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This Article is From Dec 27, 2016

सिर्फ जयंती पर याद नहीं आते, हमेशा दिल में बसे रहते हैं मिर्ज़ा ग़ालिब...

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सिर्फ जयंती पर याद नहीं आते, हमेशा दिल में बसे रहते हैं मिर्ज़ा ग़ालिब...
नई दिल्ली: उर्दू के सबसे मजबूत दस्तखतों में से एक मिर्ज़ा ग़ालिब की आज जयंती है... पुरानी दिल्ली के बल्ली मारान इलाके की गली कासिम जान में रहने वाले असदुल्ला खां ग़ालिब को दुनिया आज तक मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से याद करती है, और हम मौके पर उनके कहे शेर ही लोगों को याद आते हैं... हाल ही में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष करते हुए मिर्ज़ा ग़ालिब का ही शेर पढ़ा था...

27 दिसंबर, 1797 को उत्तर प्रदेश के आगरा में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में जन्मे मिर्ज़ा ग़ालिब ने हज़ारों शेर कहे, जिन्हें भुला पाना किसी के लिए भी आसान नहीं है... बताया जाता है कि मिर्ज़ा ग़ालिब का जीवनयापन ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्याधिकारी रहे उनके चाचा की पेंशन से ही होता था, जो बेहद कम हुआ करती थी, सो, वह ताउम्र किल्लत में ही रहे, और उनका देहांत 15 फरवरी, 1869 को हुआ...

बहुत छोटी उम्र, यानी 12 साल की उम्र से ही उर्दू और फ़ारसी में लिखना शुरू कर देने वाले मिर्ज़ा ग़ालिब के 10 शेर हम आज आपके सामने पेश कर रहे हैं, जो बेहद मशहूर रहे हैं... आपसे अनुरोध है कि नीचे दिए कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं कि क्या आपको इनके अलावा उनका कोई शेर या ग़ज़ल बहुत पसंद है...

मिर्ज़ा ग़ालिब अपने बारे में खुद कहा करते थे -

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़े-बयां और...


'हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी' उनकी ऐसी ग़ज़ल है, जिसके कम से कम तीन शेर लगभग हर किसी ने सुने, इस्तेमाल किए हैं -

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमां, लेकिन फिर भी कम निकले...

निकलना ख़ुल्द से आदम का, सुनते आए थे लेकिन,
बहुत बेआबरू हो कर, तेरे कूचे से हम निकले...

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़, जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं, जिस क़ाफ़िर पे दम निकले...


कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मिर्ज़ा ग़ालिब का जो शेर अपने भाषण में पढ़ा था -

हर एक बात पे कहते हो तुम, कि तू क्या है,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है...


इसी ग़ज़ल का एक और शेर है, जो बेहद पसंद किया जाता है -

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल,
जो आंख ही से न टपका, तो वो लहू क्या है...


इश्क, आशिक और माशूक हमेशा से उर्दू शायरी में शुमार रहे हैं, सो, मिर्ज़ा ग़ालिब भी इश्क को छोड़कर नहीं रह सकते थे -

ये इश्क नहीं आसां, इतना ही समझ लीजै,
इक आग का दरिया है, और डूबके जाना है...


इसके अलावा उनकी एक अन्य ग़ज़ल के दो शेर भी बेहद मशहूर हैं -

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक...

हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन‌,
ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक...


एक अन्य शेर में उन्होंने खुद के होने पर सवालिया निशान लगाते हुए कहा -

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता...


मुहब्बत के बारे में ग़ालिब के शेर हमेशा से याद किए जाते हैं, पढ़े जाते हैं, सुनाए जाते हैं... एक ऐसा ही शेर है -

मत पूछ कि क्या हाल है, मेरा तेरे पीछे,
तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे...

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