78 की उम्र में बीएस येदियुरप्पा आखिरकार देश की सर्वश्रेष्ठ और चतुर सियासी जोड़ी को साधने में सफल रहे. हम बात कर रहे हैं पीएम मोदी और अमित शाह की. पिछले एक महीने से येदियुरप्पा ने गहराई से हर पहलू का अध्ययन किया और जाना कि भाजपा उनके शेष कार्यकाल के लिए उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं रहेगी. यह देखते हुए उन्होंने कठोर फैसलों का चयन किया और यह सुनिश्चित किया कि उनका उत्तराधिकारी उनका खास होगा. इसका नतीजा है कि येदियुरप्पा के साथी और लिंगायत समुदाय से ताल्लुक रखने वाले बसवराज बोम्मई को सीएम बनाया गया.
बीएस येदियुरप्पा को सीएम पद से हटाने की योजना चार महीने पहले तेज हुई. इस क्रम में मैंने कई धुरंधरों से बात की जो कर्नाटक में सत्ता परिवर्तन के लिए बेंगलुरु और दिल्ली में बीजेपी मुख्यालय से संपर्क में थे. येदियुरप्पा को लेकर जो सबसे बड़ी बात वो सभी कहते हैं वो है : यह सिद्धांत कि बीएसवाई की राजनीतिक पूंजी, राज्य में और साथ ही पार्टी में, कम हो गई है, अतिशयोक्तिपूर्ण है.
संभवतः जुलाई 2019 में मुख्यमंत्री बनने के दौरान अपने नाम की स्पेलिंग में बदलाव कर वास्तु का जो उन्होंने इस्तेमाल किया था, वो काम कर गया. क्योंकि आमतौर पर अनुशासित भाजपा में गहरा असंतोष उभरने और तमाम विरोध के बावजूद वो उसे संभालने में कामयाब रहे. कर्नाटक में 20% लिंगायतों की भारी ताकत भी येदियुरप्पा के लिए विनिंग फैक्टर साबित हुई,जो ताकतवर और प्रभावशाली लॉबी रही है. पिछले हफ्ते जब यह स्पष्ट हो गया कि येदियुरप्पा कर्नाटके सीएम नहीं रहेंगे, तब भी लिंगायत संतों और पुजारियों ने उनके पक्ष में आवाज बुलंद की थी. बीजेपी ने बीएस येदियुरप्पा की विदाई के घटनाक्रम को सुरक्षित ढंग से पूरा किया, क्योंकि 2012 का अनुभव उसके दिमाग में था. 2012 में येदियुरप्पा ने बीजेपी छोड़कर अपनी पार्टी बना ली थी. उन्होंने 2013 के विधानसभा चुनाव में छह सीटें जीतीं और 10% वोट शेयर हासिल किया. यही वजह रही कि उस चुनाव में भाजपा की हार हुई और कर्नाटक सरकार का गठन कांग्रेस और एचडी कुमारस्वामी की जेडीएस के बीच साझेदारी से हुआ, लेकिन वो सरकार 2019 में गिर गई और येदियुरप्पा दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे. यह उनका कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद के तौर पर चौथा कार्यकाल था, लेकिन कभी भी वो पांच साल के लिए मुख्यमंत्री नहीं रहे. वर्ष 2019 में जब येदियुरप्पा बीजेपी में वापस आए तो पार्टी ने लोकसभा चुनाव में 28 में से 26 सीटें जीत ली थीं.
येदियुरप्पा ने हमेशा ही यह स्पष्ट किया है कि उन्हें दरकिनार नहीं किया जा सकता. उन्हें 2011 में भ्रष्टाचार के आरोप में इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था. उसी तरह की आवाजें इस बार फिर उभरीं - ज्यादातर उनकी अपनी ही पार्टी से - यह कि उनके कुछ पारिवारिक सौदे संदेहास्पद हैं - यह कि उनके बेटे सरकार चला रहे हैं. येदियुरप्पा टस से मस नहीं हुए - इससे बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को निरशा हुई और आरएसएस, जो कि अपने निर्देशों के पूर्ण अनुपालन की मांग करता है, वो ज्यादा ही असहज हुआ. पीएम मोदी, अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ तीन "एक्जिट इंटरव्यू" के बाद पद छोड़ने के लिए सहमत हुए येदियुरप्पा काफी हद तक अपनी बात मनवाने में कामयाब रहे.
येदियुरप्पा की मुख्य मांग थी कि उनके दो बेटों बीवाई विजयेंद्र (असंतुष्ट जिन्हें सुपर सीएम कहते थे) और बीवाई राघवेंद्र को बड़ी भूमिका दी जाए. बीजेपी में उनकी जगह सुरक्षित करने के लिए, जैसा कि वेंकैया नायडू अक्सर कहा करते थे कि "वंशवाद बुरा है", येदियुरप्पा इस बात पर अड़े थे कि उनके पूर्ववर्ती डिप्टी बसवराज बोम्मई को 2023 के चुनाव के पहले नया नेता बनाया जाए. वर्ष 2008 में बोम्मई ने जनता दल (यूनाइटेड) छोड़कर बीजेपी का दामन थामा था. बोम्मई की पहले भी येदियुरप्पा के प्रति वफादारी काफी भरोसे लायक रही थी. यह भी तथ्य है कि बोम्मई भी वंशवादी राजनीति से निकले राजनेताहैं. बोम्मई के पिता एसआर बोम्मई भी 1980 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. कर्नाटक में अपना वंशवाद का छोटा कुनबा कायम करने को लेकर येदियुरप्पा लगातार हमले झेल रहे थे. बीएसवाई ने पीएम मोदी से सीधे तौर पर अनुरोध किया था कि उनकी करीबी भरोसेमंद शोभा करांदलजे को केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जगह दी जाए, इस मांग को पिछले महीने पूरा भी कर दिया गया. यह सब येदियुरप्पा के पहले ट्रैक रिकॉर्ड के अनुरूप ही रहा है, जो शरद पवार की तरह एक चतुर राजनेता के तौर पर जाने जाते हैं. लेकिन शरद पवार से अलग उनकी भावनाओं का गुबार फूट ही पड़ा, जब सोमवार को सार्वजनिक तौर पर उन्होंने अपने त्यागपत्र का ऐलान किया.
संभवतः येदियुरप्पा के लिए सबसे बेहतरीन प्रतिशोध यही रहा है कि उन्होंने कथित तौर पर यह साफ कर दिया है कि बीजेपी उनके गृह राज्य कर्नाटक में चुनाव के लिए तैयार है और वह अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी बीएल संतोष को प्रबल उम्मीदवारों के दायरे में नहीं रहने देंगे. सूत्रों के अनुसार, यह बात जेपी नड्डा को स्पष्ट तौर पर यह संदेश दे दिया गया है. संतोष आरएसएस से ताल्लुक रखते हैं और बीजेपी के लिए संगठन महासचिव के प्रभावशाली पद पर सेवाएं दे रहे हैं. वो लंबे समय से कर्नाटक में अपने लिए बड़ी भूमिका चाह रहे हैं. बीएसवाई निजी तौर पर उन्हें बिना जनाधार वाला नेता बताकर नकार चुके हैं. संतोष कर्नाटक के ब्राह्मण नेता हैं और उन्हें ज्यादा राजनीतिक समर्थन नहीं मिला है. लेकिन वो लगातार कर्नाटक के मामलों में दखल देते रहे हैं. यहां तक कि राज्यसभा सीटों के आवंटन को लेकर भी उनका हस्तक्षेप देखा गया.
येदियुरप्पा कई बड़े बदलावों को वजह बने. संघ, विशेषकर आरएसएस, अब वास्तविक रूप से राजनीति में है. "पवित्रता परीक्षण" और संघ की विचारधारा एक नेता के दबदबे से अब कम मायने रखती है. मुख्य उदाहरण हैं - कांग्रेस से गए हिमांता विश्व शर्मा का असम का मुख्यमंत्री बनना; ज्योतिरादित्य सिंधिया जिन्होंने कांग्रेस छोड़ी और मार्च 2020 में मध्यप्रदेश सरकार गिराई, वो कैबिनेट में पहुंच गए; और बोम्मई, जिनका संघ में कोई वैचारिक आधार नहीं है, के पास अब दक्षिण में भाजपा की एकमात्र सरकार का प्रभार है. "मोहन भागवत जी की वर्तमान टीम, जिसमें कार्यकारी प्रमुख दत्तात्रेय होसबले भी शामिल हैं, पूरी तरह से मोदी की भाजपा के साथ है. आपने कोरोना की दूसरी लहर में मोहन भागवत को सरकार का बचाव करते देखा होगा. पिछले सात वर्षों से वास्तविक सत्ता का स्वाद चखने के बाद, संघ अब व्यावहारिक है, वैचारिक कठोरता पर जोर नहीं दे रहा है. भागवत जी कहते हैं कि संघ कठोर नहीं हो सकता क्योंकि भाजपा अब भारतीय राजनीति का प्रमुख ध्रुव है जो अन्य दलों के नेताओं को आकर्षित करेगी," आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने मुझे बताया.
यह एपिसोड येदियुरप्पा को पद से हटाकर समाप्त हुआ लेकिन फिर भी कमान काफी हद तक उनके ही हाथों में है.
स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो 'इंडियन एक्सप्रेस', 'द स्टेट्समैन' तथा 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' के साथ काम कर चुकी हैं...
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