पटना:
बिहार चुनाव में बीजेपी, जेडीयू, आरजेडी, एलजेपी, कांग्रेस, आरएलएसपी सहित कई और पार्टियों के आपसी गठबंधन चुनावी मैदान में हैं। गठबंधन और महागठबंधन में से फायदा और नुकसान भले किसी का हो, कुछ लोग हैं जिनका नुकसान तय है और वो हैं इन पार्टियों के प्रचार-प्रसार सामग्री बेचने वाले दुकानदार।
इन दुकानदारों की अच्छी कमाई का जरिया चुनाव ही होते हैं। वैसे तो इनकी दुकानदारी सालों-साल पार्टी कार्यकर्ताओं के भरोसे हल्की फुल्की चलती रहती है, लेकिन कमाई का मौसम विधानसभा और लोकसभा चुनावों में आता है। इसी उम्मीद के सहारे ये दुकानदार अपनी जमापूंजी के साथ रकम उधार लेकर पार्टी कार्यालय के पास लगी अपनी दुकान में सामान भर लेते हैं। जिन लोगों ने चुनाव के वक़्त ही पार्टी के पास दुकान खोलकर चार पैसे कमाने के सपने संजोये थे उनकी इस विधानसभा चुनाव में पूरी तरह से जमापूंजी डूबने लगी है। सभी सियासी दफ्तरों में लगी प्रचार-प्रसार की दुकानों से ग्राहक गायब है, दिखाई देती है तो इन दुकानदारों के माथों पर चिंता की लकीरें।
बीजेपी कार्यालय के बाहर पहली बार दुकान लगाए शुभम को उम्मीद थी कि कार्यकर्ताओं के रथ में सवार होकर उनकी नैय्या पार लग जाएगी, लेकिन उनके ख्वाब सिर्फ ख्वाब रह गए। उनका मानना है कि बीजेपी ने भी अपने उम्मीदवारों को सीधे तौर पर प्रचार सामग्री पहुंचा दी और रही सही कसर आचार संहिता ने पूरी कर दी, जिसकी वजह से उम्मीदवारों के कदम थम थम गए। आरजेडी कार्यालय में लगी दो दुकानों में से एक पर 20 साल से अधिक समय से बैठ रहे दुकानदार अरविंद कुमार नफा-नुकसान के सवाल के जवाब में हल्की मुस्कुराहट के साथ कहते हैं कि नुकसान तो नहीं हुआ, लेकिन जिस उम्मीद के सहारे हम बैठे थे, उसमें 25 प्रतिशत कमी जरूर रह गई।
सदाकत आश्रम स्थित कांग्रेस कार्यालय के अंदर दुकान लगाए अशोक का चेहरा फीका पड़ चुका है, क्योंकि सुबह से शाम तक वो अपना सामान सजाये बैठे रहते हैं और सिवाए सन्नाटे के कुछ हाथ नहीं आता। अब तक उनका लाखों रुपये का घाटा हो चुका है। उनका मानना है कि इस बार कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों को सीधे चुनाव प्रचार सामग्री भिजवाई, जो इनके लिए भारी नुकसान का सबब बनी। वहीं आचार संहिता ने भी काफी असर डाला।
जेडीयू कार्यालय के अंदर 15 साल से दुकान लगाए विक्रम कुमार विक्की कहते हैं, जिस उम्मीद के सहारे इस बार हमने अपनी पूंजी लगाई थी, उसमें हमें निराशा का सामना करना पड़ा। पहले और दूसरे चरण में कुछ दुकानदारी हुई थी, लेकिन अब वो भी धीरे-धीरे कम हो रही है। हम फिक्रमंद हैं, लेकिन उम्मीद के सहारे अपनी दुकान पर बैठे हैं।
इन दुकानदारों की अच्छी कमाई का जरिया चुनाव ही होते हैं। वैसे तो इनकी दुकानदारी सालों-साल पार्टी कार्यकर्ताओं के भरोसे हल्की फुल्की चलती रहती है, लेकिन कमाई का मौसम विधानसभा और लोकसभा चुनावों में आता है। इसी उम्मीद के सहारे ये दुकानदार अपनी जमापूंजी के साथ रकम उधार लेकर पार्टी कार्यालय के पास लगी अपनी दुकान में सामान भर लेते हैं। जिन लोगों ने चुनाव के वक़्त ही पार्टी के पास दुकान खोलकर चार पैसे कमाने के सपने संजोये थे उनकी इस विधानसभा चुनाव में पूरी तरह से जमापूंजी डूबने लगी है। सभी सियासी दफ्तरों में लगी प्रचार-प्रसार की दुकानों से ग्राहक गायब है, दिखाई देती है तो इन दुकानदारों के माथों पर चिंता की लकीरें।
बीजेपी कार्यालय के बाहर पहली बार दुकान लगाए शुभम को उम्मीद थी कि कार्यकर्ताओं के रथ में सवार होकर उनकी नैय्या पार लग जाएगी, लेकिन उनके ख्वाब सिर्फ ख्वाब रह गए। उनका मानना है कि बीजेपी ने भी अपने उम्मीदवारों को सीधे तौर पर प्रचार सामग्री पहुंचा दी और रही सही कसर आचार संहिता ने पूरी कर दी, जिसकी वजह से उम्मीदवारों के कदम थम थम गए। आरजेडी कार्यालय में लगी दो दुकानों में से एक पर 20 साल से अधिक समय से बैठ रहे दुकानदार अरविंद कुमार नफा-नुकसान के सवाल के जवाब में हल्की मुस्कुराहट के साथ कहते हैं कि नुकसान तो नहीं हुआ, लेकिन जिस उम्मीद के सहारे हम बैठे थे, उसमें 25 प्रतिशत कमी जरूर रह गई।
सदाकत आश्रम स्थित कांग्रेस कार्यालय के अंदर दुकान लगाए अशोक का चेहरा फीका पड़ चुका है, क्योंकि सुबह से शाम तक वो अपना सामान सजाये बैठे रहते हैं और सिवाए सन्नाटे के कुछ हाथ नहीं आता। अब तक उनका लाखों रुपये का घाटा हो चुका है। उनका मानना है कि इस बार कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों को सीधे चुनाव प्रचार सामग्री भिजवाई, जो इनके लिए भारी नुकसान का सबब बनी। वहीं आचार संहिता ने भी काफी असर डाला।
जेडीयू कार्यालय के अंदर 15 साल से दुकान लगाए विक्रम कुमार विक्की कहते हैं, जिस उम्मीद के सहारे इस बार हमने अपनी पूंजी लगाई थी, उसमें हमें निराशा का सामना करना पड़ा। पहले और दूसरे चरण में कुछ दुकानदारी हुई थी, लेकिन अब वो भी धीरे-धीरे कम हो रही है। हम फिक्रमंद हैं, लेकिन उम्मीद के सहारे अपनी दुकान पर बैठे हैं।
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