प्रतीकात्मक फोटो
नई दिल्ली:
पीपरा विधान सभा क्षेत्र के सरियतपुर गांव के कमलेश ठाकुर के पास न तो खेती के लिए जमीन है और न ही गांव में रोजीरोटी का कोई दूसरा जुगाड़ है। लिहाजा परिवार पालने के लिए जब घर से निकले तो 1100 किमी दूर असम जाकर ठिकाना मिला। एनडीटीवी की टीम जब सरियतपुर पहुंची तो कमलेश दुर्गा पूजा की छुट्टी में घर आए हुए थे। उनके पास खेती के लिए जमीन नहीं है और गांव में साल भर काम मिलता नहीं है।
परिवार का पेट पालने के लिए घर से दूरी
कमलेश कहते हैं, 'गांव में पेट भरने के लिए साधन नहीं हैं। जान की बाजी लगाकर असम में काम करता हूं, जिससे परिवार का पालन-पोषण चल सके।' कमलेश कहते हैं कि गांव के आसपास छोटी-मोटी फैक्टरी भी होती तो रोजगार के लिए परिवार को छोड़कर इतनी दूर नहीं जाना पड़ता।
कमलेश के पड़ोसी राजकिशोर ठाकुर कहते हैं पलायन इस पूरे इलाके में दलित समुदाय की एक बड़ी मजबूरी है। राजकिशोर रोजगार के लिए हिमाचल प्रदेश के नालागढ़ में रहते हैं। उन्होंने एनडीटीवी से कहा, 'गांव में कोई काम नहीं मिलता है। यहां सब बाहर रहते हैं। किसी के पास खेती-बाड़ी नहीं है।'
परिवार चलाने का जिम्मा महिलाओं पर
पीपरा विधान सभा क्षेत्र के सरियतपुर गांव के हर दलित परिवार की यही कहानी है। गांव में दलित समुदाय का तकरीबन हर कामगार मर्द काम की तलाश में गांव छोड़ पलायन कर चुका है। पुरुषों के बाहर जाने के बाद परिवार चलाने की सारी जिम्मेदारी परिवार की महिलाओं को उठानी पड़ रही है। बच्चों की परवरिश से लेकर घर का सारा काम उन्हें अकेले करना पड़ता है।
जाति के लिए वोट मांगते हैं, विकास से वास्ता नहीं
गांव के महादलित समुदाय की कहानी भी कोई जुदा नहीं है। राकेश कहते हैं, 'इस बार भी चुनाव से पहले नेता आ रहे हैं। वे फिर वादा कर रहे हैं कि रोजगार देंगे, लेकिन चुनाव बीत जाने के बाद यहां होता कुछ नहीं है।' उनकी पड़ोसन दया देवी बेंत का सामान बनाकर रोजाना 100-150 रुपये कमा लेती हैं। वह कहती हैं परिवार में 12 लोग हैं और इतने लोगों का खर्च उठाना मुश्किल हो रहा है। वे नाराज हैं कि नेता हर बार जाति के नाम पर उनसे वोट मांगते हैं और इलाके के विकास पर कभी ध्यान नहीं देते।
मुश्किल यह है कि इस गांव के गरीब लोगों तक सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं पहुंच पा रहा है, जिसकी वजह से उनका आर्थिक संकट और गहराता जा रहा है। अब ऐसे परिवारों के लिए इस बार पलायन ही सबसे अहम चुनावी मुद्दा बन गया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस बार के चुनाव से क्या इस इलाके की तस्वीर बदलेगी?
परिवार का पेट पालने के लिए घर से दूरी
कमलेश कहते हैं, 'गांव में पेट भरने के लिए साधन नहीं हैं। जान की बाजी लगाकर असम में काम करता हूं, जिससे परिवार का पालन-पोषण चल सके।' कमलेश कहते हैं कि गांव के आसपास छोटी-मोटी फैक्टरी भी होती तो रोजगार के लिए परिवार को छोड़कर इतनी दूर नहीं जाना पड़ता।
कमलेश के पड़ोसी राजकिशोर ठाकुर कहते हैं पलायन इस पूरे इलाके में दलित समुदाय की एक बड़ी मजबूरी है। राजकिशोर रोजगार के लिए हिमाचल प्रदेश के नालागढ़ में रहते हैं। उन्होंने एनडीटीवी से कहा, 'गांव में कोई काम नहीं मिलता है। यहां सब बाहर रहते हैं। किसी के पास खेती-बाड़ी नहीं है।'
परिवार चलाने का जिम्मा महिलाओं पर
पीपरा विधान सभा क्षेत्र के सरियतपुर गांव के हर दलित परिवार की यही कहानी है। गांव में दलित समुदाय का तकरीबन हर कामगार मर्द काम की तलाश में गांव छोड़ पलायन कर चुका है। पुरुषों के बाहर जाने के बाद परिवार चलाने की सारी जिम्मेदारी परिवार की महिलाओं को उठानी पड़ रही है। बच्चों की परवरिश से लेकर घर का सारा काम उन्हें अकेले करना पड़ता है।
जाति के लिए वोट मांगते हैं, विकास से वास्ता नहीं
गांव के महादलित समुदाय की कहानी भी कोई जुदा नहीं है। राकेश कहते हैं, 'इस बार भी चुनाव से पहले नेता आ रहे हैं। वे फिर वादा कर रहे हैं कि रोजगार देंगे, लेकिन चुनाव बीत जाने के बाद यहां होता कुछ नहीं है।' उनकी पड़ोसन दया देवी बेंत का सामान बनाकर रोजाना 100-150 रुपये कमा लेती हैं। वह कहती हैं परिवार में 12 लोग हैं और इतने लोगों का खर्च उठाना मुश्किल हो रहा है। वे नाराज हैं कि नेता हर बार जाति के नाम पर उनसे वोट मांगते हैं और इलाके के विकास पर कभी ध्यान नहीं देते।
मुश्किल यह है कि इस गांव के गरीब लोगों तक सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं पहुंच पा रहा है, जिसकी वजह से उनका आर्थिक संकट और गहराता जा रहा है। अब ऐसे परिवारों के लिए इस बार पलायन ही सबसे अहम चुनावी मुद्दा बन गया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस बार के चुनाव से क्या इस इलाके की तस्वीर बदलेगी?
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