लालू प्रसाद और बिहार कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी के साथ नीतीश कुमार (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
बिहार को करीब एक दशक से विकास की राह में ले जाने वाले नीतीश कुमार प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी तीसरी पारी शुरू करने जा रहे हैं और इस बार उनके सफर में जदयू के अलावा लालू प्रसाद का राजद और कांग्रेस भी होंगे।
जदयू, राजद और कांग्रेस के महागठबंधन ने बिहार की 243 सदस्यीय विधानसभा के लिए हाल ही में संपन्न चुनावों में 178 सीटें हासिल की हैं।
पिछले साल लोकसभा चुनाव में प्रदेश से जदयू का लगभग सफाया हो जाने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले 64 वर्षीय नीतीश ने विधानसभा चुनावों में अपनी रणनीति का फिर से लोहा मनवा दिया।
चुनाव से पहले अटकलें थीं कि क्या गठबंधन हकीकत का रूप ले पाएगा। लेकिन ऐसा हो चुका है। अब कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या नीतीश कुमार अधिक सीटें जीतने वाले राजद के साथ प्रशासन के लिए अपना एजेंडा आगे बढ़ा पाएंगे। चुनाव के पहले ही लालू ने घोषणा कर दी थी कि नीतीश गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। लेकिन अब यह चर्चा चल रही है कि क्या राजद उप मुख्यमंत्री का पद मांगेगा। हालांकि खबरें हैं कि लालू के छोटे बेटे तेजस्वी उपमुख्यमंत्री बन सकते हैं।
महागठबंधन के खाते में आईं 178 सीटों में से राजद के पास 80 सीटें, जदयू के पास 71 सीटें और कांग्रेस के पास 27 सीटें हैं।
फिर से बिहार के चंद्रगुप्त बन रहे नीतीश
बहरहाल, बिहार की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले नीतीश एक बार फिर से प्रदेश के चंद्रगुप्त बनने जा रहे हैं। ‘बिहार के चाणक्य’ के अपने नाम को साबित करते हुए नीतीश ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भारी पराजय झेलने के बाद अपने चिर प्रतिद्वंद्वी राजद प्रमुख लालू प्रसाद के साथ हाथ मिलाकर राजनीतिक पंडितों को हैरत में डाल दिया था।
राज्य की राजनीति में दोस्त से दुश्मन बने लालू और नीतीश ने अपने मतभेद भुलाकर 40 साल पुराने छात्र आंदोलन के जमाने के गठबंधन को फिर से खड़ा किया। इसी छात्र आंदोलन को वरिष्ठ समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने हिंदुस्तान की राजनीति में बड़े बदलावकारी आंदोलन का रूप दिया था।
1985 में नीतीश ने जीता अपना पहला चुनाव
उस आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़कर 1977 के लोकसभा चुनाव में पहली बार कूदे लालू की किस्मत रंग लायी और वह चुनाव जीत गए। लेकिन नीतीश को 1985 में राज्य विधानसभा चुनाव में पहली बार जीत हासिल करने में आठ साल लग गए जो उस समय तत्कालीन बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (आज के एनआईटी पटना) में इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। 1985 से पहले नीतीश दो बार चुनाव हार गए थे।
नीतीश ने 1989 में बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता पद के लिए लालू का समर्थन किया। इसके बाद 1990 में बिहार में जनता दल के सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश ने फिर लालू के कंधे पर हाथ रखा जिन्होंने प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के नामित उम्मीदवारों राम सुंदर दास तथा रघुनाथ झा को चुनौती दी थी।
वाजपेयी सरकार में भी संभाले महत्वपूर्ण मंत्रालय
बाढ़ संसदीय सीट से 1989 में लोकसभा चुनाव जीतने वाले नीतीश ने अपनी नजरें राज्य की राजनीति से हटाकर अब दिल्ली पर केंद्रित कर दी थीं और वह 1991, 1996, 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में भी विजयी रहे। नीतीश ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कृषि मंत्री और 1999 में कुछ समय के लिए रेल मंत्री का पदभार संभाला। लेकिन 1999 में पश्चिम बंगाल के घैसाल में ट्रेन हादसे में करीब 300 लोगों के मारे जाने की घटना के बाद नीतीश ने रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
सौम्य और स्पष्टवादी नीतीश वर्ष 2001 में फिर से रेल मंत्री बने और 2004 तक इस पद पर रहे। इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के इस विशाल उपक्रम में बड़े सुधार लाने का श्रेय उन्हें मिला जिसमें इंटरनेट टिकट बुकिंग और तत्काल बुकिंग शामिल है। इसी दौरान ही फरवरी 2002 में गोधरा ट्रेन कांड हुआ जिसने जल्द ही गुजरात को सांप्रदायिक आग के लपेटे में ले लिया। दिल्ली में सत्ता के गलियारों में नीतीश अपने राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल को मांजने में लगे रहे और लालू से दूर होते चले गए।
1994 में जनता दल से तोड़ा नाता
पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए लालू द्वारा अपनी ही जाति के शरद यादव का समर्थन किए जाने के कारण 1994 में नीतीश कुमार समाजवादी आंदोलन के प्रमुख स्तंभ जॉर्ज फर्नांडिस के साथ जनता दल से बाहर निकल गए और उन्होंने समता पार्टी का गठन किया जिसने 1996 के आम चुनाव से पूर्व भाजपा के साथ हाथ मिला लिया। इसके बाद आने वाले समय में शरद यादव को भी जनता दल में हाशिये पर डाल दिया गया और लालू ने पार्टी को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया। बाद में शरद यादव की अगुवाई वाले जनता दल, समता पार्टी तथा कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े की लोकशक्ति पार्टी का आपस में विलय हो गया और 2003 में एक नया दल जनता दल यूनाइटेड अस्तित्व में आ गया।
2005 में शुरू किया राज्य का कायाकल्प
वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की हार के चलते नीतीश ने फिर से अपना ध्यान बिहार पर केंद्रित किया जहां राबड़ी देवी की सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से गिर रहा था। खुद अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से ताल्लुक रखने वाले नीतीश बिहार की राजनीति में लौटे और लालू-राबड़ी सरकार के खिलाफ जबरदस्त अभियान छेड़ दिया। उनके प्रयास रंग लाए और जेडीयू-भाजपा गठबंधन ने वर्ष 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में अपनी सरकार गठित की जिसमें मुख्यमंत्री पद पर नीतीश की ताजपोशी की गयी।
मुख्यमंत्री पद की कमान संभालते ही नीतीश मिशन मोड में आ गए और बरसों बाद प्रदेश की राजनीति में विकास जैसा नया शब्द सुनायी दिया। उनकी सरकार ने लंबित परियोजनाओं को पूरा किया, एक लाख से अधिक स्कूली अध्यापकों की भर्ती की गयी और अपराध पर लगाम लगायी गयी। दूरदराज के स्कूलों में भी अध्यापक तथा प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में डॉक्टर नजर आने लगे। उन्होंने छात्राओं के लिए मुफ्त साइकिल योजना शुरू की जिससे पढ़ाई बीच में छोड़ने वाली बालिकाओं की संख्या में कमी आयी। इस मिशन का परिणाम यह हुआ कि नीतीश जल्द ही ‘विकास पुरुष’ कहलाने लगे।
दलितों के बीच लालू के समर्थन को काटते हुए नीतीश ने दलितों के बीच भी महादलितों की एक नयी श्रेणी सृजित कर दी और उनके लिए कई कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की।
2010 में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को दिलाई जबरदस्त जीत
वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन ने 243 में से 206 सीटों पर जीत हासिल की और राजद को हाशिये पर धकेल दिया जो केवल 22 सीटों पर सिमट गयी और विपक्ष के नेता पद तक पर दावा नहीं कर सकी। लेकिन भाजपा के साथ अपने मजबूत संबंधों के बावजूद नीतीश कुमार के संबंध अपने गुजरात के समकक्ष नरेन्द्र मोदी के साथ लगातार तनावपूर्ण बने रहे। नीतीश कुमार ने अपनी कमान में बिहार में गठबंधन द्वारा लड़े गए दोनों चुनाव में मोदी को प्रचार से रोकने के लिए हरसंभव प्रयास किए।
2014 में एनडीए से तोड़ा नाता
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख के तौर पर मोदी की नियुक्ति गठबंधन सहयोगी के साथ संबंधों में निर्णायक साबित हुई और नीतीश कुमार जून 2013 में एनडीए से किनारा कर अपने अलग रास्ते पर निकल पड़े। लोकसभा चुनाव में जदयू की शर्मनाक पराजय के बाद 17 मई 2014 को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और महादलित नेता जीतन राम मांझी को सरकार की कमान सौंप दी। इस लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को केवल दो सीटें मिली थीं।
लेकिन विधानसभा चुनाव की आहट से नीतीश को अहसास हुआ कि महादलित नेता पार्टी को जीत नहीं दिला सकेंगे। उन्होंने मांझी से इस्तीफा देने और मुख्यमंत्री पद पर उनकी वापसी का रास्ता साफ करने को कहा। लेकिन मांझी ने इंकार कर दिया और जदयू विधायकों ने उन्हें अपदस्थ कर दिया। फिर नीतीश नौ महीने के वनवास के बाद लालू की राजद तथा कांग्रेस के समर्थन से पुन: सत्तासीन हो गए।
मोदी लहर का सामना करने के लिए नीतीश कुमार और लालू दोनों ही अपने डगमगाते राजनीतिक भविष्य की नैया पार लगाने के लिए नए दोस्त तलाश रहे थे। और इसी के चलते दोनों पूर्व कामरेड ने अपनी पुरानी दुश्मनी को भुलाकर, एक होकर तूफान का मुकाबला करने का फैसला किया और यह एकजुटता काम कर गयी।
जदयू, राजद और कांग्रेस के महागठबंधन ने बिहार की 243 सदस्यीय विधानसभा के लिए हाल ही में संपन्न चुनावों में 178 सीटें हासिल की हैं।
पिछले साल लोकसभा चुनाव में प्रदेश से जदयू का लगभग सफाया हो जाने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले 64 वर्षीय नीतीश ने विधानसभा चुनावों में अपनी रणनीति का फिर से लोहा मनवा दिया।
चुनाव से पहले अटकलें थीं कि क्या गठबंधन हकीकत का रूप ले पाएगा। लेकिन ऐसा हो चुका है। अब कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या नीतीश कुमार अधिक सीटें जीतने वाले राजद के साथ प्रशासन के लिए अपना एजेंडा आगे बढ़ा पाएंगे। चुनाव के पहले ही लालू ने घोषणा कर दी थी कि नीतीश गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। लेकिन अब यह चर्चा चल रही है कि क्या राजद उप मुख्यमंत्री का पद मांगेगा। हालांकि खबरें हैं कि लालू के छोटे बेटे तेजस्वी उपमुख्यमंत्री बन सकते हैं।
महागठबंधन के खाते में आईं 178 सीटों में से राजद के पास 80 सीटें, जदयू के पास 71 सीटें और कांग्रेस के पास 27 सीटें हैं।
फिर से बिहार के चंद्रगुप्त बन रहे नीतीश
बहरहाल, बिहार की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले नीतीश एक बार फिर से प्रदेश के चंद्रगुप्त बनने जा रहे हैं। ‘बिहार के चाणक्य’ के अपने नाम को साबित करते हुए नीतीश ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भारी पराजय झेलने के बाद अपने चिर प्रतिद्वंद्वी राजद प्रमुख लालू प्रसाद के साथ हाथ मिलाकर राजनीतिक पंडितों को हैरत में डाल दिया था।
राज्य की राजनीति में दोस्त से दुश्मन बने लालू और नीतीश ने अपने मतभेद भुलाकर 40 साल पुराने छात्र आंदोलन के जमाने के गठबंधन को फिर से खड़ा किया। इसी छात्र आंदोलन को वरिष्ठ समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने हिंदुस्तान की राजनीति में बड़े बदलावकारी आंदोलन का रूप दिया था।
1985 में नीतीश ने जीता अपना पहला चुनाव
उस आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़कर 1977 के लोकसभा चुनाव में पहली बार कूदे लालू की किस्मत रंग लायी और वह चुनाव जीत गए। लेकिन नीतीश को 1985 में राज्य विधानसभा चुनाव में पहली बार जीत हासिल करने में आठ साल लग गए जो उस समय तत्कालीन बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (आज के एनआईटी पटना) में इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। 1985 से पहले नीतीश दो बार चुनाव हार गए थे।
नीतीश ने 1989 में बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता पद के लिए लालू का समर्थन किया। इसके बाद 1990 में बिहार में जनता दल के सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश ने फिर लालू के कंधे पर हाथ रखा जिन्होंने प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के नामित उम्मीदवारों राम सुंदर दास तथा रघुनाथ झा को चुनौती दी थी।
वाजपेयी सरकार में भी संभाले महत्वपूर्ण मंत्रालय
बाढ़ संसदीय सीट से 1989 में लोकसभा चुनाव जीतने वाले नीतीश ने अपनी नजरें राज्य की राजनीति से हटाकर अब दिल्ली पर केंद्रित कर दी थीं और वह 1991, 1996, 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में भी विजयी रहे। नीतीश ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कृषि मंत्री और 1999 में कुछ समय के लिए रेल मंत्री का पदभार संभाला। लेकिन 1999 में पश्चिम बंगाल के घैसाल में ट्रेन हादसे में करीब 300 लोगों के मारे जाने की घटना के बाद नीतीश ने रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
सौम्य और स्पष्टवादी नीतीश वर्ष 2001 में फिर से रेल मंत्री बने और 2004 तक इस पद पर रहे। इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के इस विशाल उपक्रम में बड़े सुधार लाने का श्रेय उन्हें मिला जिसमें इंटरनेट टिकट बुकिंग और तत्काल बुकिंग शामिल है। इसी दौरान ही फरवरी 2002 में गोधरा ट्रेन कांड हुआ जिसने जल्द ही गुजरात को सांप्रदायिक आग के लपेटे में ले लिया। दिल्ली में सत्ता के गलियारों में नीतीश अपने राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल को मांजने में लगे रहे और लालू से दूर होते चले गए।
1994 में जनता दल से तोड़ा नाता
पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए लालू द्वारा अपनी ही जाति के शरद यादव का समर्थन किए जाने के कारण 1994 में नीतीश कुमार समाजवादी आंदोलन के प्रमुख स्तंभ जॉर्ज फर्नांडिस के साथ जनता दल से बाहर निकल गए और उन्होंने समता पार्टी का गठन किया जिसने 1996 के आम चुनाव से पूर्व भाजपा के साथ हाथ मिला लिया। इसके बाद आने वाले समय में शरद यादव को भी जनता दल में हाशिये पर डाल दिया गया और लालू ने पार्टी को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया। बाद में शरद यादव की अगुवाई वाले जनता दल, समता पार्टी तथा कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े की लोकशक्ति पार्टी का आपस में विलय हो गया और 2003 में एक नया दल जनता दल यूनाइटेड अस्तित्व में आ गया।
2005 में शुरू किया राज्य का कायाकल्प
वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की हार के चलते नीतीश ने फिर से अपना ध्यान बिहार पर केंद्रित किया जहां राबड़ी देवी की सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से गिर रहा था। खुद अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से ताल्लुक रखने वाले नीतीश बिहार की राजनीति में लौटे और लालू-राबड़ी सरकार के खिलाफ जबरदस्त अभियान छेड़ दिया। उनके प्रयास रंग लाए और जेडीयू-भाजपा गठबंधन ने वर्ष 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में अपनी सरकार गठित की जिसमें मुख्यमंत्री पद पर नीतीश की ताजपोशी की गयी।
मुख्यमंत्री पद की कमान संभालते ही नीतीश मिशन मोड में आ गए और बरसों बाद प्रदेश की राजनीति में विकास जैसा नया शब्द सुनायी दिया। उनकी सरकार ने लंबित परियोजनाओं को पूरा किया, एक लाख से अधिक स्कूली अध्यापकों की भर्ती की गयी और अपराध पर लगाम लगायी गयी। दूरदराज के स्कूलों में भी अध्यापक तथा प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में डॉक्टर नजर आने लगे। उन्होंने छात्राओं के लिए मुफ्त साइकिल योजना शुरू की जिससे पढ़ाई बीच में छोड़ने वाली बालिकाओं की संख्या में कमी आयी। इस मिशन का परिणाम यह हुआ कि नीतीश जल्द ही ‘विकास पुरुष’ कहलाने लगे।
दलितों के बीच लालू के समर्थन को काटते हुए नीतीश ने दलितों के बीच भी महादलितों की एक नयी श्रेणी सृजित कर दी और उनके लिए कई कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की।
2010 में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को दिलाई जबरदस्त जीत
वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन ने 243 में से 206 सीटों पर जीत हासिल की और राजद को हाशिये पर धकेल दिया जो केवल 22 सीटों पर सिमट गयी और विपक्ष के नेता पद तक पर दावा नहीं कर सकी। लेकिन भाजपा के साथ अपने मजबूत संबंधों के बावजूद नीतीश कुमार के संबंध अपने गुजरात के समकक्ष नरेन्द्र मोदी के साथ लगातार तनावपूर्ण बने रहे। नीतीश कुमार ने अपनी कमान में बिहार में गठबंधन द्वारा लड़े गए दोनों चुनाव में मोदी को प्रचार से रोकने के लिए हरसंभव प्रयास किए।
2014 में एनडीए से तोड़ा नाता
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख के तौर पर मोदी की नियुक्ति गठबंधन सहयोगी के साथ संबंधों में निर्णायक साबित हुई और नीतीश कुमार जून 2013 में एनडीए से किनारा कर अपने अलग रास्ते पर निकल पड़े। लोकसभा चुनाव में जदयू की शर्मनाक पराजय के बाद 17 मई 2014 को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और महादलित नेता जीतन राम मांझी को सरकार की कमान सौंप दी। इस लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को केवल दो सीटें मिली थीं।
लेकिन विधानसभा चुनाव की आहट से नीतीश को अहसास हुआ कि महादलित नेता पार्टी को जीत नहीं दिला सकेंगे। उन्होंने मांझी से इस्तीफा देने और मुख्यमंत्री पद पर उनकी वापसी का रास्ता साफ करने को कहा। लेकिन मांझी ने इंकार कर दिया और जदयू विधायकों ने उन्हें अपदस्थ कर दिया। फिर नीतीश नौ महीने के वनवास के बाद लालू की राजद तथा कांग्रेस के समर्थन से पुन: सत्तासीन हो गए।
मोदी लहर का सामना करने के लिए नीतीश कुमार और लालू दोनों ही अपने डगमगाते राजनीतिक भविष्य की नैया पार लगाने के लिए नए दोस्त तलाश रहे थे। और इसी के चलते दोनों पूर्व कामरेड ने अपनी पुरानी दुश्मनी को भुलाकर, एक होकर तूफान का मुकाबला करने का फैसला किया और यह एकजुटता काम कर गयी।
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