भाजपा के साथ नीतीश के शासन के 100 दिन : किसने क्या खोया, क्या पाया

नीतीश कुमार के भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाए 100 दिन हो गए हैं और ऐसे में यह जानना दिलचस्‍प है कि इससे किसको क्‍या नफा-नुकसान हुआ.

भाजपा के साथ नीतीश के शासन के 100 दिन : किसने क्या खोया, क्या पाया

मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के साथ सुशील कुमार मोदी (फाइल फोटो)

इस साल के सबसे बड़े राजनीतिक घटनाक्रमों में बिहार का सत्ता परिवर्तन यानी सत्ता से राजद की विदाई और भाजपा के साथ नीतीश कुमार का सरकार बनाना भी शामिल है. 26 जुलाई यानी जिस दिन और जिस समय नीतीश ने इस्तीफ़ा दिया, उसके कुछ घंटे पहले तक दिल्ली से लेकर पटना तक कुछ चुनिंदा लोगों को छोड़ दें तो किसी को इस राजनीतिक परिवर्तन का अंदाज़ा तक नहीं था.

नीतीश कुमार के भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाए 100 दिन हो गए हैं और ऐसे में यह जानना दिलचस्‍प है कि इससे किसको क्‍या नफा-नुकसान हुआ. अगर नुकसान की बात करें तो निश्चित रूप से राजद और कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा. लालू, जो शायद अपने बेटे तेजस्वी यादव की बर्ख़ास्तगी के इंतज़ार में बैठे थे, वो इस राजनीतिक घटनाक्रम पर बिलकुल स्टम्प आउट हुए. कांग्रेस पार्टी ने एक राज्य में अपने समर्थन और सहयोग से चल रही सरकार गंवाई और उसके बाद से अभी तक अपने विधायकों को बचाने के लिए दिल्ली से पटना तक जद्दोजहद कर रही है. सत्ता में होने के कारण लालू यादव की पूरे राज्य में अधिकारियों और प्रशासन पर जो हनक थी, वो चली गई. नुक़सान नीतीश कुमार को भी अभी तक उठाना पड़ रहा है. पूरे देश में उनकी राजनीतिक साख प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्‍मीदवार और मोदी विरोधी के रूप में बनी थी, वह पूरी तरह से चली गयी. ख़ुद उनकी पार्टी में दो फाड़ हो गया. आज की तारीख़ में राष्ट्रीय स्तर पर उनकी किसी को ज़रूरत नहीं है और इस सच को उनसे अच्छा कोई नहीं जानता. उनकी छवि कम से कम लालू यादव की तुलना में कम भरोसेमंद नेता की हो गयी. लेकिन नीतीश ने इस बात का आकलन कर लिया था कि अगर लालू के साथ रह कर सरकार चलाने की एक्टिंग वो करते रहे तो राजनीति में शायद अपनी सारी पूंजी गंवा बैठते.

निश्चित रूप से नीतीश अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के चक्कर में एक बार फिर भाजपा के शरण में गए. कई लोग, जातियां और वर्ग अभी भी नीतीश के इस फ़ैसले को पचा नहीं पा रहे हैं. इसका आधार यही होता है कि 2015 का जनादेश राज्य में विकास के साथ-साथ मोदी से लड़ने का भी था. राजनीतिक रूप से इस फ़ैसले पर जनता का मूड जानने के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव तक इंतजार करना होगा. लेकिन हां, पिछले 100 दिनों का आकलन करें तो राज्य में क़ानून का राज क़ायम हुआ है. यह एक ऐसी उपलब्धि है जो राज्य में रहनेवाला इंसान महसूस कर सकता है. आम आदमी से पूछेंगे तो वो यही कहेगा कि राज्य में शांति है और विकास का एजेंडा वापस राज्य में महसूस किया जा सकता है. इसका मतलब ये नहीं कि राज्य में अपराध नहीं हो रहा या घोटाले नहीं हो रहे. लेकिन ये सच है कि भाजपा लालू की तरह सत्ता में डिक्टेट करने की कोशिश नहीं कर रही, जिसका असर सत्ता के गलियारे में देखा जा सकता है. हां, क़ानून व्यवस्था में अपराधियों को सज़ा दिलाने की तत्‍परता जैसी नीतीश कुमार के पहले दौर में दिखती थी उसका मुक़ाबला अब ख़ुद नीतीश नहीं करना चाहते. इसका एक कारण उनकी शराबबंदी से शुरू की गई लड़ाई भी है.

शराबबंदी शुरुआती दिनों में तो बिहार में सफल थी लेकिन अब पुलिस और सरकार की उदासीनता के कारण और होम डिलिवरी के कारण शराब के हर गांव और शहर में ऐसे नए 'जमींदार' बन रहे हैं जो अपराधी हैं और नीतीश कुमार को हर पल चुनौती दे रहे हैं. इस धंधे में मुनाफा इतना ज्‍यादा है कि पुलिस, जिसके ऊपर उन्हें गिरफ़्तार करने और अंकुश लगाने का ज़िम्मा है, वो एक पार्टनर बन चुकी है. पुलिस अधिकारियों की नाक के नीचे शराब का धंधा फल-फूल रहा है, अगर आप शिकायत करना चाहेंगे तो नहीं कर सकते. नीतीश कुमार एक सीमा से ज़्यादा बिहार पुलिस के ख़िलाफ़ नहीं सुनते. अपने घर में एक बैठक कर नीतीश ये फ़ैसला कर सकते हैं कि लालू के साथ रहना राजनीतिक रूप से आत्मघाती हो सकता है. अगर वह शराब के अवैध धंधे पर अंकुश लगाना चाहेंगे तो फ़ीडबैक देने के लिए उनकी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता से अच्छा कोई नहीं हो सकता. ज़रूरत और अभाव उनकी इच्छाशक्ति का है जिसकी फ़िलहाल कमी दिखती है.

लेकिन पिछले 100 दिनों के कार्यकाल में जिस बात का नीतीश के विरोधी ध्‍यान रखेंगे वो है घोटालों का उजागर होना. निश्चित रूप से सृजन घोटाले से नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर दाग़ लगे है. हालांकि जहां चारा घोटाला में लालू यादव का साज़िशकर्ताओं और घोटालेबाज़ों के साथ सीधा संबंध रहा और सभी की लालू यादव के पास सीधी पहुंच थी. लेकिन सृजन घोटाले के मामले में आज तक नीतीश के ख़िलाफ़ ऐसा कोई सबूत नहीं आया और ना ही ऐसी कोई अफ़वाह सुनने को मिलती है. नीतीश कुमार की व्‍यक्तिगत छवि अभी भी बेदाग है. चारा घोटाले की जांच सीबीआई के पास न जाए, इसके लिए लालू यादव ने उस वक्‍त देश के सारे टॉप के वकीलों को लगा दिया था, वहीं नीतीश ने कुछ दिनों में ही सृजन घोटाले की जांच सीबीआई को दे दी. लेकिन इस घोटाले से जुड़े कई सवाल हैं जो नीतीश कुमार की विफलता साबित करते हैं. राज्‍य सरकार की एक अधिकारी जयश्री ठाकुर के घर पर छापेमारी हुई और सृजन में उनका और सरकार का पैसा जमा पाया गया. आर्थिक अपराध इकाई, जो नीतीश कुमार के तहत काम करती है, उस मामले की जांच चार वर्ष पूर्व शुरू करती है लेकिन ठाकुर अपने पद पर बनी रहती हैं. उनके ख़िलाफ़ तीन वर्ष पहली चार्जशीट दायर होती है लेकिन इस एजेंसी के अधिकारी घोटाले तक नहीं पहुंच पाते. जब भागलपुर के एक चार्टर्ड अकाउंटंट की शिकायत पर जांच होती है तब इस मामले को दबाया जाता है. सृजन से लाभान्वित अधिकारी अभी भी अपने पद पर बैठे हैं. आख़िर नीतीश सरकार की क्या मजबूरी है कि इनके खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई करने से ये भी बच रही है. और भी कई ऐसे विभाग हैं जहां घोटाले उजागर हो रहे हैं, जो यही साबित करता है कि नीतीश सरकार घोटाला रहित नहीं रही. नया उदाहरण शौचालय घोटाला का है जिसमें दस हज़ार लाभार्थियों के पैसे कुछ एनजीओ को दे दिए गए.

लेकिन सब कुछ नकारात्मक ही नहीं है. जैसे भाजपा के साथ सरकार बनी तब गौरक्षकों ने कुछ जगहों पर अपनी सक्रियता दिखायी जिससे शुरू में लगा कि यहां भी वो अपनी मनमानी करेंगे. लेकिन पुलिस और प्रशासन की कार्रवाई के चलते अब बिहार में उनकी दाल नहीं गलने वाली. निश्चित रूप से इसका श्रेय बिहार भाजपा के नेताओं को भी जाता है जो धर्म के नाम पर विवाद से बचते हैं. इसलिए जब दुर्गा की प्रतिमा को दशहरा के दिन ही विसर्जन का आदेश हुआ तब भाजपा के मंत्री और नेता सरकार के इस आदेश के पीछे खड़े रहे. इसके अलावा नीतीश ने आउटसोर्सिंग में आरक्षण का प्रावधान किया. और अब चर्चा है कि सहकारिता में भी जातीय आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी.

हां, 100 दिनों में भाजपा अपने नए तेवर में ज़रूर दिखती है. वह हर मुद्दे पर नीतीश से ज़्यादा नहीं, तो कम भी नहीं दिखना चाहती. लेकिन ये स्वाभाविक है. अब भाजपा के बॉस मोदी-शाह हैं जिनकी राजनीति का सबसे बड़ा हथियार अपने से ज़्यादा अपने विरोधियों के भी अच्‍छे काम का क्रेडिट ले लेना है. यहां पर नीतीश के पास संसाधन और पार्टी दोनों ही हथियारों का अभाव है.

केंद्र और राज्य में एक पार्टी की सरकार होने से विकास में कोई दिक़्क़त नहीं आएगी, ये शायद एक ऐसा डिपार्टमेंट है जहां भाजपा नीतीश को मात नहीं दे पायी. बाढ़ राहत की बात करें तो अंतरिम राहत के नाम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी तक मात्र 500 करोड़ ही दे पाए. बाढ़ से हुई क्षति का जायजा लेने आई केंद्रीय टीम के वापस जाने के बाद भी बिहार को आख़िरकार कितनी राशि मिलेगी, यह कोई नहीं जानता.

प्रधानमंत्री मोदी ने पटना विश्‍वविद्यालय के कार्यक्रम में नीतीश कुमार की मांग को जिस तरह से टाला, उसके बाद अब बिहार के भाजपा नेता भी स्वीकार करते हैं कि अगर यह मांग पूरी कर दी जाती, तो प्रधानमंत्री की छवि बढ़ती और ऐसा नहीं करके उन्होंने गठबंधन को ही परेशानी में डाल दिया.

यहां पर नीतीश कुमार ने भी अभी तक अपनी प्रतिक्रिया से सबको मायूस किया है. नीतीश के समर्थक भी मानते हैं कि पुराने नीतीश होते तो शायद मोदी के रिजेक्शन के बाद अगले ही दिन से राज्य के विश्वविद्यालय की हालात कैसे सुधरे, उसे लक्ष्य बनाकर जुट जाते. लेकिन इस बार नीतीश ने यह कहकर कन्नी काट ली कि राज्य सरकार का काम आर्थिक अनुदान देने का है और राज्य के विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्थान हैं. तथ्य के आधार पर नीतीश सच हो सकते हैं लेकिन राजनीति और प्रशासन में झुकना उनकी पहचान नहीं थी.

लालू यादव से हर बार दूरी बनाने का नीतीश का मुख्य आधार भ्रष्टाचार का मुद्दा रहा. लेकिन जिस भाजपा के सहयोग से वो सरकार चला रहे हैं उसे ना तो बंगाल में मुकुल रॉय से परहेज़ है और ना ही हिमाचल में सुखराम से. इस भाजपा को महाराष्ट्र में नारायण राणे को भी एनडीए में शामिल करने में हिचक नहीं है. इसका सीधा परिणाम नीतीश को भी मालूम है कि अपने विरोधी लालू के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार अब बड़ा मुद्दा नहीं रहेगा. बिहार भाजपा के नेता भी मानते हैं कि भले बयानबाज़ी कर लें लेकिन अब लालू यादव या तेजस्वी यादव चाहे किसी मामले में जेल चले जाएं, उसका कोई लाभ उन्हें नहीं मिलने वाला.

नीतीश के लिए पिछले 100 दिन हों या आने वाले दिन, उनका मुकाबला उनके अपने ही काम से होगा. भले मीडिया में उनका विश्‍लेषण 100 दिनों का हो रहा हो लेकिन अगर कुछ महीनों को छोड़ दें तो नीतीश बिहार की सत्ता में 12 साल से बैठे हैं. इसके बावजूद अगर शहर में गांव जैसा माहौल हो, ट्रैफिक व्‍यवस्‍था ठीक न हो, स्‍कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की गुणवत्ता हंसी का कारण हो, तब निश्चित रूप से नीतीश और बीजेपी के लिए ये चिंता का विषय है. ये बात अलग है कि जब तक विपक्ष में लालू यादव और तेजस्वी यादव हैं तब तक बिहार के ऐसे सामाजिक वर्गीकरण और जातिगत शतरंज  की सच्‍चाई यही है कि फ़िलहाल उनकी कुर्सी दूर-दूर तक खतरे में नहीं दिखती. लेकिन अगर कुछ गलत है तो सबकी उम्मीद यही है कि सुधार हो. और पिछले 100 दिनों में सबसे बड़ा परिवर्तन यही है कि बिहार के लोग एक बार फिर सवाल करने लगे हैं कि ये चीज अब तक गलत क्यों है और अगर सही नहीं है तो ये कब तक ठीक हो जाएगी.

मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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