में पैदा होने के ऐसा कुछ नहीं किया कि मैं हिन्दू कहलाऊं। सच कहूं तो यह लेख लिखने के पीछे यह कोई मुद्दा भी नहीं है क्योंकि मैं किसी को धर्म के बारे में टिप्पणी करने वाला आखिरी व्यक्ति होता हूं।

पर, मैं सिनेमा का स्टूडंट रहा हूं। पुणे में सिंबॉयसिस कॉलेज से मास कम्यूनिकेशन के दौरान FTII के कई ऐसे प्रोफेसर आते थे, जो हमें फिल्मों के बारे में सिखाते रहे और बारीकियों को समझाते रहे। फिल्मों को देखने का नजरिया भी बदल गया। शायद अब इसीलिए हिन्दी फिल्मों से कोफ्त होती जा रही है और सिनेमा से प्यार भी कम होता जा रहा है। पर 'पीके' फिल्म के बारे में इतनी चर्चा हुई तो रहा न गया। मेरे कई सीनियर संवाददाताओं ने फिल्म की तारीफों में कसीदे पढ़ दिए तो जिज्ञासा और बढ़ गई।

फिल्म देखी तो बहुत कन्फूजिया गया (आमिर की भाषा में)। सिर्फ सिनेमा के लिहाज से बात करें तो फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे मैं प्रभावित हुआ। बेहद औसत फिल्म, बेहद औसत एक्टिंग और बेहद औसत स्क्रिप्ट और स्क्रीन-प्ले। मुझे हैरानी होती है कि फिल्म के पहले सीन में एलियन आमिर का लॉकेट कोई भारतीय चुरा लेता है। तो क्या भारत की यह छवि है कि आप आइये और पहले आपको यहां चोर ही मिलेंगे? वो भी तब जब आमिर अतुल्य भारत के ब्रैंड एम्बैसेडर हैं! खैर, डायरेक्टर की कहानी है, वह जो चाहे वो करे।

पर, पूरी फिल्म में ऐसा कोई सीन नहीं, ऐसा कोई डायलॉग नहीं और न ही ऐसा कोई विचार है, जो आपको सोचने पर मजबूर करता हो। वहीं पाकिस्तान के खिलाफ पहले नफरत फिर प्यार। वही बाबाओं की कहानी, जो आजकल न्यूज चैनल वाले बेहतर तरीके से दिखाने लग गए हैं और वही आमिर की ज्ञानवर्धक बातें, जो इतनी सारी हैं कि सीरीज 'सत्यमेव जयते' ही अलग से शुरू करनी पड़ गई।

मेरा पूरा जीवन खेल में बीता है इसलिए शायद फिल्मों को देखने का मेरा एक अलग नजरिया हो सकता है। लोगों को जो बातें परेशान करती हैं, शायद वो मुझे परेशान नहीं करतीं, लेकिन सच कहूं तो पीके एक बेहद औसत फिल्म है, जो अगर बड़े बैनर और बड़े स्टार के बिना आई होती तो शायद किसी को याद भी नहीं रहती, पर यह आमिर खान का पीआर है कि देश के बड़े-बड़े पत्रकार उसे स्टार पर स्टार दिए जा रहे हैं।

फ़िल्म का एक ही सीन मुझे पसंद आया। आमिर जब वाइन लेकर मस्ज़िद जा रहे होते हैं तो बैकग्राउंड में मिर्ज़ा ग़ालिब साहब का ये शेर बजता है - 'ज़ाहिद शराब पीने दे मस्ज़िद में बैठकर, या कोई जगह बता जहां ख़ुदा नहीं।'

मेरे एक फिल्म बनाने वाले दोस्त ने एक बार कहा था कि मनुष्य के जीवन में नौ रस होते हैं। कोई फिल्म अगर किसी एक रस को भी उजागर कर ले तो हमें वह फिल्म पसंद आती है। मेरे हिसाब से 'पीके' बेरस है।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
पीके, महावीर रावत, आमिर खान, PK, Aamir Khan, Mahavir Rawat