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ये है 100 साल से चल रहा दुनिया का सबसे लंबा और सबसे धीमा वैज्ञानिक प्रयोग, अगली सदी तक रहेगा जारी

Longest Running Experiment: दुनिया का सबसे लंबा चलने वाला यह वैज्ञानिक प्रयोग (पिच ड्रॉप प्रयोग) क्वींसलैंड विश्वविद्यालय में 1927 से चल रहा है, जिसके अगले 100 सालों तक जारी रहने की संभावना जताई जा रही है.

ये है 100 साल से चल रहा दुनिया का सबसे लंबा और सबसे धीमा वैज्ञानिक प्रयोग, अगली सदी तक रहेगा जारी

Longest and slowest Experiment In The World: दुनियाभर में ऐसे कई वैज्ञानिक हैं, जो कई बार अपने एक्सपेरिमेंट से लोगों को हैरान कर देते हैं. जैसा कि सभी जानते हैं कि, हर रिसर्च में थोड़ा ना थोड़ा तो समय लगता ही है, लेकिन हाल ही में एक प्रयोग ने तो दुनिया को ही चौंका दिया. दरअसल, हम जिस वैज्ञानिक प्रयोग की बात कर रहे हैं, उसे दुनिया का सबसे लंबा और धीमा प्रयोग करार दिया जा रहा है, जिसकी इन दिनों इंटरनेट पर खूब चर्चा हो रही है. सबसे लंबे समय तक चलने वाले इस प्रयोग का गिनीज विश्व रिकॉर्ड ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के पास है, जो लगभग 100 वर्षों से 'पिच ड्रॉप प्रयोग' चला रहे हैं, जो एक और शताब्दी तक चल सकता है

दुनिया का सबसे लंबा एक्सपेरिमेंट

इस प्रयोग की खास बात ये है कि, यह 1927 से चल रहा है, जो कि अब तक 100 साल से ज्यादा समय बिता चुका है और हैरानी की बात तो ये है कि, यह प्रयोग अगले एक शतक तक जारी रह सकता है. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि, इस प्रयोग में पिच नामक पदार्थ की घनता और प्रवाहशीलता को मापने के लिए उसे एक कांच की फ़नल में रखा गया है. आपको जानकर हैरानी होगी कि अब तक सिर्फ 9 ड्रॉप्स ही गिरे हैं. ये प्रोसेस इतनी ज्यादा स्लो है कि, अब तक किसी ने भी एक ड्रॉप गिरते हुए नहीं देखा.

सबसे धीमा वैज्ञानिक प्रयोग

बताया जा रहा है कि, ऑस्ट्रेलिया के भौतिकविद थॉमस पार्नेल ने इस खास प्रयोग को साल 1930 में शुरू किया था, जिसके जरिए वो रोजाना इस्तेमाल होने वाली चीजों की चौंकाने वाले गुण दिखाना चाहते थे. इस पिच ड्रॉप एक्सपेरीमेंट के लिए उन्होंने पिच नामक एक अत्यधिक चिपचिपे टार जैसे पदार्थ का यूज किया था. कहा जा रहा है कि, ठोस प्रतीत होता यह पदार्थ शहद से दो मिलियन गुना अधिक चिपचिपा है. यह अजीबोगरीब पदार्थ हथौड़े से मारे जाने पर कांच की तरह टूट भी सकता है.

अगले सदी तक जारी रह सकता है पिच ड्रॉप प्रयोग

इस प्रयोग को करते समय पार्नेल ने पिच का एक नमूना गर्म किया और इसे सीलबंद स्टेम के साथ एक ग्लास फ़नल में डाल दिया. उन्होंने पिच को तीन साल तक ठंडा और व्यवस्थित होने दिया. 1930 में उन्होंने फ़नल की भाप को काटा और प्रतीक्षा की. विश्वविद्यालय के अनुसार, "यह प्रयोग एक प्रदर्शन के रूप में स्थापित किया गया था और इसे विशेष पर्यावरणीय स्थितियों में नहीं रखा गया. इसके बजाय, इसे एक डिस्प्ले कैबिनेट में रखा गया है, ताकि पिच के प्रवाह की दर तापमान में मौसमी बदलावों के साथ बदलती रहे.

94 साल में टपक सकी हैं केवल 9 बूंदें

पार्नेल के बाद दिवंगत प्रोफेसर जॉन मेनस्टोन 1961 में इस प्रयोग के संरक्षक बने और इसे 52 वर्षों तक जारी रखा. प्रयोग की शुरुआत के बाद से पिच धीरे-धीरे फ़नल से बाहर टपक रही है- इतनी धीरे-धीरे कि पहली बूंद गिरने में आठ साल लग गए और इसके बाद पांच बूंद गिरने में 40 साल से अधिक का समय लग गया. अब तक, इस प्रयोग में कुल 9 ड्रॉप्स गिर चुके हैं. अगले दशक में एक और ड्रॉप गिरने की संभावना है, लेकिन इसके बावजूद, यह प्रयोग इतना धीमा है कि अब तक किसी ने भी गिरते हुए ड्रॉप को देखा नहीं है.

2005 में थॉमस पारनेल और प्रोफेसर जॉन मेनस्टोन (मृत्युपश्चात) को इग नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह एक व्यंग्यात्मक पुरस्कार है जो वैज्ञानिक शोध के obscure और तात्कालिक उपलब्धियों को उजागर करता है. इग नोबेल पुरस्कार का उद्देश्य ऐसी शोध को सम्मानित करना है, जो लोगों को हंसाने के साथ-साथ सोचने पर भी मजबूर करती है.

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