
- बिहार चुनाव में महागठबंधन का मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने को लेकर कांग्रेस चुप्पी साधे हुए है
- 2020 में राजद महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, जबकि कांग्रेस को महज उन्नीस सीटें मिली थीं
- कांग्रेस का प्रयास है कि वह पिछली बार जितनी सीटें मिली थीं, उतनी सीटें और राजनीतिक प्रभाव बनाए रखे
बिहार की राजनीति में महागठबंधन की रणनीति एक बार फिर चर्चा में है. विधानसभा चुनावों की आहट तेज होते ही सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि क्या कांग्रेस तेजस्वी यादव को खुले तौर पर मुख्यमंत्री पद का चेहरा मानेगी या सीटों की सौदेबाज़ी और संगठनात्मक गणित के कारण वह इस मुद्दे पर फिलहाल चुप्पी साधे रहेगी. जब यही सवाल कांग्रेस नेता राहुल गांधी से पूछा गया तो भी सवाल को टाल गए और एक तरह से यह जाहिर कर दिया कि महागठबंधन बिना किसी मुझ्यमंत्री के चेहरे के मैदान में उतरेगी.
अगर 2020 के विधानसभा चुनावों पे नज़र डाले तो महागठबंधन के घटक दलों में राजद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. राजद को 75 सीटें मिलीं वही कांग्रेस को मात्र 19 सीटें और वामपंथी दलों को 16 सीटों पर सफलता मिली थी. कांग्रेस को अपने प्रदर्शन पर गहरा झटका लगा और अंदरखाने यह सवाल उठने लगा कि क्या पार्टी को इतनी सीटों पर लड़ना ही चाहिए था। बावजूद इसके, तेजस्वी यादव ने महागठबंधन का चेहरा बनकर चुनाव प्रचार किया और विपक्ष के मतों को एकजुट करने में बड़ी भूमिका निभाई.
कांग्रेस का बिहार में जनाधार सिमटा हुआ है. ऐसे में कांग्रेस की सबसे बड़ी कोशिश यही है कि वह सीटों की संख्या और अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बचाए रखे. पार्टी के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि अगर कांग्रेस चुनाव से पहले तेजस्वी को ही सीएम उम्मीदवार घोषित कर देती है, तो सीटों पर सौदेबाज़ी में उसकी स्थिति कमजोर होगी, वोटरों की नज़र में कांग्रेस केवल जूनियर पार्टनर बनकर रह जाएगी और इनके स्थानीय नेताओं का मनोबल गिरेगा.
मामले को और दिलचस्प बना दिया है उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने, जिन्होंने हाल ही में साफ संकेत दिए कि उनकी पार्टी राजद और तेजस्वी यादव के साथ खड़ी है. अखिलेश का यह कदम संदेश देता है कि राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दल एक-दूसरे को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं. इससे कांग्रेस पर दबाव और बढ़ गया है, क्योंकि यदि विपक्षी एकता की कमान तेजस्वी के हाथ में जाती है, तो बिहार में कांग्रेस की bargaining power और कमजोर होगी.
कांग्रेस फिलहाल दोहरे मोर्चे पर सोच रही। कांग्रेस चाहती है कि उसे कम से कम पिछली बार जितनी सीटें (19) तो मिलें ही, साथ ही मुस्लिम-बहुल और शहरी सीटों पर भी उसका दावा हो। पार्टी यह भी मानती है कि चुनाव से पहले सीएम चेहरा तय करने के बजाय, नतीजों के बाद परिस्थिति के अनुसार फैसला किया जाए। कांग्रेस का यह भी मानना है कि जब तक विपक्षी दलों के बीच साझा न्यूनतम कार्यक्रम तय न हो, तब तक चेहरा तय करना जल्दबाज़ी होगी।
वहीं तेजस्वी यादव के सामने यह चुनाव उनके राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी परीक्षा होगी. महागठबंधन के भीतर उनका कद निर्विवाद है,युवाओं और रोज़गार के मुद्दे पर उन्होंने अपनी पहचान बनाई है, लेकिन कांग्रेस की हिचकिचाहट उनके नेतृत्व को अधूरा संदेश देती है.
तेजस्वी की कोशिश यही है कि कांग्रेस को अपने साथ मजबूती से खड़ा किया जाए, क्योंकि मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के साथ परंपरागत रूप से जुड़ा रहा है। वही कांग्रेस कतरा रही है. अपने भविष्य की राजनीति की चिंता करके. कांग्रेस नहीं चाहती कि वह पूरी तरह से राजद की परछाई बन जाए. कांग्रेस सीटों के बंटवारे में बेहतर सौदेबाज़ी के लिए आखिरी वक्त तक दबाव बनाए रखना चाहती है और कांग्रेस नेतृत्व का ध्यान केवल बिहार तक सीमित नहीं है, बल्कि वह 2029 की दिशा में क्षेत्रीय दलों के साथ संतुलन साधना चाहता है.
बिहार के चुनाव में महागठबंधन की एकजुटता ही विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत होगी, लेकिन अगर कांग्रेस और राजद के बीच मुख्यमंत्री चेहरे पर अस्पष्टता बनी रहती है, तो इसका लाभ भाजपा-एनडीए को मिल सकता है. फिलहाल कांग्रेस का रुख यह साफ करता है कि वह तेजस्वी यादव को अभी से सीएम चेहरा घोषित करके अपनी bargaining power गंवाना नहीं चाहती. कांग्रेस की यह रणनीति दोधारी तलवार है. एक ओर वह अपने लिए सीटों की अच्छी-खासी संख्या सुरक्षित करना चाहती है, वहीं दूसरी ओर विपक्षी एकता को भी बनाए रखना उसके लिए मजबूरी है.
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