2011 के विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी की पार्टी ने 184 सीटें हासिल की थीं
कोलकाता:
पश्चिम बंगाल के राजनीतिक इतिहास और मौजूदा गठबंधनों को देखते हुए इस बात की 60 फीसदी संभावना है कि ममता बनर्जी मुख्यमंत्री के रूप में लगातार दूसरी बार जीत दर्ज करेंगी। राज्य में छह चरणों में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हो रहे हैं। कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन की जीत के आसार 40 प्रतिशत हैं।
लेकिन सब कुछ वोटों के उतार-चढ़ाव पर निर्भर है, भले ही यह थोड़े अंतर से ही हों। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस से अगर तीन फीसदी वोटों का झुकाव कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन की ओर हो जाता है, तो यह गठबंधन 294 सीटों में से 149 सीटें हासिल कर थोड़ा 'कमजोर' बहुमत जुटा सकता है और तृणमूल 129 सीटों पर सिमट सकती है। ठीक इसी तरह तृणमूल की ओर दो फीसदी वोटों का अतिरिक्त झुकाव ममता की पार्टी को 200 से अधिक सीटें दिला सकता है।
ममता बनर्जी की पार्टी 2011 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ी थी। इस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने 184 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि कांग्रेस को 42 सीटें हासिल हुई थीं। दशकों से इस राज्य में सत्ता पर काबिज रहे वामदल को उस साल करारी मात झेलनी पड़ी थी और उसे सिर्फ 62 सीटें हासिल हुई थीं। 2014 के आम चुनावों तक ममता बनर्जी ने कांग्रेस से राहें अलग कर लीं और वह राज्य में और मजबूत होकर उभरती रहीं। उनकी पार्टी ने राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 34 पर विजय प्राप्त की थी। कांग्रेस और लेफ्ट ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, और दोनों को 28 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई थी। 2014 के आम चुनावों में बीजेपी ने पहली बार अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई और वह दो लोकसभा सीटों पर कामयाब रही।
2011 में बीजेपी को कोई सफलता नहीं मिली थी और उस वक्त से वह राज्य में अपने कैडर को मजबूत बनाने में जुटी हुई थी। 2014 में नरेंद्र मोदी की लहर के बीच बीजेपी ने 12 फीसदी मतों की बढ़त हासिल की, जो लेफ्ट के वोटों में सेंध साबित हुई। अगर लेफ्ट उसमें से आधे यानी छह प्रतिशत वोट भी दोबारा हासिल कर ले, तो इसका मतलब है कि कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन को 55 सीटों का फायदा हो सकता है।
विपक्ष की एकजुटता, जिसका मतलब है कि अगर इस बार लेफ्ट और कांग्रेस एक-दूसरे के वोट न काटे तो इस बात से भी इस गठबंधन को दो साल पहले की तुलना में 41 सीटों का फायदा हो सकता है। ये दोनों कारण मिलकर लेफ्ट-कांग्रेस को बहुमत तक पहुंचा सकते हैं। 2014 के आम चुनावों के दौरान दोनों पार्टियों साथ मिलकर 56 विधानसभा सीटों पर जीत सकती थीं। अगर दोनों दलों ने उस वक्त साथ चुनाव लड़ा होता तो उन्हें 97 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिल सकती थी, हालांकि इससे तृणमूल का वर्चस्व खत्म नहीं होता। लेकिन अगर 2011 में दोनों ने साथ चुनाव लड़ा होता, तो शायद ममता बनर्जी मुख्यमंत्री नहीं बन पातीं।
लेकिन सब कुछ वोटों के उतार-चढ़ाव पर निर्भर है, भले ही यह थोड़े अंतर से ही हों। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस से अगर तीन फीसदी वोटों का झुकाव कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन की ओर हो जाता है, तो यह गठबंधन 294 सीटों में से 149 सीटें हासिल कर थोड़ा 'कमजोर' बहुमत जुटा सकता है और तृणमूल 129 सीटों पर सिमट सकती है। ठीक इसी तरह तृणमूल की ओर दो फीसदी वोटों का अतिरिक्त झुकाव ममता की पार्टी को 200 से अधिक सीटें दिला सकता है।
ममता बनर्जी की पार्टी 2011 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ी थी। इस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने 184 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि कांग्रेस को 42 सीटें हासिल हुई थीं। दशकों से इस राज्य में सत्ता पर काबिज रहे वामदल को उस साल करारी मात झेलनी पड़ी थी और उसे सिर्फ 62 सीटें हासिल हुई थीं। 2014 के आम चुनावों तक ममता बनर्जी ने कांग्रेस से राहें अलग कर लीं और वह राज्य में और मजबूत होकर उभरती रहीं। उनकी पार्टी ने राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 34 पर विजय प्राप्त की थी। कांग्रेस और लेफ्ट ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, और दोनों को 28 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई थी। 2014 के आम चुनावों में बीजेपी ने पहली बार अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई और वह दो लोकसभा सीटों पर कामयाब रही।
2011 में बीजेपी को कोई सफलता नहीं मिली थी और उस वक्त से वह राज्य में अपने कैडर को मजबूत बनाने में जुटी हुई थी। 2014 में नरेंद्र मोदी की लहर के बीच बीजेपी ने 12 फीसदी मतों की बढ़त हासिल की, जो लेफ्ट के वोटों में सेंध साबित हुई। अगर लेफ्ट उसमें से आधे यानी छह प्रतिशत वोट भी दोबारा हासिल कर ले, तो इसका मतलब है कि कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन को 55 सीटों का फायदा हो सकता है।
विपक्ष की एकजुटता, जिसका मतलब है कि अगर इस बार लेफ्ट और कांग्रेस एक-दूसरे के वोट न काटे तो इस बात से भी इस गठबंधन को दो साल पहले की तुलना में 41 सीटों का फायदा हो सकता है। ये दोनों कारण मिलकर लेफ्ट-कांग्रेस को बहुमत तक पहुंचा सकते हैं। 2014 के आम चुनावों के दौरान दोनों पार्टियों साथ मिलकर 56 विधानसभा सीटों पर जीत सकती थीं। अगर दोनों दलों ने उस वक्त साथ चुनाव लड़ा होता तो उन्हें 97 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिल सकती थी, हालांकि इससे तृणमूल का वर्चस्व खत्म नहीं होता। लेकिन अगर 2011 में दोनों ने साथ चुनाव लड़ा होता, तो शायद ममता बनर्जी मुख्यमंत्री नहीं बन पातीं।
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