
- सीवान की राजनीति में शहाबुद्दीन का नाम और उनके परिवार की छवि आज भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.
- राजद पार्टी ने सीवान को अपना गढ़ माना है, जहां शहाबुद्दीन ने लोकसभा सीट पर चार बार जीत हासिल की थी.
- 2024 के लोकसभा चुनाव में शहाबुद्दीन के परिवार के सदस्य चुनाव हार गए, फिर भी स्थानीय सहानुभूति बरकरार है.
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की सरगर्मी जैसे-जैसे बढ़ रही है. पूरे प्रदेश की निगाहें एक बार फिर सीवान पर टिक गई हैं. वजह है – शहाबुद्दीन फैक्टर. पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन अब भले ही इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनका नाम, उनकी राजनीतिक पकड़ और उनके परिवार की छवि आज भी सीवान की सियासत की धुरी मानी जाती है. राजद (RJD) हमेशा से सीवान को अपना गढ़ मानती आई है. शहाबुद्दीन की राजनीति में लोकसभा सीट पर चार बार चुनाव जीते हैं. 1996 से 2009 तक वे इस सीट पर काबिज रहे. साल 2009 के बाद 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में हिना शहाब ने आरजेडी के टिकट पर चुनाव लड़ा. लेकिन वे यहां से चुनाव जीत नहीं सकीं. 2009 में यहां से निर्दलीय ओम प्रकाश ने चुनाव जीता. वहीं दूसरी बार बीजेपी के टिकट से 2014 का चुनाव भी ओमप्रकाश यादव ने जीता.
साल 2019 में जदयू से कविता सिंह ने चुनाव यहां से जीता था. 2021 में मोहम्मद शहाबुद्दीन की मौत के बाद यह 2024 में पहला लोकसभा चुनाव था. जब हिना शाहब और उनके पुत्र ओसामा अकेले ही चुनाव लड़े और लगभग 3 लाख वोट पाए लेकिन जीत ना सके. उसके बाद भी स्थानीय स्तर पर अब भी उनके प्रति सहानुभूति और जुड़ाव दिखाई देता है. सवाल यह है कि 2025 में यह भावनात्मक जुड़ाव क्या वोट में तब्दील होगा?
विपक्ष की रणनीति
भाजपा और जदयू जैसे दल इस बार सीवान को नई सोच और विकास एजेंडे के जरिए साधने की कोशिश में हैं. खासतौर पर युवाओं और पहली बार वोट डालने वालों को लुभाने पर जोर दिया जा रहा है. इनके लिए शहाबुद्दीन का नाम इतिहास का हिस्सा तो है. लेकिन प्राथमिकताएं रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा की ओर झुक रही हैं.
जातीय और सामाजिक समीकरण
सीवान का राजनीतिक समीकरण हमेशा से जातीय आधार पर प्रभावित रहा है. शहाबुद्दीन का दबदबा मुस्लिम और यादव वोट बैंक को एकजुट रखने में अहम माना जाता था. 2025 में भी राजद इन्हीं समीकरणों को साधने की कोशिश करेगी. हालांकि विपक्षी दल छोटे-छोटे सामाजिक समूहों और पिछड़े तबकों को जोड़कर इस मजबूत किले में सेंध लगाने की रणनीति बना रहे हैं.
विशेषज्ञों की रायराजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शहाबुद्दीन फैक्टर पूरी तरह गायब नहीं हुआ है. भावनात्मक जुड़ाव और परिवार की लोकप्रियता अब भी असर डालती है. लेकिन पहले जैसा सर्वशक्तिमान दबदबा अब नहीं बचा. आने वाले चुनाव में यह फैक्टर निर्णायक साबित होगा या सिर्फ चर्चा का हिस्सा रहेगा. यही देखना दिलचस्प होगा. सीवान का नाम लिए बिना बिहार की राजनीति अधूरी मानी जाती है. 2025 का विधानसभा चुनाव यह तय करेगा कि शहाबुद्दीन फैक्टर अब भी चुनाव जीतने का पासपोर्ट है या फिर यह सिर्फ अतीत की गाथा बनकर रह जाएगा.
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